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शासन पर सवाल

विधि-विधान से संचालित देश में ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’ की नीति तो नहीं ही चलनी चाहिए, परंतु उत्तर प्रदेश के एक भाजपा विधायक पर लगे बलात्कार के आरोप के सिलसिले में यही देखने को मिल रहा है. पीड़िता ने अपनी फरियाद लेकर मुख्यमंत्री आवास के सामने गुहार लगाते हुए आत्मदाह की कोशिश की. आत्महत्या […]

विधि-विधान से संचालित देश में ‘समरथ को नहिं दोष गुसाईं’ की नीति तो नहीं ही चलनी चाहिए, परंतु उत्तर प्रदेश के एक भाजपा विधायक पर लगे बलात्कार के आरोप के सिलसिले में यही देखने को मिल रहा है.
पीड़िता ने अपनी फरियाद लेकर मुख्यमंत्री आवास के सामने गुहार लगाते हुए आत्मदाह की कोशिश की. आत्महत्या का यह प्रयास हताशा भरे रोष की अभिव्यक्ति था. लेकिन, सुनवाई तो दूर की बात, उस लड़की के साथ एक और भयानक अत्याचार को अंजाम दिया गया. उसके पिता को फर्जी मामलों में फंसाकर गिरफ्तार किया गया और हिरासत में जानलेवा मार-पीट की गयी, जिसके कारण उनकी मौत हो गयी.
उस व्यक्ति के साथ बाहुबली नेता के इशारे पर कानून के रखवालों ने जो घृणित हिंसा की, उसके भयावह वीडियो देश के सामने हैं. मीडिया में चर्चा के बाद इस प्रकरण में जांच तो सरकार करा रही है, पर ऐसे संकेत साफ हैं कि सत्ता द्वारा उक्त विधायक और उसके अपराधी सहयोगियों को बचाने की कोशिश भी हो रही है.
ताकतवर जुल्म करता है, फरियादी को शिकायत करने पर सबक सिखाता है और किसी भी सजा के डर से बेखौफ होता है, लेकिन वह कहता फिरता है कि ‘कुछ लोग मेरे खिलाफ साजिश कर रहे हैं’. उत्तर प्रदेश के उन्नाव से जम्मू-कश्मीर का कठुआ बहुत दूर है. वहां आठ साल की बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार और हत्या के आरोपितों ने मामले को रफा-दफा करने के लिए राजनीतिक दबाव और रिश्वत का सहारा लिया. पुलिस का एक जांच अधिकारी खुद ही आरोपियों से मिल गया.
हद तो यह है कि आरोपितों के बचाव में राष्ट्रीय झंडे लेकर जुलूस तक निकाले गये और वकीलों के संगठन ने अदालत में आरोप-पत्र जमा करने में बाधा पहुंचाने की कोशिश की. ऐसे माहौल में जहां सरकार, निर्वाचित जनप्रतिनिधि, पुलिस और वकील ही पीड़ितों के न्याय के बुनियादी अधिकार की राह में अवरोध पैदा करें, इंसाफ की उम्मीद कहां बचती है! मामला उन्नाव का हो या कठुआ का- दोनों जगह एक-सी बात निकलकर सामने आती है.
हमारे सत्ता-तंत्र के भीतर बलात्कार शक्ति-प्रदर्शन की एक युक्ति है और इस शक्ति-प्रदर्शन से अगर दबदबा कायम रखने में मदद मिलती है, तो फिर जिम्मेदारी के अहम पदों पर बैठे लोग अपराध की तरफ से आंख मूंदे भी रह सकते हैं और उस पर पर्दा डालने के लिए अन्य संगीन अपराधों को भी अंजाम दे सकते हैं. शासन-प्रशासन, न्यायालय और समाज को आज खुद से यह सवाल पूछना होगा कि क्या सचमुच हम कानून के राज के अधीन हैं या फिर आपराधिक गिरोहों के रहमो-करम पर डरे-सहमे हुए जिंदा रहना ही हमारी हकीकत है.
मसला सिर्फ कुछ अपराधियों को सजा देने भर का नहीं है, आज कटघरे में हमारी पूरी शासन-व्यवस्था ही खड़ी है. उसे पीड़ितों के साथ हर आम नागरिक को जवाब देना है, जिसके मान-सम्मान के साथ खेलना ताकतवर लोगों का शगल बन गया है.

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