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चक्रधरपुर संसदीय सीट : 1971 में चुनाव लड़े, पर अपना एक रुपया भी नहीं किया खर्च

चुनावी खर्च 1991 तक मात्र एक लाख हुआ करता था, राज्य बनने के बाद करोड़ों होने लगे खर्च शीन अनवर 1971 में सिंहभूम संसदीय सीट से देवेंद्र नाथ चांपिया ने चुनाव तो लड़ा, लेकिन उन्होंने अपने प्रचार पर एक रुपया भी खर्च नहीं किया, हालांकि वह मोरन सिंह पूर्ति से हार गये. फिर भी श्री […]

चुनावी खर्च 1991 तक मात्र एक लाख हुआ करता था, राज्य बनने के बाद करोड़ों होने लगे खर्च
शीन अनवर
1971 में सिंहभूम संसदीय सीट से देवेंद्र नाथ चांपिया ने चुनाव तो लड़ा, लेकिन उन्होंने अपने प्रचार पर एक रुपया भी खर्च नहीं किया, हालांकि वह मोरन सिंह पूर्ति से हार गये. फिर भी श्री चांपिया दूसरे स्थान पर रहे. उन्होंने पूरे लोकसभा क्षेत्र में साइकिल से चुनाव प्रचार किया. तब समर्थकों व कार्यकर्ताअों की कोई डिमांड भी नहीं थी. वे अपना खा-पीकर सब कुछ करते थे. वह तब के चुनाव को लेकर अपना अनुभव बताते हैं.
कहते हैं कि अब चुनाव में बड़ा बदलाव हो गया है. अब उम्मीदवार के गुण, प्रतिभा व शिक्षा नहीं देखे जाते हैं. जिसके पास पैसा है, वही उम्मीदवार बनता है और सफल भी होता है. हमारे समय में समर्पित कार्यकर्ता थे. साइकिल से सारे लोग चुनाव प्रचार में निकलते थे. जहां रात होती, वहीं सो जाते थे. गांव वाले ही खाने व सोने की व्यवस्था करते थे.
तब ईमानदारी का दौर था. बूथ मैनेजमेंट के नाम पर प्रति बूथ पांच किमी चावल व पांच रुपये दिये जाते थे. पैसा व चावल ग्रामीण खुद इकट्ठा करते थे. बूथ एजेंटों के लिए चाय-नाश्ता का भी प्रबंध गांव वाले ही किया करते थे. इसलिए उस दौर में चुनाव को वोट पर्व कहा जाता था.
श्री चांपिया कहते हैं कि आज राजनीति के शब्दकोष से ईमानदारी शब्द मिट गया है. जमाना काफी बदल गया है. राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां अपने प्रत्याशी के लिए फंडिंग करती हैं. प्रत्याशी भी अपने स्तर से चंदा लेते हैं.
एक गाड़ी में ही करते थे चुनाव प्रचार : मंगल सिंह बोबोंगा : 1991 में निर्दलीय और 1998 में झामुमो से लोकसभा चुनाव लड़ने वाले पूर्व विधायक मंगल सिंह बोबोंगा कहते हैं कि तब निर्वाचन आयोग के नियमानुसार मात्र एक वाहन से ही चुनाव प्रचार की स्वीकृति मिलती थी.
जिससे पूरे संसदीय क्षेत्र का भ्रमण करना पड़ता था. कभी-कभी साइकिल या मोटरसाइकिल से भी प्रचार- प्रसार करने के लिए जाना पड़ता था. वह बताते हैं कि कल और आज के चुनाव में काफी अंतर आया है. पहले कार्यकर्ता प्रत्याशी के लिए पैसे इकट्ठे कर चुनाव में सहयोग करते थे, अब प्रत्याशियों को वोट के लिए कार्यकर्ताअों पर पैसा खर्च करना पड़ता है. पहले मुद्दों पर चुनाव लड़े जाते थे, अब धन पर. मुद्दों का कोई मायने ही नहीं रह गया है. सिंहभूम सीट आदिवासी बहुल क्षेत्र है.
श्री बोबोंगा ने 1991 का संसदीय चुनाव 80 हजार से एक लाख रुपये में ही लड़ा था. 1998 में यह राशि तीन लाख तक पहुंच गयी. 2009 में तीन करोड़ रुपये तक खर्च हुए. तब के चुनाव में कार्यकर्ताओं ने ही मेरे प्रचार के लिए पंपलेट छपवाये थे. नुक्कड़ सभाएं करते और घूम-घूम कर प्रचार करते थे. तब बड़े-बड़े होर्टिंग व आज की तरह हाइटेक प्रचार नहीं होते थे.
बागुन पांच बार बने सांसद : सिंहभूम के पुराने नेताअों का कहना है कि बागुन सुंब्रई पांच बार सांसद बने. सबसे पहले वह अॉल इंडिया झारखंड पार्टी फिर जनता पार्टी की टिकट से सांसद बने. तीन बार कांग्रेस पार्टी से चुनाव लड़ कर जीते थे, लेकिन उस समय भी खर्च का दायरा बहुत सीमित था. न तो चुनाव प्रचार हाइटेक हुआ और न ही उन्होंने ज्यादा खर्च किया.
2004 से खर्च बढ़ा, 2009 में प्रचार हाइटेक हो गया : सिंहभूम के पुराने राजनीतिज्ञ कहते हैं कि वर्ष 2004 से चुनाव के खर्च में बढ़ोतरी हुई है. तब कांग्रेस से बागुन सुंब्रई, भाजपा से लक्ष्मण गिलुवा सहित अन्य नेता चुनाव लड़े थे.
वर्ष 2009 में यहां चुनाव का जोर दिखा. तब निर्दलयी मधु कोड़ा ने भाजपा के बड़कुवंर गगराई को चुनाव हराया था. इस समय प्रचार में प्रतियोगिता दिखी और इस कारण खर्च भी दिखा. मोटरसाइकिल रैली चर्चित रही. बूथ मैनेजमेंट भी शानदार रहा. इस समय से यहां के चुनाव में व्यापक बदलाव देखने को मिला. वर्ष 2014 में भाजपा के लक्ष्मण गिलुवा ने निर्दलीय गीता कोड़ा को चुनाव हराया. इस चुनाव में भी प्रचार का दम-खम दिखा.
महिला समूहों के कारण खर्च व मतदान बढ़ा : जब से महिला समूह बन कर सहकारी योजनाओं को धरातल पर उतारा जाने लगा. तब से राजनीतिक दलों ने भी महिलाओं का इस्तेमाल वोट के लिए करना शुरू किया. चुनाव लड़नेवाले प्रत्याशी महिला समूहों की जरूरतों को पूरा करते थे. इसका दो लाभ हुआ.महिलाएं मतदान के लिए आगे आयीं, प्रत्याशियों को वोट मिले और मतदान का प्रतिशत भी बढ़ता गया.

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