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शनिवार को एक खबरिया चैनल के स्टूडियो में दो बड़े राजनीतिक दलों के प्रवक्ता आपस में भिड़ गये और हाथापाई की नौबत आ गयी. ऐसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं. अगर आक्रामक और आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग की बात करें, तो टेलीविजन की बहसों में यह आम चलन बन चुका है. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण […]

शनिवार को एक खबरिया चैनल के स्टूडियो में दो बड़े राजनीतिक दलों के प्रवक्ता आपस में भिड़ गये और हाथापाई की नौबत आ गयी. ऐसी घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं. अगर आक्रामक और आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग की बात करें, तो टेलीविजन की बहसों में यह आम चलन बन चुका है. यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि चैनलों के एंकर और संपादक, चर्चाओं में भाग लेनेवाले लोग तथा दर्शक इस चलन के आदी होते जा रहे हैं. इसे सुधारने की कोई कोशिश दिखायी नहीं देती है, बल्कि चैनल टीआरपी बटोरने तथा नेतागण सस्ती लोकप्रियता के लिए ऐसे चलन को बढ़ावा ही दे रहे हैं.
शायद दर्शकों के लिए भी ऐसी बहसें मनोरंजन का माध्यम बन गयी हैं, तभी तो इन्हें टीआरपी मिलती है और हंगामेदार बहसों के वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल भी होते रहते हैं. टीवी के परदे पर बनी खिड़कियों से झांकते प्रवक्ता और प्रतिनिधि एक-दूसरे से तेज आवाज में बोलने की होड़ में होते हैं. बहस का एंकर इसे नियंत्रित या संतुलित करने के बजाय उकसाता है और खुद भी चिल्लाता रहता है.
किसी भी बहस में विषय और अलग-अलग विचारों को जानने-समझने का मौका नहीं होता. किसी भी लोकतांत्रिक समाज में मीडिया की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है.
उसका काम मुद्दों के विभिन्न आयामों के बारे में लोगों को जागरूक करना तथा सत्ता और नागरिक के बीच में संवाद स्थापित करना होता है. टेलीविजन के प्रसार के साथ यह उम्मीद जुड़ी हुई थी कि इससे वैचारिक बहुलता का वातावरण बनाने में मदद मिलेगी, जो लोकतंत्र के लिए आवश्यक है, लेकिन आज की चिंताजनक स्थिति के लिए सिर्फ चैनलों और उनके एंकरों-संपादकों को दोष देना ठीक नहीं होगा. यदि हम सार्वजनिक विमर्श के परिवेश पर दृष्टिपात करते हैं, तो वहां भी बेहतर माहौल नहीं है.
चुनाव प्रचार के क्रम में राजनीतिक दलों के बड़े-बड़े नेताओं द्वारा अपशब्दों और आपत्तिजनक बोल के अनगिनत उदाहरण हैं. शायद ही कोई ऐसी पार्टी होगी, जिसके नेताओं ने ऐसा पतनशील आचरण नहीं किया हो. कुछ राज्यों में अभी हुए विधानसभा चुनाव के दौरान दिये गये भाषणों में ही ऐसे कई उदाहरण मिल सकते हैं.
शोर-शराब, हंगामा और अभद्र भाषा के कहर से संसद और विधानसभाएं भी बच नहीं सकी हैं. राजनीतिक दलों के समर्थक सोशल मीडिया पर भी भाषा का संयम खो देते हैं और अक्सर नेता भी इस माध्यम का गलत इस्तेमाल कर जाते हैं. चाहे सदन हो, सभा हो, सड़क की बतकही हो, समाचारपत्र हो, टेलीविजन हो या इंटरनेट हो- संवाद के सभी मंचों की चर्चा यदि मर्यादित ढंग से होगी और उसका आधार लोकतांत्रिक मूल्य होंगे, तभी देश-दुनिया के मुद्दों और समस्याओं के बारे में समुचित समझ बनायी जा सकेगी.
यदि भाषा का संयम खो जायेगा, तो हमारा व्यवहार भी भ्रष्ट और भयावह होगा. हमारे देश में स्वस्थ राजनीतिक विमर्श और विरोधियों की बातों को सुनने की शानदार परंपरा रही है. आज हमें उस परंपरा से सीख लेने की आवश्यकता है.

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