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…हे दीनानाथ, सबको रोशनी देना!

सत्यानंद निरुपम (लेखक जाने-माने कवि और राजकमल प्रकाशन के संपादकीय निदेशक हैं.) छठ-गीतों में ‘छठी मइया’ के अलावा जिसे सर्वाधिक संबोधित किया गया है, वे हैं ‘दीनानाथ’. दीनों के ये नाथ सूर्य हैं. बड़े भरोसे के नाथ, निर्बल के बल! ईया (दादी) जब किसी विकट स्थिति में पड़तीं, कोई अप्रिय खबर सुनतीं, बेसम्भार दुख या […]

सत्यानंद निरुपम
(लेखक जाने-माने कवि
और राजकमल प्रकाशन के संपादकीय निदेशक हैं.)
छठ-गीतों में ‘छठी मइया’ के अलावा जिसे सर्वाधिक संबोधित किया गया है, वे हैं ‘दीनानाथ’. दीनों के ये नाथ सूर्य हैं. बड़े भरोसे के नाथ, निर्बल के बल! ईया (दादी) जब किसी विकट स्थिति में पड़तीं, कोई अप्रिय खबर सुनतीं, बेसम्भार दुख या चुनौती की घड़ी उनके सामने आ पड़ती, कुछ पल चौकन्ने भाव से शून्य में देखतीं और गहरी सांस छोड़तीं. फिर उनके मुंह से पहला संबोधन बहुत धीमे स्वर में निकलता- हे दीनानाथ! ऐसा अपनी जानी-पहचानी दुनिया में ठहरे व्यक्तित्व वाले कई बुजुर्गों के साथ मैंने देखा है. वे लोग जाने किस भरोसे से पहले दीनानाथ को ही पुकारते!
उनकी पुकार कितनी बार सुनी गयी, कितनी बार अनसुनी रही, किसी को क्या पता! लेकिन, ‘एक भरोसो एक बल’ वाला उनका भाव अखंडित रहा. मुझे वे लोग प्रकृति के अधिक अनुकूल लगे. प्रकृति के सहचर! प्रकृति से नाभिनाल बंधे उसकी जैविक संतान! अब कितने बरस बीत गये, किसी को दीनानाथ को गुहराते नहीं सुना. सिवा छठ-गीतों में चर्चा आने के! जाने क्या बात है!
शायद इसलिए कि मनुष्य प्रकृति से दूर हुआ है. उसकी प्राकृतिक निर्भरता कम हुई है. वह अपनी आंतरिक शक्तिको जगाने और उसे ऊर्जस्वित बनाये रखने की पुरखों की सहज-वृत्ति को खो रहा है. उसे बाह्य शक्तियों का चमत्कार खींच रहा है.
यह इसलिए हो रहा है कि मनुष्य के पास धैर्य और सहनशक्ति कम हुई है. जैसे पहले किसी को मौसम बदलने पर सर्दी-बुखार हो तो वह तीन दिन उसे बर्दाश्त करता था. भरसक आराम और जरूरी परहेज करता था. बिना दवा के सब ठीक हो जाता था. अब पहले ही दिन व्यक्ति दवा ले लेता है. परहेज और आराम के लिए उसके पास न समय है, न धैर्य. सबसे बड़ी बात है, तकलीफ को कुछ हद तक बर्दाश्त करने की क्षमता ही जैसे कम हुई है.
सूर्य क्यों दीन हीन के नाथ हैं? क्योंकि उन्हें पूजने में निर्धन से निर्धन व्यक्ति को भी केवल एक अंजुरी जल की जरूरत होती है. सूर्य प्रत्यक्ष अनुभव के देव हैं. उनके दर्शन और स्पर्श को मनुष्य अनुभूत करता है. उनसे निरंतर ऊर्जा पाता है. उनके उगने और डूबने से जीवन का क्रिया-व्यापार निर्धारित होता आया है. रात काटना मुश्किल रहता आया है, क्योंकि किसी भी विपदा का निदान सूरज उगने पर ही संभव होता दिखता रहा है. यही वजह रही है कि भारत जैसे आध्यात्मिक देश में डूबते सूरज की भी पूजा होती है. हालांकि समाज में कहावत तो यह है कि सब उगते सूरज को ही पूजते हैं, लेकिन छठ जैसे व्रत में डूबते सूरज का महात्म्य बहुत है.
जो उगा है, डूबेगा और जो डूब रहा है, वह फिर उगेगा-इस नियति-चक्र का स्वीकार-भाव ही अदम्य जिजीविषा का स्रोत है. और इसी स्वीकार-भाव को विश्वास बना लेने का उपक्रम है-ढलते सूरज को भी अर्घ देकर संध्या-वंदन करना. भारतीय समाज मूलतः प्रकृति-पूजक समाज रहा है. प्रकृति पूजा से देव पूजा और देव पूजा से व्यक्ति पूजा की यात्रा-कथा मनुष्य के लगातार कमजोर पड़ते जाने की कथा है. अपनी आंतरिक शक्ति पर कम होते जा रहे भरोसे की कथा है. यह अलग विचारणीय विषय है.
अपने आसपास के माहौल पर ध्यान दें, तो पायेंगे कि देखते-देखते इस दौरान कई सारे देवता लोकाचार में नये उतार दिये गये हैं. कई देवियां देखते-देखते भक्ति की दुकान में सबसे चमकदार सामान बना दी गयी हैं. अब लोग अपनी कुलदेवी को पूजने साल में एक बार भी अपने गांव-घर जाते हों या नहीं जाते हों, वैष्णव देवी की दौड़ जरूर लगाते रहते हैं.
जब से वैष्णव देवी फिल्मों में संकटहरण देवी के रूप में दिखलायी गयीं और नेता से लेकर सरकारी अफसरान तक वहां भागने लगे, तमाम पुरबिया लोग अब विंध्यांचल जाने में कम, वैष्णव देवी के दरबार में पहुंचने की उपलब्धि बटोरने को ज्यादा आतुर हैं. भक्ति अब वह फैशन है, जिसमें आराध्य भी अब ट्रेंड की तर्ज पर बदल रहे हैं.
पहले भक्ति आत्मिक शांति और कमजोर क्षणों में जिजीविषा को बचाये रखने की चीज थी. अब श्रेष्ठता-बोध का एक मानक वह भी है. मसलन, आप किस बाबा या मां के भक्त हैं? बाबा या मां के आप किस कदर नजदीक हैं? इतना ही नहीं, ‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय’ वाली भावना आउटडेटेड बेचारगी जैसी बात है.
कुछ करे न करे, सुन ले. दुख सुन ले. भरम सुन ले. मति और गति फेरे न फेरे, बात को तसल्ली से सुन ले. पहले दीनानाथ सुनते थे. भले हुंकारी भरने नहीं आते थे, लेकिन लोगों को लगता था, वे सब सुन रहे हैं और राह सुझा रहे हैं. आजकल हाहाकारी समाज को हुंकारी बाबा और मां चाहिए. जो राह सुझाए न सुझाए, मन उलझाए रखे. वैसे लगे हाथ एक बात और कहूं, नेता भी सबको ऐसे ही भले लग रहे हैं जो उलझाये रखें. हे दीनानाथ, सबको रोशनी देना!

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