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गैरकानूनी है खाप

खाप पंचायतों को समन जारी करने या सजा देने का कोई हक नहीं है. ऐसी पंचायतें अगर सामाजिक बहिष्कार का फैसला सुनाती हैं या फिर हमलावर रवैया अपनाती हैं, तो इसे गैरकानूनी माना जायेगा. सर्वोच्च न्यायालय ने खाप पंचायतों के खिलाफ यह फैसला देते हुए आगाह किया है कि अगर सरकार खाप पंचायतों पर रोक […]

खाप पंचायतों को समन जारी करने या सजा देने का कोई हक नहीं है. ऐसी पंचायतें अगर सामाजिक बहिष्कार का फैसला सुनाती हैं या फिर हमलावर रवैया अपनाती हैं, तो इसे गैरकानूनी माना जायेगा. सर्वोच्च न्यायालय ने खाप पंचायतों के खिलाफ यह फैसला देते हुए आगाह किया है कि अगर सरकार खाप पंचायतों पर रोक नहीं लगाती है, तो कानूनी कार्रवाई होगी.
मामला साल 2010 से ही लंबित था. अदालत ने पूछा भी था कि ऐसी पंचायतों पर सरकार का क्या रुख है, किंतु राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में सरकार कुछ कहने से कतराती रही. अपनी पसंद से शादी करनेवाले जोड़ों की जान खाप पंचायतों के कारण हमेशा सांसत में रही, पर ऐसे जोड़ों की हिफाजत के लिए बेहतर कानून नहीं बन सके.
अदालत ने सरकार को इस बात के लिए टोका भी है. इसका जाहिर संकेत है कि व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा के मामले में न्यायिक सोच के साथ राजनीति कदमताल नहीं कर पा रही है. इसकी वजहें देश के आधुनिक इतिहास में खोजी जानी चाहिए. भारत में लोकतंत्र का लगातार मजबूत होना दुनियाभर के समाजविज्ञानियों के लिए कौतूहल का विषय रहा है.
गरीबी, अशिक्षा, विद्वेष और उत्पीड़न के विषम परिवेश में भारत में लोकतंत्र कायम हुआ है. इस व्यवस्था में व्यक्ति या समुदाय का नहीं, बल्कि कानून का राज चलता है और उदारवादी मूल्यों पर प्रतिष्ठित इस तंत्र में कानून की पहली कसौटी व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा है. लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यक्ति को अपने हर मामले में स्वतंत्र चयन का अधिकार है, बशर्ते इससे किसी दूसरे व्यक्ति या व्यापक लोकहित को नुकसान न हो, लेकिन भारत जैसे उपनिवेश रह चुके समाज की स्थिति दुविधा भरी है.
समाज और कानून के मूल्यों के बीच खाई बरकरार है. डॉ आंबेडकर ने इसी खाई की तरफ ध्यान दिलाते हुए कहा था कि राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति-एक वोट’ का सिद्धांत स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन सामाजिक चलन इसके उलट है.
आजादी के आंदोलन से निकली नैतिक ऊर्जा ने शुरुआती दौर में राजनीति को समाज सुधार करने का साहस दिया था और एक हद तक उसे स्वीकृति भी मिली थी, लेकिन बाद के वक्त में सामाजिक पुनर्निर्माण का रचनात्मक काम राजनीति की प्राथमिकताओं में हाशिये पर आ गया. परवर्ती पीढ़ी के नेताओं ने मान लिया कि सामाजिक बुराइयों के खिलाफ कानून बनाना पर्याप्त है, लोगों को खुद ही संकेत मिल जायेगा कि पारस्परिक व्यवहार का सही रास्ता क्या है.
व्यक्ति की स्वतंत्रता के विरोध में खड़ी खाप पंचायतों का जारी रहना और मजबूत होना इस सोच की भी देन है. वोट कहीं बिखर न जाएं, इस चिंता में समाज को व्यक्ति की आजादी के प्रति जागरूक बनाने का काम राजनीति से तकरीबन छूट गया है. अदालत के फैसले ने राजनीति को फिर से उसका दायित्व याद दिलाया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि राजनीति सामाजिक पुनर्निर्माण के अपने अधूरे वादे को पूरा करने की दिशा में बढ़ेगी.

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