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आदिवासी और आदि धरम : एक आत्ममंथन

गुंजल इकिर मुंडा वर्तमान में आदिवासी यह मान चुके हैं कि उनकी धार्मिक पहचान विश्व के अन्य स्थापित मतों से अलग है. यह विश्वास मनगढ़ंत या देश बांटने के लिए नहीं है बल्कि तथ्य एवं दार्शनिक पक्ष पर आधारित है. इसे स्व डॉ रामदयाल मुंडा ने अपनी पुस्तक आदि धरम में प्रस्तुत किया है. इसमें […]

गुंजल इकिर मुंडा
वर्तमान में आदिवासी यह मान चुके हैं कि उनकी धार्मिक पहचान विश्व के अन्य स्थापित मतों से अलग है. यह विश्वास मनगढ़ंत या देश बांटने के लिए नहीं है बल्कि तथ्य एवं दार्शनिक पक्ष पर आधारित है. इसे स्व डॉ रामदयाल मुंडा ने अपनी पुस्तक आदि धरम में प्रस्तुत किया है. इसमें आदिवासियों के धर्म की विशेषता को निमA बिंदुओं से चिह्न्ति करते हैं.
प्रकृति के विशिष्ट अवयवों (पहाड़, नदी, जंगल को ही परमेश्वर का प्रतीकात्मक घर मानना.मनुष्य की अमरता में विश्वास करना. यहां प्रतीकात्मक अमरता प्रतिबिंबित है. मृतक की आत्मा की छायारूप में घर वापसी के अनुष्ठान से).
आदमी स्वर्ग, नरक या अन्यत्र नहीं जाता. सामाजिकता ही स्वर्ग है, असामाजिकता नरक.बिना किसी मध्यस्थता (धर्मगुरु, पुरोहित) परमेश्वर से सीधे जुड़ने की स्वतंत्रता. सृष्टि के अन्य अवदानों (सजीव, निर्जीव) के साथ समानता और पारस्परिक सम्मान बोध के आधार पर सहअस्तित्व. मनुष्य को सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ मानने की धृष्टता नहीं.
आदिवासियों का धर्म सृष्टि के साथ ही स्वत: स्फूर्त है किसी अवतार, मसीहा या पैगंबर पर आश्रित नहीं. इनके आधार पर भारत के आठ करोड़ आदिवासी अपनी जीवनशैली, धार्मिक अनुष्ठान और सोच सदियों से निर्धारित करते आ रहे हैं.
पिछले एक सदी में भारतीय आदिवासियों की धार्मिक आस्था पर अन्य धर्मो के बढ़ते प्रभुत्व के कारण धार्मिक पुनर्जागरण आंदोलन शुरू करने की जरूरत महसूस हुई. इसी कारण अरुणाचल प्रदेश में दोनी पोलो, असम के बोडो आदिवासियों के बीच बथाउ, मेघालय के आदिवासियों के बीच खासी धर्म, नियामतरे, सनमाही, सोंसारेक, नागा आदिवासियों के बीच हेराका, मध्य भारत के गोंड आदिवासियों के बीच गोंडी धर्म, झारखंड के आदिवासियों के बीच सरना, सवंसार और सारि धर्म के नाम से देश के विभिन्न हिस्सों में धार्मिक आंदोलन चलाये गये. इनमें दोनी पोलो सबसे संगठित एवं साहित्यिक रूप से समृद्ध, सरना सांख्यिक रूप से सबसे अधिक (2001 की जनसंख्या के अनुसार 40,75, 246 की जनसंख्या) तथा गोंडी धर्म सांख्यिक रूप से सबसे तेजी से बढ़ता हुआ धर्म है.
इन सारे धार्मिक आंदोलन को एकजुट करने की पहल सर्वप्रथम डॉ रामदयाल मुंडा ने अपने पेपर आदि धरम भारतीय आदिवासियों की धार्मिक आस्थाएं (एक प्रारंभिक रूपरेखा) में की. इस पेपर में उन्होंने उपरोक्त सात बिंदुओं के आधार पर भारत के सारे आदिवासी धर्मो का एक सार्वभौमिक नाम- आदि धरम रखने का प्रस्ताव रखा. तर्क यह है कि भारत के आदिवासी तथा उनके साथ रहते आ रहे मूलनिवासियों की धार्मिक मान्यताएं उन सात बिंदुओं के इर्द-गिर्द घूमती है.
चूंकि आदिवासी आदि काल से निवास करनेवाले हैं, अत: उनके धरम को आदि धरम कहा जाये. डॉ मुंडा को क्षेत्रीय आदिवासी धर्मो की स्वायत्तता का भी ख्याल था. इसलिए उन्होंने सुझाव दिया कि आदि धरम लिखते समय प्रकोष्ठ में अपने क्षेत्रीय आदिवासी धरम-भील, सरना आदि भी लिखे. इससे क्षेत्रीय नाम भी सुरक्षित रहेंगे तथा राष्ट्रीय स्तर पर भी एकता रहेगी.
आज आदिवासी अपनी अनभिज्ञता के कारण आपस में ही उलङो हुए हैं. सरना के नाम से संघर्ष करने वाले अपनी 40 लाख की संख्या पर इतरा रहे हैं, इस बात से अनभिज्ञ हैं कि सरना नाम से संघर्ष नहीं करने वालों की संख्या उनसे कहीं ज्यादा है.
गोंड खुद को भारत के सबसे बड़े आदिवासी समुदाय के होने से खुश है. उत्तर पूर्व के आदिवासियों की सोच भी अपने क्षेत्र तक ही सीमित है.
अभी जरूरत है अपनी सोच को बड़ा करने की. सारे आदिवासियों को एक मंच पर आने की. आज के संदर्भ में उस एक मंच का नाम आदि धरम से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता. अपनी बातें एक अफ्रीकी कहावत से अंत करना चाहूंगा जिसका हिंदी अनुवाद इस प्रकार होगा.
अगर हो हड़बड़ी तो अकेला ही सही, अगर जाना हो दूर, तो दूसरों को साथ लेना जरूर. मेरे हिसाब से अभी आदिवासी समाज को बहुत दूर जाना है और बुद्धिमानी सारे लोगों को साथ लेकर चलने में है.
(लेखक संस्कृतिकर्मी व स्व रामदयाल मुंडा के पुत्र हैं)

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