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केंद्र सरकार का कड़ा रुख, भ्रामक दावों पर बेची जा रही हैं दवाएं

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 328 फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन दवाओं पर प्रतिबंध लगाया है. देश की शीर्षस्थ सलाहकार संस्था ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड का कहना है कि उपचार करने का इन दवाओं के दावों का कोई चिकित्सकीय आधार नहीं है. भारत में दो हजार से अधिक ऐसी दवाएं चलन में हैं, जबकि अमेरिका में इनकी संख्या […]

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 328 फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन दवाओं पर प्रतिबंध लगाया है. देश की शीर्षस्थ सलाहकार संस्था ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड का कहना है कि उपचार करने का इन दवाओं के दावों का कोई चिकित्सकीय आधार नहीं है. भारत में दो हजार से अधिक ऐसी दवाएं चलन में हैं, जबकि अमेरिका में इनकी संख्या पांच सौ के आसपास है. साल 2016 में ऐसी 344 दवाओं पर रोक लगायी गयी थी, पर अदालत ने इसे खारिज कर दिया था. दिसंबर में सर्वोच्च न्यायालय ने सलाहकार संस्था को इन दवाओं पर विचार करने का निर्देश दिया था. रोक के मौजूदा फैसले को भी अदालत में फिर चुनौती दी गयी है. इस मुद्दे से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर आज का इन-दिनों…

गैरजरूरी दवाओं पर कसता शिकंजा

डॉ एके अरुण

जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने विगत दिनों देश में धड़ल्ले से बेची जा रही गैरजरूरी 328 दवाओं की बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया है. ये दवाइयां एफडीसी यानी फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन या निश्चित खुराक वाली होती है, जिसका बीमारी के उपचार में कोई खास योगदान नहीं होता और ये मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक होती हैं.

ये दवाइयां महज मुनाफे की नियत से भारत में बेची जाती रही हैं और बिना किसी चिकित्सकीय परामर्श या पर्चे के ये दूकानों में मिल जाती थीं. उदाहरण के लिए सेरिडॉन, डीकोल्ड, जिटांप, सुमो, कोरेक्स, फेसिडील आदि सैकड़ों ऐसी दवाइयां हैं, जो न केवल प्रभावहीन हैं, बल्कि सेहत के लिए खतरनाक भी हैं.

उल्लेखनीय है कि पहले भी, मार्च 2010 में तत्कालीन सरकार ने एफडीसी की 344 दवाओं को प्रतिबंधित करने की अधिसूचना जारी की थी, लेकिन दवा निर्माताओं की तरफ से अदालती चुनौती के बाद मामला ठंडे बस्ते में चला गया था. अनुमान है कि भारत के लगभग दो लाख करोड़ के दवा उद्योग को इस फैसले से दो हजार करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ेगा. लेकिन, यह भी सच है कि इन गैरजरूरी दवाओं के बेमतलब के उपयोग से होनेवाली असामयिक मौतों को रोकने में काफी मदद मिलेगी.

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की कुल लागत में से 50 प्रतिशत दवा पर खर्च होता है. राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस) के आंकड़े बताते हें कि ग्रामीण इलाके में यह खर्च 80 प्रतिशत तक होता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन का अध्ययन बताता है कि टीबी या दूसरे संक्रामक रोगों में मरीज द्वारा वहन की गयी उपचार लागत में 60 से 70 प्रतिशत दवाओं की लागत होती है.

दवाओं के उपयोग के कारण शहर और गांव में ऐसे लोगों की तादाद बढ़ी है, जो आर्थिक कारणों से इलाज करा पाने में अब सक्षम नहीं हैं. यह संख्या करोड़ों में है. विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार, मात्र एक बार उपचार के लिए अस्पताल में दाखिल होने के बाद लगभग 35 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे सिखक जाने को विवश हैं.

चौंकानेवाली बात तो यह है कि भारत में लगभग 20,000 दवा बनानेवाली कंपनियां हैं, जिनमें मात्र 35 से 38 प्रतिशत ही जरूरी दवाओं का उत्पादन होता है, जबकि 62 से 65 प्रतिशत गैरजरूरी दवाइयां बनायी जाती हैं, जिनका एकमात्र उद्देश्य होता है मुनाफा कमाना.

अब आप देश के बाजारों में उपलब्ध दवाओं पर नजर डालें, तो देश में सबसे ज्यादा बिकनेवाले 300 ब्रांडों में से एनीमिया (खून की कमी) की वह दवा नहीं है, जो राष्ट्रीय दवा सूची में शामिल है. यह विडंबना ही है कि जहां जरूरी जीवन रक्षक दवाओं का अभाव है, वहीं देश की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरी तरह नजरअंदाज करके बेकार, बेतुके व खतरनाक दवाओं का केवल इसलिए उत्पादन किया जा रहा है, क्योंकि इसमें मुनाफा अच्छा है.

देश में सन 1977 से आवश्यक दवाओं की सूची तैयार कर यह मांग की जाती रही है कि मात्र 208 दवाओं के अलावे अन्य दवाओं की जरूरत ही नहीं है.

बाद में सन् 2005 में कुछ और दवाओं को शामिल कर सूची में 306 दवाएं हो गयीं. यह सूची 2011 में भी संशोधित हुई, लेकिन आज तक देश में एक तर्कसंगत दवा नीति नहीं बन पायी, जिसकी मांग वर्षों से जन-स्वास्थ्य कार्यकर्ता व संगठन करते रहे हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा अभी 328 गैरजरूरी एफडीसी दवाओं पर प्रतिबंध एक अच्छा कदम है और उम्मीद है कि यदि स्वास्थ्य मंत्रालय और सरकार चुस्त रही, तो इन गैरजरूरी दवाओं की बिक्री पर लगे प्रतिबंध से जनता को बहुत बड़ी राहत मिलेगी.

अन्य देशों की तुलना में भारत में आवश्यक दवाओं की स्थिति की बात करें, तो जहां यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में मात्र 15 प्रतिशत आबादी ऐसी है, जिन तक आवश्यक दवा नहीं पहुंच पायी है, जबकि भारत में यह आंकड़ा 65 प्रतिशत है. अफ्रीका जैसे देश में भी आवश्यक दवा से वंचितों का प्रतिशत 45 है. यहां यह बात भी जान लेना उचित होगा कि भारत का पड़ोसी देश बांग्लादेश और श्रीलंका भी अपने नागरिकों को जरूरी दवाओं की उपलब्धता के लिए भारत से ज्यादा प्रतिबद्ध है.

एक जन-स्वास्थ्य कार्यकर्ता के नाते मैं यह कहना चाहूंगा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन की आवश्यक दवा सूची के आधार पर भारत सरकार व सभी राज्य सरकारें यह सार्वजनिक सूचना जारी करें कि आवश्यक दवा सूची में शामिल केवल जेनेरिक दवाओं की ही आधिकारिक बिक्री होगी.

हालांकि, यह कदम इतना आसान नहीं होगा, क्योंकि देश में दवा उद्योग एक मुनाफे की फैक्ट्री का रूप ले चुका है और यह देश का सबसे ज्यादा मुनाफे वाला व्यापार है, जिसमें दो लाख करोड़ से ज्यादा की पूंजी लगी हुई है.

बहरहाल, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की यह जरूरी ड्रग एडवाइजरी सख्ती से लागू हो और इसका उल्लंघन करनेवालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई हो, तो कुछ सुधार की गुंजाइश की उम्मीद की जा सकती है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्देश जरूरी

वि श्व स्वास्थ्य संगठन ने तैयार फार्मास्यूटिकल उत्पादों (एफपीपी) के बिक्री के बारे तो अनेक निर्देश जारी किया है, पर फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन दवाइयों के लिए अभी कोई अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नियम नहीं हैं.

कुछ देशों ने अपने स्तर पर नियमावली बनायी है. जानकारों का कहना है कि इन नियमों के आधार पर एक अंतरराष्ट्रीय मानक बनाया जाना चाहिए. ऐसी दवाओं के संभावित फायदे गिनाते हुए यह भी बताया जाना चाहिए कि इन्हें लेना सुरक्षित है और इनके असर के दावे ठोस हैं. खतरे की उपेक्षा कर मात्र लाभ का रेखांकन उचित नहीं है.

इस संबंध में विश्व स्वास्थ्य संगठन की टेक्निकल टीम ने एक रिपोर्ट दी है जिनमें नियमावली के लिए सुझाव बताये गये हैं. पिछले साल मार्च में यूरोपीय संघ से संबद्ध संस्था यूरोपियन मेडिसींस एजेंसी की एक कमेटी ने फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन दवाईयों के बारे में दिशा-निर्देश निर्धारित किया था. इसमें कहा गया है कि दवा निर्माता को कॉम्बिनेशन के पक्ष में फार्माकोलॉजिकल और मेडिकल तर्क प्रस्तुत करने होंगे. इसके साथ ही दवा के असर, फायदे और नुकसान का भी पूरा विवरण देने की बात कही गयी है. अभी इस रिपोर्ट को यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है. अमेरिकी संस्था फूड एंड ड्रग्स एडमिनिस्ट्रेशन ने भी बीते दो दशक में कुछ निर्देश जारी किये हैं.

साल 2014 में जारी एक निर्देश में ऐसी नयी दवाओं को पांच साल तक इस्तेमाल होने का अधिकार दिया गया था. पहले से मान्यताप्राप्त दवाओं को भी इसमें शामिल किया गया था. विभिन्न रिपोर्टों में सबसे बड़ी चिंता यह जतायी गयी है कि या तो समय-समय पर ऐसी दवाओं के असर, फायदे और नुकसान का परीक्षण नहीं किया जाता है, या फिर मौजूदा प्रक्रिया पूरी तरह से कारगर नहीं हैं. सरकारी परीक्षण संस्थाओं का तकनीकी पिछड़ापन भी एक निराशाजनक तथ्य है.

मैं ड्रग विशेषज्ञ नहीं हूं और मुझे इस बारे में भी पूरी बात पता नहीं है कि किन-किन दवाओं पर प्रतिबंध लगाया गया है. लेकिन, जहां तक इन दवाओं से शरीर को होनेवाले नुकसान का सवाल है, तो यह कदम सही है.

हर हाल में लोगों के स्वास्थ्य के लिए हर वह कदम उठाया जाना चाहिए, जो फायदेमंद हो और स्वास्थ्य की दृष्टि से उचित हो. इसके लिए यह जरूरी है कि सरकार जन-जागरूकता के लिए भी कदम उठाये, ताकि लोग सही दवाएं ही खरीदें. बोगस मेडिसिन (नकली दवा) को बढ़ावा मिलने से उन्हें फायदा तो होता है, लेकिन इसका असर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है. एक दूसरी बात यह भी है कि बोगस मेडिसिन के चलते मेहनत से रिसर्च करनेवाले डॉक्टरों-वैज्ञानिकों के रिसर्च का नुकसान होता है. यह स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए उचित बात नहीं है.

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि हमारे समाज को खुद भी इस बात का एहतियात और जानकारी रखने की कोशिश करनी चाहिए कि उसके स्वास्थ्य के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा है. जिस तरह से समाज बाकी चीजों पर ध्यान देता है, उसी तरह से उसे दवाओं आदि पर भी ध्यान देना चाहिए कि वह आधिकारिक तौर पर सही दवाओं को खरीदे, ताकि उसे एक स्वस्थ जीवन मिल सके.

डॉ नरेश त्रेहान, मेदांता, गुड़गांव

दवाओं के इस्तेमाल में कुछ बातों का खयाल रखना जरूरी

भारत में एंटीबायोटिक्स का सेवन प्रचुर मात्रा में किया जाता है, लेकिन ज्यादातर लोग एंटीबायोटिक कोर्स पूरा नहीं करते. बिना कोर्स पूरा किये वे जब-तब दवाएं खाते रहते हैं और बच्चों को भी खिलाते हैं.

ऐसे में जरूरी है कि हमेशा डॉक्टर से परामर्श के बाद ही ऐसी दवाइयां खायी जाएं और इनका कोर्स पूरा किया जाये. अगर आपको दस दिन तक एंटीबायोटिक्स खाना है और आपने पांच दिन बाद ही उसे लेना छोड़ दिया, तो आपके शरीर में एंटीबायोटिक्स के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने लगती है. इसके अलावा, हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि छोटे-मोटी दिक्कतों के लिए आप उसी स्तर की दवा या एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करें. सीधे हाई डोज की दवा लेने से परहेज करना चाहिए.

भारत में एफडीसी दवाइयों की स्थिति

ब्रिटिश जर्नल ऑफ क्लिनिकल फार्मेकोलॉजी में इस वर्ष फरवरी में प्रकाशित एक अध्ययन में दावा किया गया है कि बिना किसी स्वीकृति के भारत में लाखों की संख्या में एंटीबायोटिक्स बेचे जाते हैं. ब्रिटिश और भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा किये गये इस अध्ययन के अनुसार, हमारे देश में लगभग दो तिहाई ऐसी फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन यानी एफडीसी एंटीबायोटिक्स की बिक्री होती है, जिसके नियामक द्वारा मंजूरी मिलने का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं था. जबकि भारत में गैर अनुमोदित एंटीबायोटिक्स की बिक्री गैरकानूनी है.

इस दौरान यह बात भी सामने आयी कि भारत में बिक्री के लिए उपलब्ध कुल एफडीसी दवाइयों में से 50 प्रतिशत दवाइयां एंटीमाइक्रोबियल के संयोजन से तैयार की जाती हैं और ये संयोजन (कॉम्बिनेशन) बेमेल (फार्मेकोलॉजिकली इंकम्पैटिबल) थे. इस संबंध में लंदन स्थित क्वीन मैरी यूनिवर्सिटी के एमडी पैट्रीसिया मैकगेटिगन का मानना है कि गैर अनुमोदित व बिना परीक्षण वाली एंटीबायोटिक दवाइयों की बिक्री ने भारत में एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध को नियंत्रित करने के उपायों को कमजोर कर दिया है.

एंटीबायोटिक उपभोग में शीर्ष पर भारत

बिना नियामक की स्वीकृति के भारत में एंटीबायोटिक्स का बेचा जाना सिर्फ इसलिए ही चिंता का विषय नहीं होना चाहिए, क्योंकि हमारे देश में स्वास्थ्य संबंधी बुनियादी सुविधाएं बेहद लचर हैं, बल्कि इसलिए भी चिंतित होने की जरूरत है क्योंकि हमारे यहां प्रति व्यक्ति एंटीबायोटिक उपभोग सर्वाधिक है.

ब्रिटिश जर्नल में प्रकाशित अध्ययन से यह बात भी सामने आयी है कि वर्ष 2000 से 2010 के बीच वैश्विक स्तर पर एंटीबायोटिक उपभोग में 36 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई थी, जिनमें ब्रिक्स देशों का हिस्सा तीन चौथाई था और इनमें भारत भी शामिल था. इतना ही नहीं, ब्रिक्स देशों में एंटीबायोटिक्स की खुदरा बिक्री में इस दौरान होनेवाली वृद्धि में 23 प्रतिशत के लिए अकेले भारत जिम्मेदार था.

ज्यादातर डॉक्टर एफडीसी दवाओं से अंजान

कुछ वर्ष पूर्व एफडीसी दवाइयों को लेकर 100 रेजिडेंट डॉक्टरों पर एक अध्ययन किया गया था. इस अध्ययन से पता चला कि 81 प्रतिशत डॉक्टरों को एफडीसी दवाइयों के उपयोग के बारे में कोई खास जानकारी नहीं थी.

केवल 43 प्रतिशत डॉक्टर ही इन पर लगे प्रतिबंध से वाकिफ थे. वहीं मुंबई में किये गये एक अध्ययन से यह बात सामने आयी कि किस प्रकार फार्मास्यूटिकल कंपनियां, मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव, केमिस्ट और डॉक्टर मुनाफा कमाने के लिए लोगों के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं.

कॉम्बिनेशन दवाएं किसे कहते हैं

कॉम्बिनेशन दवाइयां (फिक्स डोज कॉम्बिनेशन) दो या दो से अधिक दवाओं के मिश्रण को कहते हैं, जिसमें दोनों दवाओं को निश्चित अनुपात में शामिल किया जाता है. इसके पश्चात दवा की एक खुराक तैयार होती है.

एक अध्ययन के अनुसार, विशेषज्ञ समिति ने फैसला देने से पहले 6,000 से अधिक दवाओं की समीक्षा की थी. इसके अलावा कुछ दवाओं पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया है, क्योंकि वे एंटीबायोटिक प्रतिरोधक पैदा करती थी. भविष्य में सरकार 500 और भी दवाओं पर प्रतिबंध लगा सकती है. मधुमेह रोधी दवाएं, रेस्पिरेटरी ड्रग्स, एनालजेसिक्स, एंटीइनंफेक्टिव और गैस्त्रो-इंटेस्टाइनल ड्रग्स भी शक के दायरे में बने हुए हैं. इन प्रतिबंधित दवाओं में पेनकिलर सेरिडाॅन, स्किन क्रीम पैनडर्म, डायबिटीज की दवा ग्लूकोनॉर्म पीजी, कोरेक्स कफ सिरप, एंटीबायोटिक ल्यूपिडिक्लॉक्स, एंटीबैक्टीरियल टैंजिम एजेड आदि शामिल हैं.

क्या हैं प्रतिबंध के आधार

भारत सरकार ने 328 कॉम्बिनेशन दवाओं पर प्रतिबंध लगाया है. फाइजर, अबोट, ग्लेनमार्क फार्मा जैसी कंपनियां इस प्रतिबंध से प्रभावित हुई हैं. ये दवाइयां, खासकर बच्चों के लिए बेहद हानिकारक हैं. बाजार में जो एफडीसी दवाइयों की बिक्री हो रही है, उनमें एटॉरवास्टेटिन, रैबीप्राजोल और पैरासीटामाॅल का इस्तेमाल किया जाता रहा है. इसके अतिरिक्त विटामिन के मिश्रण और उनकी गुणवत्ता भी ठीक नहीं पायी गयी है. नियमानुसार इस तरह की दवा बेचने के लिए ड्रग कंट्रोलर की मंजूरी मिलना जरूरी था, लेकिन बिना किसी मंजूरी हासिल किये ये दवाइयां देशभर में धड़ल्ले से बिक रही थीं. ऐसे मामलों में ऐसा पाया गया कि ज्यादातर दवा कंपनियां केवल एक या दो राज्यों की मंजूरी लेती थीं और पूरे देश में अपना कारोबार करती थीं.

माना जा रहा है कि इस प्रतिबंध से भारतीय दवा उद्योग को बड़ा झटका लगा है और इससे उन्हें बड़े नुकसान का सामना करना पड़ेगा, लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार, एंटीबायोटिक रेसिस्टेंस बच्चों में एक बहुत बड़े संकट के रूप में सामने आया है, जिससे निबटना आज बहुत जरूरी हो गया है. ब्रिस्टल और इम्पीरियल यूनिवर्सिटी, लंदन के एक शोध के मुताबिक, आज दुनिया में आधे से अधिक बच्चों में कॉम्बिनेशन दवाओं का असर दिखायी दे रहा है.

दुनियाभर के बच्चों में एंटीबायोटिक रेसिस्टेंस एक बहुत बड़ी समस्या के रूप में सामने आयी है. आज अधिकांश बच्चों में किसी न किसी एंटीबायोटिक के लिए प्रतिरोधक उपस्थित है, जिस कारण भविष्य में कई प्रकार के उपचार का उन पर असर होना बंद हो जायेगा.

वहीं, दुनिया भर से लिये गये 80,000 सैंपल के आधार पर यह सामने आया है कि अधिकांश लोगों में एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक क्षमता बहुत ज्यादा विकसित हो चुकी है. एंटीबायोटिक के अंधाधुंध उपभोग ने इंसानों, खासकर बच्चों के भीतर एंटीबायोटिक के प्रति प्रतिरोधक विकसित कर दिया है. यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि भारत में एंटीबायोटिक का उपयोग व्यापक पैमाने पर होता आया है, जो लोगों के स्वास्थ्य के लिए अब एक खतरा बन चुका है.

क्या रहा भारत सरकार का रुख

केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार ने इसी महीने की 12 तारीख को एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा कि ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड की सिफारिशों के आधार पर दवाओं की बिक्री पर रोक लगायी गयी है. ऐसे भी संकेत हैं कि भविष्य में सरकार 500 और दवाओं पर प्रतिबंध लगा सकती है, जिन्हें अभी देशभर में बेचा और खरीदा जा रहा है.

प्रतिबंधित दवाओं के अलावा छह एफडीसी दवाएं ऐसी भी हैं, जिनकी खुली रोक पर बिक्री लगायी गयी है. इन दवाओं को डॉक्टर के परामर्श और उसके पर्चे को दिखाये बिना अब नहीं खरीदा जा सकेगा. इस प्रतिबंध से दवा व्यापारियों पर करीब 1500 करोड़ रुपये की मार पड़ने की संभावना है. इसके पहले सरकार ने मार्च 2016 में 344 कॉम्बिनेशन दवाओं पर प्रतिबंध लगाया था.

जिसके बाद दवा-कंपनियां इस प्रतिबंध के खिलाफ उच्च न्यायालय चली गयी थीं. तब दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रतिबंध रद्द कर दिया था. उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद सरकार और कुछ निजी संगठनों ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था, जिसके बाद उच्चतम न्यायालय ने एक जांच कमेटी बनाकर इन दवाओं के संदर्भ में रिपोर्ट मांगी थी.

इसके बाद, ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड ने एक कमेटी बनायी थी. इसी कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 328 दवाओं को बैन कर दिया गया. सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, अब इन दवाओं को बनाना और उसकी बिक्री करना गैरकानूनी माना जायेगा. हालांकि, प्रतिबंधित की गयी सभी दवाओं के कॉम्बिनेशन और कंपनियों के नाम अभी सामने नहीं आये हैं. इस फैसले के दौरान ड्रग टेक्निकल एडवाइजरी बोर्ड ने कहा है कि इन दवाओं के इनग्रीडिएंट्स का इलाज में सही इस्तेमाल साबित नहीं होता है. ये दवाएं फिक्स्ड डोज कॉम्बिनेशन हैं. अत: इनका इस्तेमाल खतरनाक है.

एफडीसी दवाओं का बाजार

प्रतिबंधित कॉम्बिनेशन दवाओं (एफडीसी) का सालाना टर्नओवर 2500 से 3000 करोड़ रुपये का है. वहीं भारत में पूरा फार्मा बाजार 1.3 लाख करोड़ रुपये का है.

कॉम्बिनेशन दवाओं को नयी दवा माना जाता है. इसके उत्पादन और बिक्री के लिए भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल से मान्यता लेना अनिवार्य किया गया था. इसके अंतर्गत कॉम्बिनेशन दवाओं का क्लिनिकल ट्रायल लेना होता था और सुरक्षा मानकों को साबित करना होता था. लेकिन कई राज्यों ने इस नियम की एक सिरे से अनदेखी की और हजारों कॉम्बिनेशन दवाओं को बाजार में बेचने की अनुमति दे दी.

भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल तब हरकत में आये जब हेल्थ वर्कर्स के साथ ही स्वास्थ्य मामलों की संसदीय समिति कॉम्बिनेशन दवाओं को लेकर आक्रामक हुई. इसके बाद कॉम्बिनेशन दवाओं के अवैज्ञानिक होने के साथ-साथ इनका सेहत के लिए खतरनाक होना भी सामने आया. जिस वक्त भारत में ये दवाएं अंधाधुंध बिक रही थीं, उसी समय अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी और इंग्लैंड जैसे देशों ने कॉम्बिनेशन दवाओं पर प्रतिबंध लगा दिया था.

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