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नियमगिरि जिंदाबान

कल तक आधुनिक सभ्यता की चिंताओं से दूर ओड़िशा की नियमगिरि पहाड़ी और यहां निवास करनेवाले डोंगरिया कोंध आदिवासी आज भारत ही नहीं, दुनियाभर में चर्चा के केंद्र में हैं. नियमगिरि पहाड़ी पर ब्रिटेन की वेदांता कंपनी की खनन परियोजना के खिलाफ डोंगरिया आदिवासियों के संघर्ष और उसमें मिली जीत को पूरी दुनिया हैरत से […]

कल तक आधुनिक सभ्यता की चिंताओं से दूर ओड़िशा की नियमगिरि पहाड़ी और यहां निवास करनेवाले डोंगरिया कोंध आदिवासी आज भारत ही नहीं, दुनियाभर में चर्चा के केंद्र में हैं. नियमगिरि पहाड़ी पर ब्रिटेन की वेदांता कंपनी की खनन परियोजना के खिलाफ डोंगरिया आदिवासियों के संघर्ष और उसमें मिली जीत को पूरी दुनिया हैरत से देख रही है. डोंगरिया कोंध आदिवासियों के जीवन, उनके संघर्ष को संजीदगी से देखने की कोशिश कर रहे हैं अभिषेक श्रीवास्तव, जो उस आखिरी ग्रामसभा के प्रत्यक्षदर्शी थे, जिसमें डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने एक स्वर में वेदांता की खनन परियोजना को खारिज कर दिया.

सोमवार 19 अगस्त, 2013 का दिन उस गांव के लिए शायद उसके अब तक के इतिहास में सबसे खास था. आंध्र प्रदेश की सीमा से लगने वाले ओड़िशा के आखिरी जिले रायगढ़ा से 60 किलोमीटर उत्तर में नियमगिरि के जंगलों के बीच ऊंघता सा गांव जरपा- जो पहली बार एक साथ करीब पांच सौ से ज्यादा मेहमानों के स्वागत के लिए रात से ही जगा था. सबसे पहले आये कुछ आदिवासी कार्यकर्ता और उनकी सांस्कृतिक टीम. फिर दो-चार पत्रकार और कैमरामैन. और पीछे-पीछे सीआरपीएफ के जवानों की भारी कतार. एक के बाद एक इनसास राइफलों से लेकर क्लाशनिकोव और मोर्टार व लॉन्चर कंधे पर लादे हुए, गोया कोई सैन्य ऑपरेशन शुरू होने जा रहा हो. घने जंगलों के बीच झाड़ियों में इन जवानों ने अपनी पोजीशन ले ली थी.

ओड़िशा पुलिस अलग से आबादी के बीच घुली-मिली सब पर निगाह रखे हुए थी. सरकार द्वारा तैनात ठिगने कद का एक जिला न्यायाधीश प्लास्टिक की कुर्सी पर टिका था और उसके कारकुन आगे के आयोजन के लिए तंबू गाड़ रहे थे. टीवी कैमरे डोंगरिया कोंध के विचित्र चेहरों और साज-सज्जा को कैद करने में चौतरफा दौड़ रहे थे जबकि नौजवान आदिवासी लड़कियां बची-खुची खाली कोठरियों में अपना मुंह छुपा रही थीं. यह ‘जरपा लाइव’ था, फिल्म से कहीं बड़ा यथार्थ और फिल्म से भी ज्यादा नाटकीय. और ये सब कुछ किसके लिए हो रहा था? एक विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनी के लिए, जिसे यहां के जंगल चाहिए, पहाड़ चाहिए और उनके भीतर बरसों से दबा हुआ करोड़ों टन बॉक्साइट चाहिए.

वेदांता- यह नाम सुनते ही नियमगिरि पर्वत में रहने वाले दस हजार डोंगरिया, झरनिया और कुटिया कोंध आदिवासी अपनी ‘ट्रेडमार्क’ टांगिया (कुल्हाड़ी) चमकाने लगते हैं. शायद पीढ़ियों के अपने अस्तित्व में इन डोंगरिया कोंध आदिवासियों ने अनास्था के पर्याय के तौर पर कोई इकलौता शब्द चुना है तो वो है वेदांता. इस दुश्मन से विरोध जताने के लिए और हमखयालों की पहचान के लिए इनकी ‘कुई’ भाषा को पिछले कुछ वर्षों में एक और शब्द मिला है —‘जिंदाबान’ (ये जिंदाबाद नहीं बोलते). कुल मिलाकर मामला ये है कि लंदन की कंपनी वेदांता को यहां से कुछ किलोमीटर नीचे लांजीगढ़ में अपनी एल्युमीनियम रिफाइनरी चलानी है जिसके लिए बॉक्साइट उसे नियमगिरि के पहाड़ों से निकालना है.

नियमगिरि की श्रृंखला कोरापुट, कालाहांडी, बोलांगीर और रायगढ़ा नाम के निर्धनतम जिलों को पालती है. इससे यहां के लोगों को पानी मिलता है, फल-फूल मिलते हैं, लकड़ी, वनोत्पाद, धान, मक्का, औषधियां सब कुछ मिलता है. खेतों की कुदरती सिंचाई जिस तरह यहां के पहाड़ों से होती है, ऐसा उदाहरण शायद देश में कहीं और न मिले. इन पहाड़ों को आज तक किसी ने नहीं छुआ. ये अपने अस्तित्व के पूरेपन में बिल्कुल अक्षत रूप में यहां खड़े हैं. यहां जिंदगी बेरोकटोक अपनी गति से ठीकठाक चलती रही है, बावजूद इसके कि मुख्यधारा के समाज की तुलना में इसे हमेशा से सबसे गरीब कहा जाता रहा. कभी सरकार ने केबीके (कोरापुट, कालाहांडी, बोलांगीर) प्रोजेक्ट चलाया तो कभी इंटिग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी ने अपने पैर पसारे, लेकिन इन सब योजनाओं की परिणति दरअसल आज ‘वेदांता बनाम नियमगिरि के’ इकलौते संघर्ष में आकर सिमट गयी है.

यह संघर्ष जितना अंतरराष्ट्रीय है उतना ही ज्यादा स्थानीय भी है. एक ओर समरेंद्र दास नाम के एक्टिविस्ट हैं जो लंदन में नियमगिरि के आदिवासियों की आवाज को लगातार उठाते रहे हैं, तो दूसरी ओर रायगढ़ा जिले के मेकेनिकल इंजीनियर राजशेखर हैं जिन्हें नियमगिरि के आदिवासियों के बारे में कुछ भी पता नहीं है, सिवाय इसके कि यहां वेदांता का एक प्लांट लगाया जाना है और इसी से इस क्षेत्र के विकास की राह निकलनी है. रायगढ़ा के लोगों को बिल्कुल अंदाजा नहीं है कि 40,000 करोड़ रुपये के इस निवेश के खिलाफ महज 112 गांवों के आदिवासियों की आवाज इतनी अहम क्यों है. कभी आंध्र के पड़ोसी कस्बे पार्वतीपुरम से उजड़ कर रायगढ़ा में बसे और अब जयपुर की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे 26 साल के युवा इंजीनियर राजशेखर कहते हैं, ‘शहर में कोई इस बारे में बात नहीं करता. सब चाहते हैं कि बस कंपनी का काम शुरू हो ताकि लोगों को रोजगार मिल सके. वैसे भी, वेदांता ने कितना सामाजिक काम इस इलाके में किया है. पता नहीं आदिवासियों को क्या दिक्कत है इससे?’ राजशेखर जिस सामाजिक काम का हवाला दे रहे हैं, वह वेदांता के कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी का हिस्सा है, जिसके तहत प्रोजेक्ट एरिया लांजीगढ़ में डीएवी वेदांता पब्लिक स्कूल, वेदांता अस्पताल और ऐसे ही कई काम शुरू किये गये हैं. करीब से देखने पर हालांकि सच्चाई कुछ और जान पड़ती है.

वेदांता के स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे या तो उसके कर्मचारियों के हैं या फिर उन गैर-आदिवासियों के, जो कंपनी के ठेके-पट्टे पाकर लाभार्थी की श्रेणी में आ गये हैं. वेदांता के अस्पताल के बारे में स्थानीय आदिवासी नेता कुमटी मांझी बताते हैं, ‘यहां जाने से आदिवासी को डर लगता है.’ अस्पताल बाहर से देखने पर सुनसान और उजाड़ दिखता है. सिर्फ एक सिक्योरिटी वाला तैनात है, न तो मरीज और न ही डॉक्टर. लांजीगढ़ के बाजार में ईंटों का एक परिसर है जिस पर वेदांता मार्केट कॉम्प्लेक्स खुदा हुआ है. यह जगह खाली और गंदी है. भीतर मुर्गियों का बसेरा है.

दरअसल, पहाड़ों में खनन के लिए जिन्हें उजाड़ा जाना है, उनके लिए वेदांता के पास कोई योजना नहीं. जिन्हें वेदांता के आने से लाभ मिला है, उनके उजड़ने का कोई सवाल न पहले था और न ही आज है. लांजीगढ़ में प्रवेश करते ही आप अचानक चमचमाती नई मोटरसाइकिलों की भारी संख्या और उस पर बैठे आत्मविश्वासी नौजवानों को देख कर हतप्रभ रह जायेंगे. यह नजारा दस किलोमीटर पीछे तक नहीं था. वहां सिर्फ साइकिलें थीं और कंधे पर टांगियां लटकाये ग्रामीण आदिवासी. यह फर्क नियमगिरि की तलहटी में बसे राजुलगुड़ा गांव से लांजीगढ़ के बीच 20 किलोमीटर के सफर में बिल्कुल साफ दिखता है. लंबे समय तक गरीबी ङोलने और वेदांता के आने से अचानक पैदा हुई विकास की आकांक्षा ने यहां के लोगों में एक मानसिक फांक पैदा कर दी है. नियमगिरि की तलहटी में बसे पात्रगुड़ा गांव के निवासी और साइकिल मरम्मत की दुकान चलाने वाले सूरत के शब्दों में इसे आसानी से समझा जा सकता है, ‘नियमगिरि के जाने का दुख हमें भी है. यह हमारी मां है. लेकिन क्या करें. कंपनी खुलेगी तो ज्यादा साइकिल पंचर होगी, ज्यादा धंधा आयेगा.’

इस बयान में कितनी संवेदना है और कितनी चालाकी, इसे समझने में शायद वक्त लगे. बहरहाल, 19 अगस्त की पल्लीसभा का नतीजा इस देश में विकास को लेकर लोकल बनाम ग्लोबल की बहस में एक नयी लकीर खींच रहा है. जरपा गांव के कुल सात परिवारों के 12 वोटरों ने वेदांता के प्रोजेक्ट को जिला जज एससी मिश्र और सैकड़ों सीआरपीएफ जवानों की मौजूदगी में सिरे से खारिज कर दिया है. सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल में आये निर्देश पर 112 गांवों की राय प्रोजेक्ट पर ली जानी थी. राज्य सरकार ने आदिवासी मंत्रलय और कानून मंत्रलय को ठेंगा दिखाते हुए वेदांता के जमा किये हुए हलफनामे के मुताबिक सबसे कम आबादी वाले सिर्फ 12 गांव इसलिए चुने थे कि उन्हें प्रभावित किया जा सके और फैसला कंपनी के पक्ष में करवाया जा सके. खुद आदिवासी मामलों के मंत्री किशोरचंद्र देव ने अपने साक्षात्कार में इस पर रोष जताया है. लेकिन सच्चाई किसी भी हेरफेर की मोहताज नहीं होती. पासा उलटा पड़ा. वेदांता को 12-0 से हार का मुंह देखना पड़ा है.

फिलहाल तो सारी मोर्टारें और सारे लॉन्चर एक सहज लोकतांत्रिक प्रक्रिया के सामने ध्वस्त होते दिख रहे हैं. जरपा में उत्सव का माहौल है. पल्लीसभा के बाद से ही आदिवासियों के नियम राजा बरसे जा रहे हैं और फिसलन भरी घाटियों में उत्सव के नगाड़े गूंज रहे हैं. डोंगरिया जानते हैं कि यह जीत अधूरी है. यह महज एक पड़ाव है. जरूरी नहीं कि वेदांता चला जाये. मामला अरबों के निवेश का है. नियमगिरि सुरक्षा समिति के नेता लिंगराज आजाद इसीलिए कहते हैं, ‘नियमगिरि को छूने के लिए कंपनी को हजारों लोगों का कत्ल करना होगा और हम अपने देवता, अपनी मां को बचाने के लिए आखिरी दम तक संघर्ष करेंगे.’ जवाब में सैकड़ों चमकदार कुल्हाड़ियां हरे-भरे अकाल को चीरते हुए हवा में लहरा उठती हैं और सबके मुंह से एक ही स्वर फूटता है, ‘नियमगिरि जिंदाबान’.

(रायगढ़ा की आखिरी ग्रामसभा से लौटकर)

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