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100@ कैफी आजमी : कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी

अवामी जिंदगी के दुख व जज्बातों को अपने कलम की स्याही बना देने वाले शायर कैफी आजमी का कद शायरी और सिनेमा के क्षेत्र में बहुत बड़ा माना जाता है. उनका दखल केवल शायराना ही नहीं था, जब भी सियासतदानों के सताये मजलूमों के हक-ओ-हुकूक की बात आती थी, कैफी आजमी सड़क पर उतरने से […]

अवामी जिंदगी के दुख व जज्बातों को अपने कलम की स्याही बना देने वाले शायर कैफी आजमी का कद शायरी और सिनेमा के क्षेत्र में बहुत बड़ा माना जाता है. उनका दखल केवल शायराना ही नहीं था, जब भी सियासतदानों के सताये मजलूमों के हक-ओ-हुकूक की बात आती थी, कैफी आजमी सड़क पर उतरने से भी पीछे नहीं हटते थे. अवाम के शायर कैफी आजमी को उनकी 100वीं सालगिरह पर हम याद कर रहे हैं…

रिजवानुल हक

साहित्यकार

कैफी आजमी की जब-जब याद आती है, तो एक ऐसी झनकार भरी आवाज कानों में गंूजती है, जो आखिरे शब तक आवारा सज्दे भी करती है और ‘इबलीस की मजलिसे शूरा’ में बड़े एेतमाद के साथ अपनी आवाज को कायम और दायम रखती है. ऐसी बेबाक आवाज उन्होंने बड़ी मेहनत और संघर्षों के बाद अपने अंदर पैदा की थी.

कैफी आजमी का जन्म आजमगढ़ जिले में हुआ और इब्तेदाई तालीम के बाद कैफी आजमी को लखनऊ के मशहूर सुल्तानुल मदारिस में दीनी तालीम के लिए भेजा गया कि वहां फातेहा वगैरह सीख लेंगे, लेकिन कैफी आजमी ने मदरसे में हड़ताल करा दी.

इस वाकये के बारे में आयषा सिद्दीकी ने लिखा है, ‘कैफी साहब को उनके बुजुर्गों ने दीनी दर्सगाह में इस गरज से दाखिल किया था कि वहां ये फातिहा पढ़ना सीख जायेंगे. कैफी साहब इस दर्सगाह में मजहब पर फातिहा पढ़ के निकल आये.’ हड़ताल के दौरान ही उनकी मुलाकात कई तरक्कीपसंद शाइरों और अदीबों से हो गयी और फिर आखिरी उम्र तक वह इस तहरीक से जुड़े रहे.

कैफी आजमी ने यूं तो महज 11 साल की उम्र में ही शायरी शुरू कर दी थी और ग्यारह साल की उम्र में कही गयी गजल को उस वक्त की सबसे बड़ी गजल गायिका बेगम अख्तर ने गाया था. लेकिन पूरी तरह से उनकी शायरी का आगाज तरक्कीपसंद तहरीक से जुड़ने के बाद ही हुआ. 1944 में सिर्फ 26 साल की उम्र में पहला संग्रह ‘झनकार’ छप गया. इस पहले संग्रह में कहीं उस वक्त के अहम वाकयात पर रद्दे-अमल है, तो कहीं प्रगतिशील आदर्शवाद के हैं, तो कहीं औरत के बारे में उनके ख्याल हैं. उनकी औरत नज्म उस वक्त बहुत मकबूल हुई थी.

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे

तू कि बेजान खिलौनों से बहल जाती है

तपती सांसों की हरारत से पिघल जाती है

पांव जिस राह में रखती है फिसल जाती है

बनके सीमाब हर इक ज़र्फ में ढल जाती है

जीस्त के आहनी सांचे में भी ढलना है तुझे

उठ मेरी जान! मेरे साथ ही चलना है तुझे (औरत)

कैफी आजमी का दूसरा संग्रह ‘आखिरे शब’ भी महज तीन साल बाद 1947 में शाया हुआ. इस संग्रह में कैफी आजमी की शाइरी में कोई बुनियादी तब्दीली नजर नहीं आती है. कुछ नये मौजू और कुछ नये तजुर्बात जरूर जुड़ जाते हैं. लेकिन दूसरे संग्रह के बाद उनके विचारों में तो कोई तब्दीली नहीं होती है, लेकिन अब शाइरी किसी वाकये का रद्देअमल भर नहीं रही थी, बल्कि गहराई में उतरकर और उस मौजू को अपने वजूद का हिस्सा बना कर पेश किया, तो शाइरी में ताजगी पैदा हो गयी.

तीसरे संग्रह ‘आवारा सज्दे’ में पहली बार कुछ गजलें भी छपीं. उनका तीसरा संग्रह सत्ताइस साल बाद 1974 में छपा, तो शाइरी के संजीदा हलको में भी उनकी खूब तारीफें हुई, साथ ही मजहबी नजर लोगों ने इस पर पाबंदी लगाने की भी खूब कोशिश की. इस लेखनी के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी, साहित्य अकादमी और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड भी मिला.

राह में टूट गये पांव तो मालूम हुआ

जुज मेरे और मेरा राहनुमा कोई नहीं

एक के बाद खुदा एक चला आता था

कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं

(आवारा सज्दे)

अब कैफी आजमी के कई शेर और नज्में लोगों को जबानी याद होने लगीं. मिसाल के तौर पर-

आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है

या बाबरी मस्जिद के गिरने के बाद उनकी यह नज्म सोचने वाले हर शख्स की जुबान पर गूंजने लगी.

राम बनबास से जब लौट के घर में आये

याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये

राजधानी कि फिजा आई नहीं रास मुझे

छे दिसम्बर को मिला दूसरा बनबास मुझे

(दूसरा बनबास)

कैफी आजमी की पूरी शाइरी उनके संघर्षों और आदर्शों का खूबसूरत रोमानवी बयानिया है. वह जिंदगीभर एक बेहतर जिंदगी का ख्वाब देखते रहे और लड़ते रहे. उनकी मकबूलियत का ये आलम था कि जब उनका इंतकाल हुआ तो उनकी शोक सभा में दो पूर्व प्रधानमंत्री (इंद्र कुमार गुजराल और विश्वनाथ प्रताप सिंह) श्रद्धांजलि देने के लिए मौजूद थे.

अब्बा

वो कभी दूसरों जैसे थे ही नहीं, लेकिन बचपन में यह बात मेरे नन्हें से दिमाग में समाती ही नहीं थी. न तो वे ऑफिस जाते थे, न अंग्रेजी बोलते थे और न दूसरों के डैडी और पापा की तरह पैंट पहनते थे – सिर्फ सफेद कुर्ता-पाजामा. वो ‘डैडी’ या ‘पापा’ के बजाय ‘अब्बा’ थे. ये नाम भी सबसे अलग ही था.

मैं स्कूल में अपने दोस्तों से उनके बारे में बात करते कुछ कतराती ही थी. झूठ-मूठ कह देती थी कि वो कुछ ‘बिजनेस’ करते हैं. वर्ना सोचिए, यह कहती कि मेरे अब्बा शायर हैं? शायर होने का क्या मतलब? यही न कि कुछ काम नहीं करते!

हमारे घर का माहौल बिल ‘बोहिमियन’ था. नौं बरस की उम्र तक मैं अपने मां-बाप के साथ कम्युनिस्ट पार्टी के ‘रेड फ्लैग हॉल’ में रहती थी. हर कॉमरेड परिवार को एक कमरा दिया गया था. बाथरूम वगैरह तो कॉमन था. पार्टी मेंबर होने के नाते से पति-पत्नी की जिंदगी आम ढर्रे से जरा हट के थी. ज्यादातर पत्नियां वर्किंग वुमन थीं- बच्चों को संभालना कभी मां की जिम्मेदारी होती, कभी बाप की. मम्मी पृथ्वी थियेटर्स में काम करती थीं और अक्सर उन्हें टूर पर जाना होता था-तो उन दिनों मेरे छोटे भाई बाबा और मेरी सारी जिम्मेदारी अब्बा पर आ जाती थी.

मम्मी ने काम शुरू तो आर्थिक जरूरतों के लिए किया था, क्योंकि अब्बा जो कमाते थे वो पार्टी को दे देते थे. मैं ऐसे माहौल में बड़ी हुई जहां कला को सामाजिक बदलाव का बड़ा माध्यम माना जाता था. मेरे पिता ने कभी कुछ थोपा नहीं, क्योंकि उनका विश्वास था कि मिट्टी यदि गीली है, तो अंकुर जरूर फूटेगा.

बाप होने के नाते तो अब्बा मुझे ऐसे लगते हैं, जैसे एक अच्छा बाप अपनी बेटी को लगेगा, मगर जब उन्हें एक शायर के रूप में सोचती हूं, तो आज भी उनकी महानता का समंदर अपरंपार ही लगता है.

मैं ये तो नहीं कहती कि मैं उनकी शायरी को पूरी तरह समझती हूं और उसके बारे में सब कुछ जानती हूं, मगर फिर भी उनके शब्दों से जो तस्वीरें बनती हैं, उनके शेरों में जो ताकत छुपी होती है, अपने गम को भी दुनिया के दुख-दर्द से मिला कर देखते हैं. उनके सपने सिर्फ अपने लिए नहीं, दुनिया के इनसानों के लिए हैं. चाहे वह झोपड़पट्टी वालों के लिए काम हो या नारी अधिकार की बात या सांप्रदायिकता के विरुद्ध मेरी कोशिश, उन सब रास्तों में अब्बा की कोई न कोई नज्म मेरी हमसफर है.

वो ‘मकान’ वो ‘औरत’ हो या ‘बहरूपनी’- ये वो मशाले हैं, जिन्हें लेकर मैं अपने रास्तों पर चलती हूं. दुनिया में कम लोग ऐसे होते हैं, जिनकी कथनी और करनी एक होती है. अब्बा ऐसे इंसान हैं- उनके कहने और करने में कोई अंतर नहीं है. मैंने उनसे ये ही सीखा है कि सिर्फ सही सोचना और सही करना ही काफी नहीं, सही कर्म भी होने चाहिए.

-शबाना आजमी, (संस्मरण) साभार: राजपाल एंड संस.

कैफी आजमी

जन्मदिन: 14 जनवरी, 1919

मृत्यु: 10 मई, 2002

प्रमुख रचनाएं: आवारा सज्दे, झंकार, आखिर-ए-शब, सरमाया, नयी गुलिस्तान.

प्रमुख फिल्में: गर्म हवा, हीर-रांझा, मंथन.

पुरस्कार: पद्मश्री, साहित्य अकादमी, यश भारती, राष्ट्रीय पुरस्कार.

हुक्मरानों के भरोसे न छोड़ो देश

कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने के कारण, ब्रितानी पुलिस मेरे पीछे लगी रहती थी. विभाजन के दौरान, मैं औरंगाबाद में अंडरग्राउंड (भूमिगत) चल रहा था. माता-पिता और मेरे पांचों भाई पानी के जहाज से बॉम्बे से कराची निकलने वाले थे. मैं समय रहते उनके पास नहीं पहुंच पाया और जहाज कराची के लिए रवाना हो गया.

20 साल से ज्यादा गुजर गये. मेरे भतीजे-भतीजियां बड़ी हुईं, फिर उनकी शादी हुई. मैं वहां नहीं पहुंच पाया. मां का इंतकाल हुआ. मैं वहां नहीं पहुंच पाया. पाकिस्तान ने मुझे वीजा देने से इंकार कर दिया, क्योंकि मैं कम्युनिस्ट था. मेरे दोस्त और पाकिस्तानी अदीब बुखारी साहब कहा करते थे, ‘एक होता है कुत्ता, एक होता है बहुत ही कुत्ता. तुम उनकी नजर में बहुत ही कुत्ते हो!’

मैं कोई ऐसा-वैसा कम्युनिस्ट नहीं था. मैं उनके लिए इतना निंदनीय और बदमाश कम्युनिस्ट था कि सरकार मेरी पाकिस्तान में मौजूदगी का जोखिम नहीं उठाना चाहती थी. खैर, मुझे भुट्टो के राज में वीजा मिल गया.सब मिले, एक मां नहीं थी बस. आज इस बारे में बात करना ऐसा है, जैसे पुराने जख्म को कुरेदकर खून निकालना.

साल 1947 के बारे में क्या कहें? वह ऐसा खूनी मंजर था, जिसे हमने अपनी आंखों से देखा. इस मंजर साल 1984 में इंदिरा गांधी की मौत के बाद और भी डरावने रूप में दोहराया गया. हमने वह सबकुछ खो दिया, जिनसे हमें इंसान कहलाने का दर्जा हासिल होता था. जो लोग हमें छोड़ गये, जो दर्द उन्होंने महसूस किया, उसके सामने हमारा दर्द कुछ भी नहीं. लेकिन, जला वतन के दुख से भी कौन इंकार कर सकता है?

पाकिस्तान छोड़कर भारत आये सिंधी को यहां ‘सेठ’ कहा जाता है, वहीं भारत छोड़कर पाकिस्तान गये मुसलमानों को ‘मुहाजिर (विस्थापित)’ कहा जाता है. एक बार बड़े गुलाम अली से पाकिस्तानी दानिशवर, मोहम्मद अली ने कुछ गाने के लिए कहा. बड़े गुलाम अली ने गाना शुरू किया, ‘मोहे न छेड़ो नंदलाल’. उन्हें सख्ती से टोका गया, ‘कुछ पाकिस्तानी म्यूजिक गाइये’. गुलाम साहब ने जवाब दिया, ‘मोरी गर्दन न मरोड़ो मोहम्मद अली’ और उस जगह को छोड़कर अपनी हिंदुस्तानी नागरिकता हासिल करने के लिए वापस आ गये.

हम अपने मुस्तकबिल को हुक्मरानों के भरोसे नहीं छोड़ सकते. हमें अपने भीतर ही प्रेरणा पैदा करनी होगी. ‘दोनों तरफ नेक जज्बात हैं.’

पाकिस्तानी शायरी में तो हिंदुस्तान की याद घुली है, यह उसकी खुश्बू से लबरेज है. इसमें कृष्ण, राधा और पीछे छोड़ आये घर की उदासी बसती है. हमें इन साझा बातों को लेकर आगे बढ़ना चाहिए और किसी तीसरे मुल्क को हमारे मनमुटाव का फायदा नहीं उठाने देना चाहिए. दुख होता है कि शंकर-शाद मुशायरा बंद कर दिया गया है. ऐसी बातों से मनमुटावों में इजाफा होता है.

– कैफी आजमी

(आउटलुक को दिये साक्षात्कार में-1997)

मकान

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है

आज की रात न फुटपाथ पे नींद आयेगी

सब उठो, मैं भी उठूं तुम भी उठो, तुम भी उठो

कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी

ये जमीं तब भी निगल लेने पे आमादा थी

पांव जब टूटती शाखों से उतारे हम ने

उन मकानों को खबर है न मकीनों को खबर

उन दिनों की जो गुफाओं में गुजारे हम ने

हाथ ढलते गए सांचे में तो थकते कैसे

नक्श के बाद नये नक्श निखारे हम ने

की ये दीवार बुलंद, और बुलंद, और बुलंद

बाम ओ दर और, जरा और संवारे हम ने

आंधियां तोड़ लिया करती थीं शम्माओं की लवें

जड़ दिये इसलिए बिजली के सितारे हम ने

बन गया कस्र तो पहरे पे कोई बैठ गया

सो रहे खाक पे हम शोरिश-ए-तामीर लिए

अपनी नस नस में लिए मेहनत-ए-पैहम की थकन

बंद आंखों में उसी कस्र की तस्वीर लिए

दिन पिघलता है उसी तरह सरों पर अब तक

रात आंखों में खटकती है सियह तीर लिए

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है

आज की रात न फुट-पाथ पे नींद आयेगी

सब उठो, मैं भी उठूँ तुम भी उठो, तुम भी उठो

कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी

-कैफी आजमी

सिनेमा में योगदान

कैफी साहब ने 1956-58 के बीच ‘यहूदी की बेटी’, ‘परवीन’, ‘मिस पंजाब मेल’ और ‘ईद का चांद’ के लिए लिखा. गुरुदत्त के लिए हमेशा लिखनेवाले साहिर ने संगीतकार सचिनदेव बर्मन से कुछ अनबन के कारण जब ‘कागज का फूल’ छोड़ दी, तो उसमें कैफी को ‘वक्त ने किया क्या हसीं सितम’ समेत ऐसे कई गीत लिखने का मौका मिला.

साल 1964 में आयी ‘हकीकत’ में उन्होंने ‘कर चले हम फिदा जानो-तन साथियो’, ‘होके मजबूर मुझे उसने बुलाया होगा’, ‘जरा सी आहट होती है’ जैसे अमर गीत लिखे, जो गायिका लता मंगेशकर और संगीतकार मदन मोहन के करियर के सबसे अहम गीत माने जाते हैं.

ॠषिकेष मुखर्जी की शानदार फिल्म ‘अनुपमा’ में उन्होंने संगीतकार-गायक हेमंत कुमार के लिए ‘कुछ दिल ने कहा कुछ भी नहीं’ और ‘या दिल की सुनो दुनियावालो’ जैसे गीतों की रचना की. हेमंत कुमार और लता मंगेशकर के लिए उन्होंने ‘वो बेकरार दिल’, ‘ये नयन डरे डरे’ जैसे सदाबहार गाने भी लिखा. ख्य्याम के संगीत के लिए उन्होंने ‘शोला और शबनम’ में ‘जीत ही लेंगे बाजी हम तुम’, ‘जाने क्या ढूंढती रहती हैं’ लिखा.

फिल्म ‘नौनिहाल’ में उन्होंने देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की याद को समर्पित गीत ‘मेरी आवाज सुनो प्यार राज सुनो’ लिखा. इसमें ‘तुम्हारी जुल्फ के साये में’ जैसा शानदार गीत भी थी. ‘हंसते जख्म’ के गीत ‘तुम जो मिल गये हो’ और ‘आज सोचा तो आंसू भर आये’ क्लासिक गानों में गिने जाते हैं. ‘बावर्ची’, ‘सत्यकाम’, ‘पाकीजा’, ‘परवाना’, ‘हिंदुस्तान की कसम’, ‘अर्थ’, ‘रजिया सुल्तान’ जैसी अनेक फिल्में कैफी साहब के नाम दर्ज हैं.

साल 1970 में आयी चेतन आनंद की ‘हीर रांझा’ न सिर्फ कैफी आजमी के करियर की, बल्कि हमारे सिनेमा इतिहास की अद्भुत घटना है. पूरी फिल्म के संवाद ही शायरी में थे और इन्हें कैफी ने लिखा था. इसके कामयाब गीत भी उन्हीं की रचनाएं थीं. तीन साल बाद उन्होंने एमएस सथ्यू की क्लासिक फिल्म ‘गर्म हवा’ के गीतों के साथ स्क्रिप्ट और संवाद भी लिखे.

प्रतिबद्धता का दूसरा नाम

मंगलेश डबराल

वरिष्ठ कवि

कैफी आजमी तरक्कीपसंद शायरी के एक बहुत बड़े शायर थे. उनका जीवन इतना आसान नहीं रहा, अरसे तक बहुत संघर्ष में उन्होंने अपनी जिंदगी गुजारी थी. कम्युनिस्ट पार्टी के वे सक्रिय सदस्य और कार्यकर्ता थे. एक बड़े शायर होते हुए भी मुंबई जैसे शहर में जो संघर्ष उन्होंने किया, बहुत कम लोगों को करना पड़ता है. इसलिए उनकी रचनाशीलता में एक धार नजर आती है. हालांकि, वे फैज अहमद फैज से बहुत प्रभावित थे, लेकिन इनके कहने का तरीका कुछ अलग था. उस दौर में चाहे पाकिस्तान हो या भारत, दोनों जगहों पर एक ही तरह के सरोकार थे, जिसे कह सकते हैं कि उस तरफ फैज लेकर चल रहे थे, तो इस तरफ कैफी लेकर चल रहे थे. इस तसल्सुल में यहां कैफी की नज्म ‘दूसरा वनवास’ को याद करना बहुत जरूरी है. बाबरी मस्जिद के गिराये जाने के बाद लिखी गयी यह उनकी एक बहुत महत्वपूर्ण नज्म है. यह नज्म इस बात को बताती है कि भगवान राम खुश नहीं हैं. इस नज्म की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी. दिलचस्प यह है कि देश का मौजूदा हाल ऐसा बना हुआ है, जिसमें नफरत बढ़ गयी है और राम के नाम पर एक भयावह राजनीति की जा रही है. ऐसे में कैफी आजमी की यह नज्म हमें रोशनी देती है कि हम अंधेरे के समाज से निकलकर उजाले के समाज की ओर जायें.

भारतीय साहित्य में जो भी जोड़ियां मशहूर रही हैं, उनमें कैफी और शौकत आजमी का नाम भी शामिल है. शौकत और कैफी की अापसी चिट्ठियां साहित्य का महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं, जो उर्दू के साथ-साथ हिंदी में भी अब उपलब्ध हैं. दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टी के बेहद सक्रिय सदस्य थे. और यह भी बेहद सुखद है कि अब उनकी बेटी शबाना आजमी भी सामाजिक सरोकार को लेकर कई अच्छे काम कर रही हैं.

कैफी आजमी का लिखा गीत ‘कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियों’ तो देशप्रेम की बेहतरीन मिसाल है. यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि हिंदी फिल्मों में देशप्रेम के बेहतरीन गीत लिखनेवाले सब मुसलमान शाहकार थे. लेकिन, आज आलम यह है कि मुसलमानों के देशप्रेम पर उंगलिया उठायी जा रही हैं और समाज में तरह-तरह की हिंसा को बढ़ावा दिया जा रहा है. ऐसे में कैफी की प्रासंगिकता से इनकार नहीं किया जा सकता. यही नहीं, मुंबई की फिल्मी दुनिया में जा बसने बाद भी अपने शहर आजमगढ़ को वे कभी नहीं भूले. उन्होंने लोगों में पढ़ने की ललक पैदा करने के लिए लाइब्रेरी बनवायी, कई अच्छे बड़े काम किये और आजमगढ़ को एक सांस्कृतिक जगह के रूप में विकसित किया. कुल मिला कर कैफी आजमी की शायरी, उनकी शख्सियत और उनका जीवन एक मिसाल है, जो हमें हमेशा प्रेरणा देता रहेगा कि हमारा सरोकार क्या होना चाहिए.

अवाम का शायर

जितेंद्र हरि पांडेय

कैफी के गांव मिजवां से

हम हान तरक्कीपसंद उर्दू शायर, गीतकार कैफी आजमी का 14 जनवरी, 2019 को जन्मशताब्दी वर्ष पूर्ण हो रहा है. जब देश में आजादी के आंदोलन का बिगुल अपने चरम पर था, तो 14 जनवरी 1919 को उत्तर प्रदेश के पिछड़े जिले आजमगढ़ के मिजवां गांव में कैफी आजमी का जन्म हुआ.

उनके बचपन का नाम अतहर हुसैन रिजवी था. 11 वर्ष की उम्र में एक रचना ‘इतना तो जिंदगी में किसी की खलल पड़े, हंसने से हो सुकूं न रोने से कल पड़े’ से परिवार का ध्यान उनकी योग्यता पर केंद्रित हुआ. उसके बाद दीनी शिक्षा के लिए लखनऊ के एक मदरसे में उनका दाखिला कराया गया. मदरसे में सहूलियतों की खातिर हड़ताल करा देने पर उन्हें मदरसे से निकाल दिया गया.

कानपुर में मजदूरों के बीच काम करते हुए ही मुंबई से प्रकाशित कौमी जंग में एक रचना छपी, जिसकी चर्चा कम्युनिस्ट पार्टी में खूब हुई. उसके बाद 1943 में उन्हें मुंबई सीपीआइ मुख्यालय बुलाया गया व उन्हें कम्यून में रहने का स्थान दिया गया. उस बीच की यादगार फिल्मों में गीत लिखकर उन्होंने जो मुकाम स्थापित किया, उसका कोई सानी नहीं. उनकी रचनाओं में आवारा सज्दे, इनकार, आखिरे शब को बेशुमार शोहरत मिली. आवारा सज्दे को सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से नवाजा गया. गीत, गजल, शायरी के लिए 1974 में भारत सरकार ने पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया.

साल 1973 में मुंबई में फालिज का अटैक हुआ, लेकिन उनके कदम और लेखनी आवाम के हितों की खातिर हुकूमत, सरमायादारी के खिलाफ चलती रही.

साल 1977 में राम नरेश यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने, तब कैफी आजमी अपने गांव मिजवां में सड़क के लिए मुंबई से लखनऊ आकर मुख्यमंत्री से मिले. मुख्यमंत्री की बातचीत से संतुष्ट न होने पर मन में नाराजगी लिए वापस सीढ़ियों से उतरते समय पैर फिसल जाने पर दूसरा पैर भी जख्मी हो गया. अब कैफी आजमी ने ठान लिया कि मुझे मिजवां के विकास के लिए संघर्ष करना है.

उसी बीच लखनऊ में प्रगतिशील लेखन ने दारुल सफा में ‘एक शाम अल्लामा इकबाल के नाम’ कार्यक्रम रखा. उस कार्यक्रम में आजमगढ़ के अखिल भारतीय नौजवान सभा के युवा नेता कॉमरेड हरिमंदिर पांडेय से कैफी आजमी मिले और बोले कि अब मैं आजमगढ़ में रहना चाहता हूं और अपने गांव मिजवां के लिए कुछ करना चाहता हूं; तुम लोग मेरी मदद करोगे? सकारात्मक उत्तर से मनोबल बढ़ा और उसके बाद मुंबई से मिजवां आये. सबसे पहले गांव की सड़क, अपना मकान, बच्चियों के लिए स्कूल, पोस्ट ऑफिस, टेलीफोन केंद्र आदि के लिए अथक प्रयास करके अमली जमा पहनाया. अब मुंबई छोड़ मिजवां में ही रच-बस गये. साल 1993 में आजमगढ़ में छोटी रेल लाइन को बड़ी रेल लाइन में परिवर्तित कराने के लिए जो आंदोलन हुआ उसमें कैफी आजमी की भूमिका प्रमुख रही.

कैफी आजमी को अनेक सम्मान मिले, लेकिन वे अपने लिए सबसे बड़ा सम्मान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लाल कार्ड को समझते थे और उसे हमेशा जेब में रखते थे. वे अक्सर कहते थे, ‘गुलाम भारत में पैदा हुआ, आजाद भारत में जी रहा हूं और समाजवादी भारत में मरना चाहता हूं. वर्तमान में उनके नक्शे कदम पर चलते हुए उनकी पुत्री शबाना आजमी, पुत्र बाबा आजमी कैफी आजमी के सपनों को साकार करने हेतु मिजवां के विकास से सीधा जुड़ाव रखते हैं.

मिजवां वेलफेयर सोसायटी के माध्यम से इंटर कॉलेज, चिकनकारी सेंटर और सरकार की कई योजनाओं का लाभ गांव की महिला-पुरुषों को मिल रहा है. ‘कर चले हम फिदा जानों तन साथियों, अब तुम्हारे हवाले वतन साथियों’, देशभक्ति गीत लिखकर हर दिल अजीज शायर ने देश की अवाम की ताकत बनकर जीवन से संघर्ष करते हुए 10 मई, 2002 के दिन दुनिया को अलविदा कह दिया.

प्रस्तुति : देवेश/ वसीम अकरम

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