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नियुक्ति पर तकरार

देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 36 फीसदी पद खाली हैं. पटना और राजस्थान उच्च न्यायालयों में 50 फीसदी से अधिक रिक्तियां हैं. इनका खमियाजा पूरी न्यायिक व्यवस्था और न्याय की आस में अदालतों के दरवाजे खटखटाते लोगों को भुगतना पड़ता है. स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है […]

देश के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 36 फीसदी पद खाली हैं. पटना और राजस्थान उच्च न्यायालयों में 50 फीसदी से अधिक रिक्तियां हैं. इनका खमियाजा पूरी न्यायिक व्यवस्था और न्याय की आस में अदालतों के दरवाजे खटखटाते लोगों को भुगतना पड़ता है. स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उच्च न्यायालयों में करीब 43 लाख मुकदमे लंबित है, जिनमें से आठ लाख से ज्यादा मामले दस साल से भी पुराने हैं.

पांच साल से अधिक समय से लंबित मामलों की संख्या भी लगभग इतनी है. न्यायाधीशों की नियुक्ति करने तथा जरूरी संसाधनों की व्यवस्था करना कार्यपालिका और न्यायपालिका के जिम्मे है, लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि गाहे-बगाहे ऐसे मसलों पर सरकार और सर्वोच्च न्यायालय के बीच ठन जाती है तथा ये दोनों संस्थाएं खाली पदों में हो रही देरी के लिए एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने लगते है. महाधिवक्ता केके वेणुगोपाल ने सर्वोच्च न्यायालय में बताया है कि उच्च न्यायालय कॉलेजियम से नाम निर्धारित होने के बाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश की नियुक्ति में औसतन 337 दिन यानी लगभग एक साल का समय लग जाता है.

नाम आने के बाद सरकार औसतन 127 दिन में निर्णय लेकर सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम को भेज देती है. इस कॉलेजियम को फैसला लेने में 119 दिन लगते हैं. फिर तय नाम सरकार के पास जाता है, जो फिर 73 दिन का समय लगाती है. इसके बाद 18 दिनों के औसत समय में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री अपनी मंजूरी देते हैं.

देरी का आलम यह है कि 396 में से 199 रिक्तियों के लिए उच्च न्यायालय कॉलेजियम ने कोई नाम ही नहीं दिया है. कई बार तो ऐसा होता है कि यह कॉलेजियम पद खाली होने के पांच साल बाद नयी नियुक्ति के लिए अपनी अनुशंसा सरकार के पास भेजता है. अभी स्थिति यह है कि सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम के पास 80 नामों तथा सरकार के पास 35 नामों के प्रस्ताव विचाराधीन हैं.

इससे स्पष्ट है कि पदों को भरने में विलंब का दोष दोनों ही पक्षों का है. यह तथ्य भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए कि सरकार को नाम मिलने के बाद संबद्ध व्यक्ति के बारे में राज्यों से सूचनाएं जुटाने में समय लगता है, इस लिहाज से उसकी ओर से हुई देरी एक हद तक तार्किक है. अक्सर जजों की कमी की शिकायत करनेवाली न्यायपालिका ने अपने स्तर पर प्रक्रिया को दुरुस्त करने की ठोस पहल नहीं की है, जबकि यह समस्या नयी नहीं है. देरी की एक वजह कॉलेजियम और सरकार के बीच नामों पर असहमति नहीं बनना भी है.

उदाहरण के लिए, अभी जो नाम सरकार के पास है, उनमें से केवल 10 नामों पर सहमति है. अन्य नामों पर खींचतान के समाधान में बहुत समय लग सकता है या फिर से नयी अनुशंसा की जरूरत होगी. उम्मीद है कि वर्तमान सुनवाई में सरकार और न्यायालय एक ठोस प्रक्रिया तय कर सकेंगे और भर्ती की प्रक्रिया तेज की जा सकेगी.

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