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संवेदनशीलता जरूरी
आज आर्थिक विकास की दो दशकीय यात्रा में देश ने कई बदलावों को देखा और महसूस किया है, लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे जरूरी मसले पर सरकारों की उदासीनता चिंता की बात रही है. आज वैश्विक बीमारी का 21 प्रतिशत बोझ ढोने के बावजूद भारत उन देशों में शामिल है, जो अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे […]
आज आर्थिक विकास की दो दशकीय यात्रा में देश ने कई बदलावों को देखा और महसूस किया है, लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे जरूरी मसले पर सरकारों की उदासीनता चिंता की बात रही है.
आज वैश्विक बीमारी का 21 प्रतिशत बोझ ढोने के बावजूद भारत उन देशों में शामिल है, जो अपने सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करते हैं. गुणवत्तापूर्ण और सर्वसुलभ स्वास्थ्य सेवाएं आम जन से कोसों दूर हैं. विशेषज्ञ डॉक्टरों, व्यवस्थित अस्पतालों और प्रशिक्षित कर्मचारियों की कमी जैसी समस्याएं भी हैं. कई ग्रामीण इलाके प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों से वंचित हैं और जहां हैं भी, वहां अव्यवस्था का आलम है. बीमारियों से बचाव और लक्षणों की शुरुआती पहचान नहीं हो पाने की कीमत पूरे स्वास्थ्य तंत्र को उठानी पड़ती है. दुनिया की आधी से अधिक आबादी मात्र 18 देशों में रहती है, लेकिन इन देशों में मरीजों को चिकित्सकों से परामर्श के लिए पांच मिनट से भी कम का वक्त मिलता है.
ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बीएमसी) का अध्ययन बताता है कि भारत में मरीजों को परामर्श के लिए डॉक्टर औसतन दो मिनट का वक्त देते हैं. इसके उलट स्वीडन और अमेरिका जैसे देश भी हैं, जहां डॉक्टर मरीजों को औसतन 20 मिनट देते हैं. हालांकि, भारत में मरीजों की भीड़ और प्राथमिक देखभाल के लिए चिकित्सकों की कमी भी इसके बड़े कारण हैं.
क्लिनिकों और अस्पतालों में ठीक से शारीरिक परीक्षण करने के बजाय या तो लक्षणों को ऊपरी तौर पर देखकर इलाज किया जाता है या फिर कई तरह की जांच का निर्देश दे दिया जाता है. दुर्भाग्य की बात है कि बड़ी संख्या में डॉक्टर और क्लिनिक रोगियों के उपचार को कर्तव्य और सेवा के रूप में नहीं, बल्कि कमाई के रूप में देखते हैं. सार्वजनिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने की दिशा में नयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2017, ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन सिस्टम (ओआरएस) की सुविधा के साथ इ-हॉस्पिटल, नेशनल फार्मास्युटिकल्स प्राइसिंग ऑथोरिटी जैसी पहलें उम्मीद जगानेवाली हैं, लेकिन सार्वजनिक स्वास्थ्य में संरचनागत सुधार के लिए अभी बहुत सोचने-करने की जरूरत है. हमारे देश में लगभग 70 फीसदी स्वास्थ्य सेवाएं निजी क्षेत्र द्वारा उपलब्ध करायी जाती हैं, जो नियमन की परिधि से कमोबेश बाहर हैं.
इन समस्याओं से निबटने के लिए प्रभावी कदम उठाना जरूरी है, चाहे वह राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति- 2015 द्वारा प्रस्तावित 2020 तक स्वास्थ्य खर्च की जीडीपी का 2.5 प्रतिशत करने की बात हो या नीति आयोग द्वारा प्रस्तावित सार्वजनिक-निजी क्षेत्र भागीदारी की बात हो.
सवा अरब से ज्यादा आबादी वाले देश में 10,22,859 चिकित्सकों की उपलब्धता निश्चित ही बहुत कम है. यह भी सुनिश्चित करना जरूरी है कि चिकित्सक मरीजों पर अधिक ध्यान दें और उनकी परेशानी को समझें. ऐसी संवेदनशीलता रोगियों को आश्वस्त भी करेगी और रोग के बढ़ने, अधिक खर्च जैसी मुश्किलें भी कम होंगी.
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