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कुम्हारों की पारंपरिक कला समाप्ति के कगार पर

मांग के अनुसार सिर्फ चाय के कुल्हड़ और दीपक के दीये बनाने की विवशता मेहनत के अनुरूप नहीं मिलती राशि, सरकार के स्तर से भी नहीं है संरक्षण सांकतोड़िया : पारंपरिक मिट्टी के बर्तनों के प्रति लोगों की उपेक्षा, कम आय और उपयोगिता के कारण अब कुम्हारों के इस पेशे का अस्तित्व लुप्त प्राय: के […]

मांग के अनुसार सिर्फ चाय के कुल्हड़ और दीपक के दीये बनाने की विवशता

मेहनत के अनुरूप नहीं मिलती राशि, सरकार के स्तर से भी नहीं है संरक्षण
सांकतोड़िया : पारंपरिक मिट्टी के बर्तनों के प्रति लोगों की उपेक्षा, कम आय और उपयोगिता के कारण अब कुम्हारों के इस पेशे का अस्तित्व लुप्त प्राय: के कगार पर आ गया है.
चिनाकुड़ी निवासी कुम्हार भोलानाथ पंडित ने कहा कि अब ना तो कहीं छींके (मिट्टी के बर्तनों में रस्सी के सहारे टांग कर रखी गई दूध दही मक्खन आदि) देखे जाते हैं और ना ही पनघट का घड़ा साधने वाली कलाइयां. तो बाजारों में मटकियों, घड़े की बिक्री ना के बराबर है. वैसे भी अब ज्यादातर लोग फ़्रीज़ों में रखे जल का उपयोग कर रहे हैं. इस पेशे की बारीकियों, मजबूरियों और वर्षा के इन दिनों में कुम्हारों को अपने कारोबार की विशेष परेशानियों की जानकारी देते हुए पेशे से जुड़े भोलानाथ पंडित, सांकतोड़िया के विनोद पंडित का कहना है कि अब वे मिट्टी के घड़े, मटकियां या अन्य बर्तन नहीं बनाते.
क्योंकि इनकी बिक्री ना के बराबर है. इसलिए सिर्फ चाय पीने वाले मिट्टी के प्याले और कुछ पूजा उपयोगी ढक्कन ही बनाते हैं. शादी व्याह आदि में उपयोग होंने वाले मिट्टी के कुल्हड़ों का उपयोग अब लोग नहीं करते हैं. उन्होंने कहा कि सरकार कहती है कि बच्चों को स्कूल भेजो तो अपने बच्चों को पढ़ने भेजते हैं. लेकिन इस वर्षा के मौसम में अगर पेशे में बच्चे थोड़ा सहयोग ना करें तो काम कैसे हो? थोड़ी वर्षा होने पर मिट्टी के कच्चे बर्तनों को घर के अंदर ले जाओ फिर धूप निकली तो बाहर निकालो. यह काम एक आदमी के बस का नहीं है.
उनका कहना है कि अपने बच्चों को इस रोजगार से नहीं जोड़ते हैं. अब बच्चे स्कूल जाते हैं. यह पूछे जाने पर कि आपके बाद यह कला खत्म हो जायेगी, उन्होंने कहा कि अपने पेशे से बच्चों को नहीं जोड़ा है. अब यह व्यवसाय लुप्त होता है तो हो जाये. भोला पंडित ने बताया कि 50 रुपये सैंकड़ा की दर से चाय के प्याले बिक्री होते हैं.
इसी पेशे से अब तक बड़ी मुश्किल से किसी तरह संसार चलता आया है. मिट्टी के प्यालो की मांग पर कागज या प्लास्टिक के प्यालो की मार के बारे में पूछे जाने पर दोनों का कहना है कि मिट्टी के चाय के प्यालो की मांग तो अधिक है. पर इतनी आपूर्ति नहीं कर पाते हैं. पूर्व की वनिस्पत चाय दुकानों की संख्या तो बढ़ी है,पर कुम्हार के पेशे से जुड़े लोगों की संख्या में गिरावट आई है. मुख्य वजह है कि काफी मेहनत के बावजूद भी इतनी आमदनी नहीं हो पाती. इसके बाद सरकारी संरक्षण भी नहीं मिल रहा है.
भोला पंडित बताते हैं कि वह पहले मिट्टी की मूर्तियां भी तैयार करते थे. पर इसमें काफी रिस्क हो जाता था. बाजारी प्रतिस्पर्धा में कुछ मूर्तियां नहीं बिकती थी. जिससे मेहनत का नुकसान हो जाता था. साथ ही उस पर आई लागत भी बेकार चली जाती थी. लिहाजा वे अब सिर्फ मिट्टी के प्याले तथा पूजा पाठ में व्यवहृत होने वाले मिट्टी के ढक्कन ही बनाते हैं.
युवा विनोद पंडित का कहना है कि दीपावली में विगत कई वर्षों से सिर्फ मिट्टी के दीये ही वे बनाते आ रहे हैं. इस बार भी वे बनाएंगे. इस बार चीन निर्मित दीपावली उपयोगी बत्तियों की बिक्री में कमी की संभावना को देखते हुए कुछ अधिक मिट्टी के दीयों की खपत की उम्मीद भी व्यक्त की.

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