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Thursday, March 28, 2024

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गीत चतुर्वेदी की कलम से : जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता

जो सभी लोग करते हैं, आप भी अगर वही करेंगे, तो आपको कभी विशेषण नहीं मिलेंगे. अधिकतर विशेषण हास्यबोध से निकलकर आते हैं. जिनका बहुत मज़ाक़ उड़ाया जाता है और जो बहुत महान होते हैं (और दोनों अमूमन एक ही होते हैं और यह भी एक कारण है कि महान शब्द अब मख़ौल के लिए […]

जो सभी लोग करते हैं, आप भी अगर वही करेंगे, तो आपको कभी विशेषण नहीं मिलेंगे. अधिकतर विशेषण हास्यबोध से निकलकर आते हैं. जिनका बहुत मज़ाक़ उड़ाया जाता है और जो बहुत महान होते हैं (और दोनों अमूमन एक ही होते हैं और यह भी एक कारण है कि महान शब्द अब मख़ौल के लिए ज़्यादा प्रयुक्त होता है), वे अपने अधिकांश काम उस तरह नहीं करते, जिस तरह बाक़ी दूसरे लोग करते हैं. किसी को पागल इसलिए भी कहा जाता है कि वह समाज के प्राकृतिक नियमों का पालन नहीं करता. समाज और प्रकृति के साथ उसका अलग और निजी रिश्ता होता है. यही रिश्ता एक ‘जगह’ की निर्मिति करता है.

सिर्फ़ भौगोलिक जगह नहीं, सिर्फ़ मानसिक जगह नहीं, बल्कि दोनों क़िस्म की जगहों का एक अमूर्त-सा मिश्रण. एक ऐसा निजी मिश्रण, जो बहुत विशिष्ट होता है. कला का वास इसी अमूर्त-सी ‘जगह’ में होता है.जैसे दिल्ली में लाखों शायर हुए होंगे, नामदार, गुमनाम और ज़्यादातर ने दिल्ली को अपनी शायरी में जगह दी, लेकिन जो ग़ालिब की दिल्ली है, वह किसी और की दिल्ली नहीं. जो मीर की है, वह भी किसी और की नहीं. एक ही दिल्ली दो लोगों के भीतर नहीं रह सकती. हम इन लोगों को पढ़ते हैं और इनकी दिल्ली को खोजते हैं. जहां वह हमारे भीतर की दिल्ली से मैच हो जाती है, हम पा लेने के भाव से भर जाते हैं. तब हम पढ़ रहे होते हैं दिल्ली, लेकिन समझ रहे होते हैं भोपाल. मीर लिख रहे हैं अपने दिल का हाल, हमें लगता है, हमारे दिल का अहवाल. कविता एक ऐसी ‘जगह’ है, जहां ग़लत समझकर भी, दरअसल, हम कितना सही समझ रहे होते हैं.

किसी दूसरे की भौगोलिक जगह हमारी अपनी भौगोलिक जगह बन जाती है. काफ़्का प्राग की गलियों में चलता था, लेकिन यह वह प्राग नहीं था, जो उसके पूर्वज यान नेरूदा (जिनके नाम पर पाब्लो नेरूदा ने अपना नेरूदा रखा) अपनी ‘प्राग टेल्स’ में लिख गए थे. काफ़्का के प्राग का नक़्शा, काफ़्का के मन में बना हुआ था. काफ़्का को पढ़कर आप किसी पर्यटक की तरह प्राग में नहीं घूम सकते, लेकिन काफ़्का को पढ़कर आप उसके प्राग को खोज निकालने की इच्छा से भी बच नहीं सकते. कला के भीतर यही ‘जगह’ है. भूगोल नहीं है, मानस नहीं है, मानसिक भूगोल कह लीजिए, सुविधा होगी, पर है यह महज़ एक ‘जगह’.
नीचे की ये पंक्तियां कहते समय मीर लखनऊ पहुंच चुके हैं, वहां के शायरों को इशारे में अपना परिचय दे रहे हैं, जिस्म लखनऊ में है, दिल दिल्ली में है, लेकिन कविता में यह कौन-सी जगह है? यह विडंबना नाम की जगह है, दर्द है, उजड़ जाने की वीरानगी है, आप ख़ुद महसूस कीजिए कि हम अपने जीवन में इस बर्बाद जगह को कितना जीते आते हैं, जो उनकी दिल्ली है, हमारी कुछ और है–
दिल्ली जो एक शहर था आलम में इंतिख़ाब
रहते थे मुंतख़ब ही जहां रोज़गार के
उसको फ़लक ने लूट के बर्बाद कर दिया
हम रहने वाले हैं उसी उजड़े दयार के
तो ज़फ़र कहते हैं –
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-ए-नापाएदार में
दयार इस क़दर उजड़ा हुआ है, लुटा हुआ है, बर्बाद है, दिल-ए-दाग़दार में हसरतों तक की जगह नहीं बची है, फिर भी वह एक ‘जगह’ है. मीर फिर उस भूगोल में लौटते हैं और कहते हैं –
दिल व दिल्ली दोनों अगर हैं ख़राब
प: कुछ लुत्फ़ उस उजड़े घर में भी हैं
तो मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी को लुत्फ़ नाम की इस जगह का पता बहुत अच्छे से पता है. वह कहते हैं –
ऐ मुसहफ़ी तू इनसे मुहब्बत न कीजियो
ज़ालिम ग़ज़ब की होती हैं ये दिल्ली वालियां.
ये जो अलग-अलग शेरों की दिल्लियां हैं, ये चार अलग-अलग ‘जगहें’ हैं. भौतिक तौर पर सबका नाम दिल्ली हो सकता है, लेकिन मानसिक तौर पर सब अलग-अलग दुनियां हैं. अमूर्त दुनियां हैं. इनका कोई आकार नहीं है. आप इन्हें महसूस कर सकते हैं, लेकिन इनका कोई नक़्शा नहीं बना सकते. आप इन ‘जगहों’ पर रह सकते हैं, लेकिन अपने विजिटिंग कार्ड पर इन जगहों का पता नहीं छाप सकते. उसके बाद भी कुछ लोग इन जगहों पर पहुंच जाते हैं, आपको ढूंढ़ते-ढूंढ़ते पहुंच जाते हैं, या यहां पहुंचने के बाद आपको ढूंढ़ निकालते हैं- सब लोग नहीं, कुछ लोग. सब लोग पहुंच जायें, तो कविताएं सबकी समझ में आने लग जाये, लेकिन जिन जगहों पर सब लोग पहुंच जायें, वह कला की नहीं, पर्यटन व व्यवसाय की जगहें होती हैं.

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कला, कविता, दर्शन आदि के बारे में बात करते हुए एक बड़ी समस्या यह होती है कि आप अमूर्त होने से नहीं बच सकते. हमारे संस्कार ऐसे होते हैं कि हम बचपन से ही अमूर्त चीज़ों की आराधना करते हैं, लेकिन अमूर्त होने से दूर भागते हैं. हमें मूर्तियों की आदत है. हमें पूजा के लिए भी मूर्ति चाहिए और तोड़ने के लिए भी मूर्ति चाहिए. बुतकश हों या बुतपरस्त, बिना बुत के काम नहीं चल पाता. जबकि जीवन की सचाई यह है कि मूर्तियों में जितनी भी जान होती है, वह अमूर्त होती है. जान या प्राण एक अमूर्त शब्द है. उसे आप महसूस कर सकते हैं, उसके उदाहरण दे सकते हैं, लेकिन उसका आकार नहीं बता सकते. मान लीजिए कि इस दुनिया में सबकुछ मूर्त हो, अमूर्त कुछ भी न हो, तो यह दुनिया कैसी होगी? निर्जीव वस्तुओं का सर्कस होगी. मिट्‌टी और चट्‌टान तो मंगल पर भी हैं, लेकिन उनमें अमूर्त की प्रतिष्ठा करने वाला वह कलाकार नहीं है, जिससे जीवन की उत्पत्ति होती है. किसी भी मूर्ति की जान उसके अमूर्त में होती है. यह अमूर्त हटा दिया जाए, तो जीवन, लाश में बदल जाएगा. जब जीवन से अमूर्त को नहीं हटाया जा सकता, तो कला से अमूर्त को कैसे हटाया जा सकता है? बिना अमूर्त के आप जीवन को नहीं समझ सकते, तो बिना अमूर्त को जाने आप कला को क्यों समझ लेना चाहते हैं?
यही अमूर्त कई बार अर्थ की तरह कविता के भीतर व्याप्त होता है, तो कई बार उस अनुभूति की तरह, जिसे मैं ‘जगह’ कह रहा हूं. जो लोग शिकायत करते हैं कि उन्हें कविता समझ में नहीं आती, दरअसल, वे उन ‘जगहों’ तक पहुंच पाने में अपनी असफलताओं को स्वीकार कर रहे होते हैं. और इसमें कोई दोष भी नहीं है. हम ताउम्र मूर्तियों के प्रेम में होते हैं. चलते-फिरते मिट्‌टी के पुतलों के रूप में इंसानों की मूर्तियां. अगर लाशों को बचाए रखने की सुविधाएं बन जायें, तो श्मशानों और क़ब्रिस्तानों की जगह लाश रखने वाले लॉकर किराए पर मिलने लगेंगे. जैसा कि पुराने राजा, ख़ासकर इजिप्ट के, करते भी थे. वे अपने प्रियजनों की लाशों को हमेशा के लिए संभालकर रखना चाहते थे. शरीर भी एक जगह है, और उस जगह के साथ हमारा रिश्ता बना रहता है. मान लीजिए, मिस्टर एक्स का शरीर मर गया और उसकी आत्मा ने आकर हमें सूचना दी कि मैं एक पेड़ के रूप में जन्म ले रहा हूं, तब? हमने तो ताउम्र दावा किया है कि मैं तुम्हारे जिस्म से नहीं, तुम्हारी अच्छी आत्मा से प्रेम करता हूं. तो इस दावे के आधार पर क्या हम उस पेड़ से भी उतना ही प्रेम कर पाएंगे? आप चाहें जो कहें, मुझे तो लगता है कि नहीं कर पायेंगे. क्योंकि हमारी ट्रेनिंग इस तरह से नहीं होती. हमारी ट्रेनिंग ऐसी है कि हम अमूर्त से प्रेम का दावा करें, लेकिन प्रेम मूर्ति से करें. हमें वे दावे करने की ट्रेनिंग मिली होती है, जिनका असलियत से कोई ख़ास लेना-देना नहीं होता. मूर्ति के अंदर एक अमूर्त भगवान रहता है, उससे हम लाख छल कर लेंगे, किसी को पता भी न चलने देंगे, लेकिन अगर मूर्ति का किसी ने ग़लती से भी अपमान कर दिया, तो हम मार दंगा मचा देंगे.
इस तरह इंसानों की बुनियादी ट्रेनिंग ही एक तरह से कला-विरोधी होती है. अमूर्त को अमान्य करना, और यदि मान्य भी किया, तो उसके साथ छप्पन छल करना, कला-विरोधी मानसिकता है. हमारे समय में कविता काग़ज़ पर लिखी जाती है. लेकिन काग़ज़ को कविता नहीं कह सकते. काग़ज़ को लेकर ग़ालिब का एक मशहूर शेर याद आता है. वह शेर एक उदाहरण है कविता में ‘जगहों’ के इस्तेमाल का. भौतिक और मानसिक दोनों क़िस्म की जगहें. पहले शेर, फिर उसका अर्थ, फिर ‘जगह’ की बात.
नक़्श फ़रियादी है किसकी शोख़ी-ए-तहरीर का
काग़ज़ी है पैरहन, हर पैकर-ए-तस्वीर का.
चूंकि यह ग़ालिब का शेर है, एक स्तर पर यह बहुत आसान है, दूसरे स्तर पर बहुत जटिल. पहला अर्थ ऐसे बनता है- कोई तो है जिसने अपनी शरारत-भरी लिखावट से कुछ ऐसी बातें लिखी हैं, जिससे दुनिया की हर रेखा, हर निशान, टेढ़ा-मेढ़ा, जटिल हो गया है, इस तस्वीर या सृष्टि का हर इंसान काग़ज़ के कपड़े पहनकर फ़रियादी बना हुआ है. यानी इंसान का शरीर तो ख़ुद ही नश्वर है लेकिन वह किसी और से या ख़ुदा से फ़रियाद कर रहा है.
दूसरा अर्थ इसी का विस्तार है. एक ज़माने में ईरान में परंपरा थी कि अगर कोई शाह के सामने फ़रियाद लेकर जाता, तो काग़ज़ के कपड़े पहनकर जाता था. उसी से पता चल जाता था कि वह फ़रियाद करने आया है. इसी कहानी की ओर इशारा करते हुए ग़ालिब ने यह शेर कहा था – हम सब इंसानों ने काग़ज़ के लिबास पहन रखे हैं, जो कि कट-फट जायेंगे, टूट जायेंगे, ख़त्म हो जायेंगे, और यह जानते हुए भी हम फ़रियादी बने हुए हैं, और तुर्रा यह कि किसने सामने फ़रियादी बने हुए हैं? उसके सामने, जिसने अपनी शरारत भरी लिखावट से हमारे जीवन में दस तरह की जटिलता डाल दी है. और कल्पना कीजिए कि यह फ़रियाद क्या होगी? शायद यह होगी कि जो यह जटिलता है, समाप्त हो जाए. अब यह जो शरारती लिखवैया है, वह क्या करेगा? उसने तो जटिलता लिख दी है. अब सरलता कहां से लावेगा? ग़लत फ़रियाद कर रहे हो, ग़लत आदमी के सामने कर रहे हो, जो तुम्हारा गुनहगार है, उससे तुम फ़रियाद करके इंसाफ़ की उम्मीद कर रहे हो? सही कर रहे हो? मान लो, उसने सरलता लिख दी, तब क्या करोगे? तब नयी फ़रियाद लेकर आओगे कि उसका ज़्यादा सरल लिख दिया, मेरा कम सरल है. सरलता तो सबके लिए अलग-अलग होती है न. बीस साल के आदमी के लिए सात का पहाड़ा बहुत सरल है, लेकिन जिसकी उम्र पांच ही साल है, उसने तो सात का पहाड़ा रटने में ही सात महीने लगा दिए थे. उस तिफ़्ल के लिए तो वही सबसे कठिन है.
इस तरह इस शेर का अर्थ और गहरा, और गहरा, और गहरा होता जाएगा. लेकिन महज़ उसके लिए, जो उन सारी जगहों तक पहुंच सकता हो. कविता पाठक से एक ख़ास क़िस्म की लियाक़त मांगती है. सुंदरताओं का आनंद उठाने के लिए योग्यता चाहिए और अच्छी कविता हमारी योग्यताओं की परीक्षा लेती है. ग़ालिब इस शेर में एक ख़ास जगह बैठे हुए हैं. वह दिल्ली में बैठे हैं. हिंदुस्तान में हैं. जिसका बहुत क़रीबी रिश्ता ईरान से रह चुका है. जिस भाषा में वह बोल रहे हैं, उसका संबंध ईरान से रह चुका है. यह तो हुई भौतिक जगह. अगर हमें इन जगहों के बारे में, इनकी परंपराओं के बारे में पता है, तो हम यह पहला पड़ाव पार कर लेते हैं कि इसका रिश्ता उस ईरानी परंपरा से है. इस शेर में ग़ालिब कुछ मानसिक जगहों पर भी बैठे हैं. जैसे एक जगह मुहब्बत की है, एक जगह दर्शनशास्त्र की है, एक जगह व्यंग्य की भी है और एक जगह विडंबना की भी है. ग़ालिब हमें आमंत्रित करते हैं कि इस शेर में हम उन सभी जगहों तक जाएं.
आजकल सभी के हाथ में स्मार्टफोन है. उसकी भाषा का एक शब्द है सिन्क होना. यानी सिन्क्रोनाइज़्ड होना. यानी दो जगहों का एक सुर में आ जाना. उनमें तालमेल बन जाना. कविता में यह सिन्क होना बहुत ज़रूरी है. कवि के भीतर की जगह और पाठक के भीतर की जगह—दोनों में सिन्क होना चाहिए. नहीं होगा, तो कविता का अधिकतम आनंद नहीं पाया जा सकेगा. यह कैसे होता है? अपने अंदर की जगहों का विस्तार करके ही, उनका संशोधन करके ही हम कवि के भीतर की उस जगह तक पहुंचने की कोशिश कर सकते हैं. शत-प्रतिशत पहुंच जाएं, यह कोई ज़रूरी नहीं, लेकिन परिहास में कहें, तो हमने अपने जीवन में पैंतीस प्रतिशत पासिंग मार्क की सुविधा बना रखी है. उतने तक तो पहुंच ही सकते हैं.
हर अच्छा कवि अपने भीतर ऐसी कई जगहें बनाता है. वह जिन जगहों पर छिपता है, उन्हीं जगहों पर उजागर होता है. हर अच्छा कवि अपनी कविता के भीतर एक कलात्मक लुका-छिपी खेल रहा होता है. वह अपनी कविता में एक जगह जाकर छिप जाता है, फिर प्रतीक्षा करता है कि पाठक आएगा और धप्पा कहकर उसकी पीठ पर एक धौल मारेगा और उसे पकड़ लेगा. यक़ीन कीजिए, वह सदियों तक यह इंतज़ार कर सकता है. उसके शरीर की मूर्ति नष्ट हो जाये, तो भी उसकी कविता के भीतर की यह अमूर्ति प्रतीक्षा करती रह सकती है. हर अच्छा कवि समझ लिए जाने की आकांक्षा से भरा हुआ होता है. हर अच्छा कवि ग़लत समझे जाने की आशंका से त्रस्त रहता है. उसके बाद भी वह अपनी कविता के भीतर जानी-पहचानी नहीं, बल्कि अनजानी जगहों पर रहना चाहता है, क्योंकि वे जगहें हमें ज़्यादा बुलाती हैं, जिन्हें हम नहीं जानते.
बात फिर वहीं पहुंची, जहां से शुरू हुई थी. एक अच्छा कलाकार जाने-पहचाने काम करने, जानी-पहचानी चीज़ें लिखने से बचना चाहता है. समाज और प्रकृति के साथ उसका एक निजी रिश्ता होता है, जो बहुत जाना-पहचाना नहीं होता, वह इतना निजी होता है कि लगभग विशिष्ट होता है. भौतिक जगहें उसके भीतर मानसिक भूगोल बनाती हैं. तभी तो जो ग़ालिब दिल्ली छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहते थे, एक ऐसी जगह जाकर का सोचने लगे जहां कोई न हो. बेदरो-दीवार का एक घर बनाना चाहते थे. वह कौन-सी जगह है? वह घर कहां बन सकता है? कविता के भीतर ही एक ऐसी जगह हो सकती है.
यह जो जगह है, जिसे मैं बार-बार ‘जगह’ कह रहा हूं, वही बेदरो-दीवार का घर है. पूरी दुनिया दरो-दीवार का घर बनाने के लिए हलाकान हो रही, कवि बे-दरो-दीवार का घर बना लेना चाहता है. वह कहता है कि वह वहां अकेला रहेगा, पर ऐसा कहकर चाहता क्या है? वह चाहता है कि इससे यह समझा जाए कि उसे वहां अकेले नहीं रहना है. कहना एक ‘जगह’ है. समझना भी एक ‘जगह’ है. कविता दोनों ‘जगहों’ के बीच की आवाजाही है. यही जगहें हमें ताक़त और प्रेरणा देती हैं. यही जगहें हमें तमाम दुनिया से अलग बनाती हैं.

जैसे निदा फ़ाज़ली का एक शेर है –

मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता

त्योहारों का वर्ग चरित्र

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