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नोटबंदी का हिसाब

नोटबंदी के एक साल बाद तीन तथ्य निर्विवाद होकर उभरे हैं. एक, यह फैसला बेहद गोपनीय स्तर पर लिया गया था. कुछ शीर्षस्थ व्यक्तियों के अलावा किसी को इसकी भनक न लग सकी थी. दूसरा, जितने नोट फैसले के कारण चलन से बाहर हुए, उनका 99 फीसदी हिस्सा नये नोटों की शक्ल में मुद्रा प्रवाह […]

नोटबंदी के एक साल बाद तीन तथ्य निर्विवाद होकर उभरे हैं. एक, यह फैसला बेहद गोपनीय स्तर पर लिया गया था. कुछ शीर्षस्थ व्यक्तियों के अलावा किसी को इसकी भनक न लग सकी थी. दूसरा, जितने नोट फैसले के कारण चलन से बाहर हुए, उनका 99 फीसदी हिस्सा नये नोटों की शक्ल में मुद्रा प्रवाह में आ चुका है.
और, तीसरा तथ्य यह कि नोटबंदी के बाद के समय में आयकर विभाग कर चोरी को रोकने की मंशा से लगभग 70 हजार कारोबारी इकाइयों को नोटिस जारी करने जा रहा है, क्योंकि नोटबंदी के दौरान नगदी जमा कराने की सुविधा का इनके द्वारा दुरुपयोग किये जाने का संदेह है. नोटबंदी के बारे में राय इन्हीं तथ्यों के आधार पर बनाना सही होगा. बाकी ज्यादातर तथ्य तो बहस के मुद्दे हैं.
मसलन, यह कहना कि नोटबंदी के कारण कारोबार सुस्त पड़ गया, आर्थिक वृद्धि दर पर असर पड़ा, असंगठित क्षेत्र नकदी की किल्लत के कारण अपेक्षित परिमाण में उत्पादन-विपणन नहीं कर सका, सो रोजगार के मौके कम हुए- ये सब तथ्य विचारणीय हैं, परंतु इन पर राय एक-सी नहीं है.
राजनीतिक विपक्ष या फिर जन-सरोकारी अर्थशास्त्री कह सकते हैं कि नोटबंदी के फैसले ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मुश्किल में डाला, जबकि सत्ता पक्ष तथा नीति आयोग जैसी संस्थाओं की ओर से कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था की सुस्ती के लक्षण स्थायी नहीं हैं और यह असल में उपचार के बाद की हालत का संकेतक है, इसलिए दूरगामी प्रभाव सकारात्मक रहेगा. एक सवाल यह है कि क्या किसी लोकतंत्र में व्यापक रूप से प्रभावित करनेवाला कोई बड़ा फैसला गुपचुप लिया जा सकता है?
इस सवाल में दम है, लेकिन नीतिगत स्तर पर गोपनीयता नहीं बरती गयी थी और तमाम संबद्ध पक्षों से सलाह ली गयी थी. गोपनीयता रणनीति के स्तर पर थी. लेकिन, तथ्य यह भी है कि 99 फीसदी नोट मुद्रा प्रवाह में वापस आ गये हैं, तो क्या माना जाये कि नोटबंदी का मुख्य उद्देश्य पूरा नहीं हुआ? तुरंता नतीजे को तरजीह दें, तो इस सवाल का जवाब होगा ‘हां’, और अगर संस्थागत तैयारी के एेतबार से सोचें, तो इसका जवाब होगा ‘ना’.
लगभग सभी नोटों के मुद्रा-प्रवाह में चले आने का मतलब यह नहीं है कि आगे भी करवंचना का खेल पहले की तरह ही जारी रहेगा. सरकार ने सतर्कता और निगरानी के लिहाज से कई बुनियादी सुधार किये हैं. डिजिटल लेन-देन का बढ़ना अगर इसका एक संकेत है, तो आयकर विभाग की मुस्तैदी दूसरा संकेत है.
सो, नोटबंदी पर कोई भी निश्चित राय बनाने से पहले बतौर नागरिक अपने अधिकार और कर्तव्यों के हिसाब से अपने अनुभवों को परखना जरूरी है. हां, नकदी जमा करने या लेने जैसी बातों में लोगों की परेशानियों का ख्याल करते हुए सुविधाएं तैयार की जातीं, तो आम जन को सहूलियत होती.

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