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खेती को प्राथमिकता

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार ने कृषि को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा है और समानता लाने के उद्देश्य से सरकार आर्थिक विकास के फायदे किसानों तक पहुंचाना चाहती है. अधिसंख्य आबादी के हित को रेखांकित करता वित्त मंत्री का यह बयान वक्त की जरूरत के अनुरूप होने के कारण […]

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सरकार ने कृषि को अपनी प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर रखा है और समानता लाने के उद्देश्य से सरकार आर्थिक विकास के फायदे किसानों तक पहुंचाना चाहती है. अधिसंख्य आबादी के हित को रेखांकित करता वित्त मंत्री का यह बयान वक्त की जरूरत के अनुरूप होने के कारण स्वागतयोग्य है. इस बयान से यह आशा मजबूत हुई है कि बजट में संकट से जूझ रहे कृषि क्षेत्र को त्वरित राहत मिलेगी. मजदूरी, उत्पादन और बुवाई के ताजा सरकारी आंकड़े निराशाजनक स्थिति की ओर संकेत करते हैं.
रबी की मुख्य फसल गेहूं की बुवाई पिछले साल के मुकाबले इस साल (अक्तूबर से जनवरी तक) पांच फीसदी कम रकबे में हुई है. तेलहन रकबा भी पांच फीसदी घटा है. इसी तरह ग्रामीण क्षेत्र में मजदूरी की क्रमवार सालाना वृद्धि 6.6 फीसदी रही है, जो अपेक्षा से बहुत कम है. आकलन है कि कृषि और संबद्ध क्षेत्रों की वृद्धि दर 2017-18 में घटकर 2.1 फीसदी रह सकती है. आमदनी और उत्पादन में कमी का संकेत करते इन आंकड़ों को हाल के राजनीतिक परिदृश्य में देखा जाना चाहिए. कई राज्यों में किसानों ने आंदोलन की राह अपनायी है और कई जगहों पर कानून-व्यवस्था की स्थिति बेकाबू हुई है.
इस साल जिन राज्यों में चुनाव होनेवाले हैं, उनमें कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ तथा राजस्थान कृषि संकट की स्थिति से जूझ रहे हैं. मध्य प्रदेश में गेहूं और राजस्थान में तेलहन के रकबे में भारी कमी आयी है. किसानों की एक आम शिकायत है कि उन्हें फसल का वाजिब मूल्य नहीं मिल रहा है. भंडारण और विपणन के लचर होने तथा आयात नीति के कारण कृषि उत्पादों के बाजार मूल्य और किसान को हासिल मूल्य में भारी अंतर है. फसल खरीदने और खुदरा तौर पर बेचे जाने के बीच के कारोबारियों को मुनाफे का ज्यादा हिस्सा मिलता है. यह न तो किसान के हित में है और न ही आम उपभोक्ता के.
उपज का उचित दाम नहीं मिलने और कर्ज न चुका पाने की विवशता में किसानों की आत्महत्या की घटनाएं भी जारी हैं. किसानी दशकों से घाटे का सौदा बन चली है और किसानी छोड़नेवाले लोगों की तादाद बढ़ रही है. वित्त मंत्री ने उचित ही कहा है कि यदि कृषि क्षेत्र को विकास दर का लाभ स्पष्ट रूप से नहीं मिलता है, तो इसे तर्कसंगत या समानता वाला विकास नहीं कहा जा सकता है.
अब यह उम्मीद बढ़ी है कि बजट के उपायों से किसानों को राहत मिलेगी. लेकिन, इसी के साथ ऐसे नीतिगत पहलों की जरूरत भी है, जो दीर्घकालिक तौर पर खेती को फायदे के कारोबार में बदल दे और कभी-कभार की आपदाओं या फसल खराब होने के झटके भी किसान आसानी से बर्दाश्त कर सके. फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य तथा कर्जमाफी को लेकर सरकार की दृष्टि साफ होनी चाहिए. किसानों की समस्याओं को लेकर राज्य और केंद्र सरकारों में बेहतर समन्वय और संयोजन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए.

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