बलात्कार की भयावह घटनाओं पर देशभर में क्षोभ है और ऐसे अपराधों पर अंकुश लगाने की मांग हो रही है. हैदराबाद प्रकरण के संदर्भ में प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे ने कहा था कि न्याय तुरंता और बदले की भावना से नहीं होना चाहिए. इस बात से सहमति जताते हुए उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने कहा है कि बलात्कार के मामलों के निबटारे में होनेवाली देरी से भी न्याय हासिल नहीं हो सकता है.
सच है कि दोषियों को दंडित कर पीड़ितों को न्याय देने तथा अपराधियों में कानून का डर पैदा करने में सबसे बड़ी बाधा धीमी न्यायिक प्रक्रिया है. सजा देने के लिए समुचित कानून मौजूद हैं, जैसा कि उपराष्ट्रपति ने रेखांकित किया है, नये कानूनी प्रावधानों से नहीं, बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रशासनिक कुशलता के जरिये अपराधों को रोका जा सकता है. वर्ष 2017 में बलात्कार के लगभग 1.28 लाख मामले विभिन्न अदालतों में लंबित थे.
तब सिर्फ 18,300 मामलों का ही निबटारा हो सका, जबकि उस साल 32.5 हजार से अधिक शिकायतें दर्ज हुई थीं. ऐसी देरी के बावजूद सजा देने की दर 32 फीसदी के आसपास ही रही थी. कुछ महीने पहले सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय को बताया था कि बच्चों के विरुद्ध बलात्कार के 1.5 लाख से अधिक मामले लंबित है और ऐसे मामलों के निबटारे की दर महज नौ फीसदी है. इसके बाद न्यायालय ने हर उस जिले में फास्ट ट्रैक अदालतें गठित करने का आदेश दिया था, जहां बच्चों के विरुद्ध यौन हिंसा के सौ से अधिक मामले चल रहे हैं. महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 1023 ऐसी अदालतों के प्रस्ताव को स्वीकृति दी है.
इस संतोषजनक पहल के साथ यह भी उल्लेखनीय है कि पहले की वीभत्स घटनाओं के बाद भी फास्ट ट्रैक अदालतें बनाने की कोशिशें हुई हैं, पर उनके नतीजे निराशाजनक हैं. गुजरात, मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, पंजाब, केरल समेत 19 राज्यों में ऐसी एक भी अदालत नहीं है. कई राज्य इस मद में आवंटित धन को ठीक से खर्च नहीं करते. बहरहाल, एक बार फिर सरकार बलात्कार रोकने और दोषियों को दंडित करने के लिए सक्रिय होती दिख रही है.
कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि वे जल्दी ही सभी मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों से बलात्कार व बच्चों के विरुद्ध यह हिंसा के मामलों की जांच दो महीने और सुनवाई का काम छह महीने के भीतर पूरा करने का आग्रह करेंगे. विधि मंत्रालय ने एक साल के अंदर लंबित मामलों का निबटारा करने की योजना भी तैयार की है.
इन उपायों के साथ अदालतों और पुलिस महकमे के खाली पदों को भरने, जांच व सुनवाई की खामियों को दूर करने तथा पीड़ितों व गवाहों की सुरक्षा पुख्ता करने की बड़ी जरूरत है. ऐसा नहीं होने के कारण न्याय में देरी भी होती है और अक्सर दोषी बरी भी हो जाते हैं. ठोस सुधारों से ही आम जनता में कानूनी व्यवस्था के प्रति भरोसा पैदा किया जा सकता है.