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ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती

धरती पर अगर मनुष्य-जीवन काे बचाये-बनाये रखना है, तो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में एक दशक के भीतर भारी कमी लानी होगी. धरती का औसत तापमान औद्योगीकरण के शुरुआती दशकों (1880 से 1910) में सालाना 13.7 डिग्री सेल्सियस था. 21वीं सदी के पहले दशक […]

धरती पर अगर मनुष्य-जीवन काे बचाये-बनाये रखना है, तो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में एक दशक के भीतर भारी कमी लानी होगी.
धरती का औसत तापमान औद्योगीकरण के शुरुआती दशकों (1880 से 1910) में सालाना 13.7 डिग्री सेल्सियस था. 21वीं सदी के पहले दशक में यह बढ़कर 14.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया. धरती के तापमान में यह लगभग 1 डिग्री सेल्सियस की बढ़वार है.
जलवायु-परिवर्तन के कारण व प्रभावों के आकलन से जुड़ी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि हमारी पृथ्वी औद्योगीकरण के शुरुआती दशकों के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक की वृद्धि तो शायद बर्दाश्त कर ले, लेकिन इसके बाद तापमान में कोई भी बढ़त धरती पर मनुष्य जीवन के लिए खतरे की घंटी है.
तापमान तय सीमा से ज्यादा बढ़ता है, तो वैश्विक स्तर पर तूफान, बाढ़, सूखा, लू और हिमपात सरीखी प्राकृतिक आपदाओं की तादाद तथा मानवीय जीवन और संपदा को नुकसान पहुंचाने की ताकत बढ़ेगी. ज्यादा खतरा घनी आबादी वाले देशों और नदी या समुद्र के किनारे बसे कोलकाता, कराची और मुंबई जैसे शहरों को है.
इन्हें भारी तूफान, बाढ़, सूखा या फिर लू जैसी प्राकृतिक आपदा से ज्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा. भारत जैसे विकासशील और ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में अग्रणी देशों के लिए विशेष चिंता की बात है. बीते 150 सालों में, दिल्ली का औसत तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, जबकि कोलकाता का 1.2 डिग्री सेल्सियस. इस दौरान, चेन्नई और मुंबई में भी तापमान में 0.5 डिग्री से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है.
ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन की मौजूदा रफ्तार जारी रही, तो साल 2030 से 2052 के बीच धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ जायेगा. डेंगू और मलेरिया, खेती में होनेवाली कमी तथा बाढ़-तूफान सरीखी आपदाओं से मानव-जीवन को बचाने के लिए तापमान का नियंत्रण जरूरी है.
इसके लिए कार्बन डाईऑक्साइड (सीओ2) जैसी गैसों के उत्सर्जन में साल 2030 तक इतनी कमी लानी होगी कि वह साल 2010 में हुए उत्सर्जन की तुलना में 45 फीसदी तक घट जाये और साल 2050 तक शून्य हो जाये.
ऐसा तभी मुमकिन है, जब दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए कोयले और कच्चे तेल आदि की जगह सौर ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा दें. अगर सौर-ऊर्जा और पवन-ऊर्जा के विस्तार एवं विकास का कार्यक्रम वांछित गति से जारी रहा, तो भारत साल 2030 तक ऊर्जा जरूरतों का 40 फीसदी हिस्सा अक्षय ऊर्जा-स्रोतों से पूरा कर रहा होगा.
उम्मीद की जानी चाहिए, जलवायु परिवर्तन से संबंधित पेरिस समझौते को लेकर होनेवाली बैठकों में, विश्व की अन्य बड़ी आर्थिक महाशक्तियां भी जिम्मेदारी का परिचय देते हुए ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने के लिए आपसी सहमति बनायेंगी

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