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स्मृति-शेष निर्मल वर्मा, जिन्होंने अपनी कहानियों से बनायी बेजोड़ पहचान

निर्मल वर्मा भारतीय मनीषा के प्रतीक पुरुष हैं. आज उनकी पुण्यतिथि है. अपनी रचनाओं से उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनायी. उनकी कहानियां बेजोड़ मानी जाती हैं. उनके जीवन में कर्म , चिंतन और आस्था के बीच कोई द्वंद्व नहीं था. स्वतंत्र भारत की आधी से अधिक सदी निर्मल वर्मा की […]

निर्मल वर्मा भारतीय मनीषा के प्रतीक पुरुष हैं. आज उनकी पुण्यतिथि है. अपनी रचनाओं से उन्होंने साहित्य के क्षेत्र में अपनी एक अलग पहचान बनायी. उनकी कहानियां बेजोड़ मानी जाती हैं. उनके जीवन में कर्म , चिंतन और आस्था के बीच कोई द्वंद्व नहीं था. स्वतंत्र भारत की आधी से अधिक सदी निर्मल वर्मा की लेखकीय उपस्थिति बनी रही.उनके रचनाकाल का श्रेष्ठ समय चेकोस्लोवाकिया के विदेश प्रवास में बीता. उन्हें हिंदी खड़ी बोली का सबसे बड़ा गद्यकार माना जाता है. वे साहित्य के लगभग सभी श्रेष्ठ पुरस्कारों और सम्मानों से समादृत हुए , जिनमें साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार के साथ साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता भी शामिल है. वर्मा के सृजनात्मक गद्य और भारतीय बौद्धिकता की भूमिका पर उर्दू कहानीकार खालिद जावेद ने अपने विचार रखे हैं. प्रस्तुत है उसका संपादित अंश:

यह देखना महत्वपूर्ण है कि निर्मल वर्मा का असर किस तरह भारतीय भाषाओं पर पड़ा. मेरी हिंदी बहुत अच्छी नहीं है. अब मेरे पास एक ही चारा निकलता है कि मैं अपनी भाषा को निर्मल वर्मा की भाषा बना लूं और उसके सहारे अपना काम चला लूं. निर्मल वर्मा की जो पहली कृति मैंने पढ़ी, वह हिंदी में नहीं पढ़ी थी. वह ‘वे दिन’ था, यानी कृष्ण बलदेव वैद का इंग्लिश ट्रांसलेशन था. उसे बीस-पच्चीस साल पहले पढ़ा था और वह किताब आज तक मेरे पास है. और इंग्लिश में इससे पहले जो कुछ चीजें मैंने पढ़ी थीं, अनुवाद की हुई थी, जो मुझे बहुत फीकी लगी थी. और मुझे हमेशा के लिए महसूस हुआ कि यह अनुवाद ठीक तो है, लेकिन इसमें चार्म नहीं आ रहा. उसकी भाषा में, उसके इडियम में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है. लेकिन ‘वे दिन’ का इंग्लिश ट्रांसलेशन जो था, वह मेरे भीतर कुछ इस तरह तारी हुआ और मुझे लगा कि मैं इसे उर्दू में पढ़ रहा हूं, मैं इसको हिंदी में पढ़ रहा हूं.

उसके बाद फिर मैंने ‘वे दिन’ को उर्दू में पढ़ा. उर्दू ट्रांसलेशन अजमल कमाल का किया हुआ था, जो पाकिस्तान के आज में छपा था. उसके बाद आखिर में मैंने इसको हिंदी में पढ़ा. तो मेरे लिए यह एक बहुत ही अजीबो-गरीब करिश्मा है कि यह आखिर कौन सी जबान थी, जो हर अनुवाद में वही बात उभरकर आ रही है? यह कौन-सी जबान हुई, जिसे ट्रांसलेशन रोक नहीं पा रहा है? वह जबरदस्त पावर क्या थी उपन्यास ‘वे दिन’ की? फाइनेस्ट एलिमेंट जो थे निर्मल वर्मा की भाषा के, ऐसा लगता है कि वे किसी भी भाषा के अपने सांचों में नहीं हैं. बल्कि वे उससे बाहर आ रहे हैं.

मुझे ऐसा लगता है कि जैसे एक दार्शनिक ने कहा था कि एक प्याला है उसको आपने उलट दिया है. तो निर्मल की भाषा इस तरह की थी कि मानों पानी से भरा प्याला हो और वह अपने-आप बह रहा है. उसका जो भी स्रोत है, उसके बारे में कुछ पता नहीं है. मैं शायद कहानीकार बन ही नहीं पाता, अगर मैं निर्मल वर्मा को नहीं पढ़ा होता.

मैं बरेली में रहता था. हम निर्मल से मिलने यहां (दिल्ली) आये. और हमारी यह मुलाकात 1999 की है. जब साल 2000 में मेरा कहानी संकलन छपा उर्दू में, तो उसका फ्लैप निर्मल वर्मा ने लिखा. मैंने किसी उर्दू वाले से नहीं लिखाया. निर्मल जी जिस तरह मुझसे मिले, मुझे यह महसूस हुआ कि उनसे मिलना सिर्फ एक लेखक से मिलना नहीं है, यह लेखक से और बड़ी चीज है जिससे हमें मिलना है.

संसार में जितने भी लेखकों को मैंने पढ़ा है, जिनमें मैं शायरों को भी शामिल करता हूं, उनमें से किसी का भी गद्य मुझे इतना अपील नहीं किया, जितना निर्मल वर्मा का. बहुत बाद में मैं उनके शब्दों के बारे में सोचता था कि शब्द कहां से आते हैं. जब मैंने बहुत बाद में सत्यजित राय की पिक्चर पाथेर पंचाली में वह सीन देखा, जिसमें दो बच्चे नदी के किनारे खड़े हुए हैं झाड़ियों में छुपे हुए. एक ट्रेन वहां से निकलती है. ट्रेन के निकलने से पहले नदी के किनारे खड़ी सरकंडे की झाड़ियां धीरे-धीरे सरसराती हैं. झाड़ियां ट्रेन निकलने से पैदा हुए स्पंदन को महसूस करती हैं, एक कंपन को महसूस करती हैं. कुछ ऐसा ही मुझे लगा कि यह एक अलग भाषा है, जिसके शब्द मुझे कंपकंपा देते हैं. ये शब्द आपके कान में नहीं, आपकी आत्मा में कंपकंपाते हैं. निर्मल वर्मा को पढ़ते हुए मुझे इस तरह का अजीबोगरीब तजुर्बा होता है.

मुझे लगता है कि उनके बाद की कहानियां, जो सूखा तथा अन्य कहानियां संग्रह में हैं, उन पर उतनी बात नहीं हुई जितनी बात उनकी शुरू की कहानियों पर होती रही. उनके बारे में शुरू में ही बहुत ज्यादा बात हो गयी. जैसा कि माना जाता है कि वे आते ही छा गये. मुझे लगता है उनके बाद की कहानियां जैसे- ‘टर्मिनल’ एक कहानी है. टर्मिनल पर बात नहीं होती. कहानी ‘बुखार’ पर बात नहीं हुई. ‘आदमी और लड़की’ पर इतनी बात नहीं हुई. ये सारी कहानियों का लिंक जो भारतीय बौद्धिक परंपरा है, उससे सीधे-सीधे जुड़ी हुई कहानियां हैं.

‘टर्मिनल’ कहानी को पढ़िये. मैं जब भी उस कहानी को पढ़ता हूं, तो सिहर उठता हूं. वह कौन सा प्यार है, वह कौन सा प्रेम है, जिसके ऊपर अपशकुन का साया है. एक अजीब बद्दुआ है. कहां की है वह लड़की- उसको वहम होते रहते हैं. उसे कोई अंधविश्वास है. वह तांत्रिक महिला के पास जाती है. वह तांत्रिक महिला उसे बताती है कि तुम्हारा इसका साथ नहीं हो पायेगा.एक स्कूल है, जिस स्कूल में वे रोज मिला करते थे. उस स्कूल से जब वे दोनों निकले हैं, तो उनकी दुनिया बदल गयी है. शाम का वक्त है, थोड़ा-सा, सूरज डूब रहा है. बारिश हो चुकी है. और वहां याद आता है कि तीन सौ साल पहले कोई रानी थी, जिसने राजा से यह कहा था कि पुल तो बहुत अच्छा है, लेकिन पुलों के ऊपर घर नहीं बन सकते. हम पुल पर चल तो सकते हैं, टहल तो सकते हैं, लेकिन घर नहीं बनाये जा सकते पुलों के ऊपर. और फिर उसने पुल से कूदकर आत्महत्या कर ली. उसी पुल पर दोनों एक-दूसरे से अलग होते हैं हमेशा के लिए. लड़की का हाथ भींगा हुआ है. उसके हाथ के अंदर बुखार है. बुखार के पसीने से भींगा हुआ हाथ है. कहानी का इंग्लिश नाम है टर्मिनल है. सब कुछ है. लेकिन यह पूरी कहानी उस अहंकार से पैदा होती है, जो हमारे यहां भारतीय बौद्धिक परंपरा है, जिसने सबसे पहले इसको देखा कि यह मेरा जो इगो है, और यह जो मेरा सेल्फ है, यह जो अहंकार है, तो मुझे सांख्य-दर्शन याद आता है. मुझे महसूस होता है कि निर्मल वर्मा की सारी कहानियों में एक टाइप की बेघरी का अहसास है. घर नहीं बनता, घर बनता भी है, तो ऐसा लगता है कि बहुत इंतजार में है वह घर. बन रहा है और बनने के साथ-साथ टूट रहा है. यह बनने-टूटने की साथ-साथ चलती प्रक्रिया है. इस बेघरी का अहसास लगभग हर कहानी में है. इस बेघरी का अहसास वैराग्य से पैदा होता है, जो भारतीय दर्शन में एक अजीब रहस्य बना हुआ है.

(प्रस्तुति : मनोज मोहन)

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