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बेघर मनोरोगियों के लिए झारखंड में घर की व्यवस्था नहीं, यूं ही सड़कों पर घूमते आ जाते हैं नजर, पढ़ें खास रिपोर्ट

मनोज सिंह रांची : झारखंड में दो सरकारी मनोचिकित्सा संस्थान हैं. एक केंद्र सरकार का (सीअाइपी) और एक राज्य सरकार का (रिनपास). वहीं, एक निजी आवासीय मनोचिकित्सा संस्थान भी संचालित है. इसके अतिरिक्त कोई भी ऐसा संस्थान नहीं है, जहां बेघर मनोरोगियों को रखा जा सके. ऐसे लोग सड़कों पर घूमते नजर आ जाते हैं. […]

मनोज सिंह

रांची : झारखंड में दो सरकारी मनोचिकित्सा संस्थान हैं. एक केंद्र सरकार का (सीअाइपी) और एक राज्य सरकार का (रिनपास). वहीं, एक निजी आवासीय मनोचिकित्सा संस्थान भी संचालित है. इसके अतिरिक्त कोई भी ऐसा संस्थान नहीं है, जहां बेघर मनोरोगियों को रखा जा सके. ऐसे लोग सड़कों पर घूमते नजर आ जाते हैं. नेशनल मेंटल हेल्थ सर्वे (एनएमएचएस) ने अपनी रिपोर्ट में इसका जिक्र भी किया है. यह सर्वे भारत सरकार ने 2016 में कराया था. इसमें झारखंड के साथ-साथ अन्य राज्यों में भी बेघर मनोरोगियों के लिए कोई सुविधा नहीं होने की बात कही गयी है. सर्वे के दौरान झारखंड की टीम ने बताया था कि करीब 500 ऐसे बेघर मनोरोगी राज्य में हो सकते हैं. ऐसे मरीज ज्यादातर शहरों में पाये जाते हैं.

झारखंड के प्रतिनिधि ने कहा है कि झारखंड में ऐसे मरीजों के पुनर्वास के लिए कोई संस्थान नहीं है. यह भी बताया कि कुछ समय के लिए ऐसे मरीजों को रखने का काम कुछ एनजीओ कर रहे हैं, लेकिन इनकी स्थायी व्यवस्था नहीं है. अस्पतालों में भर्ती मरीजों की व्यवस्था भी कुछ दिनों के लिए होती है. ऐसे में वे अस्पताल से निकलकर फिर सड़कों पर आ जाते हैं. समाज की भागीदारी भी बहुत कम है. वे बहुत अधिक पुलिस को खबर कर सकते हैं.

आज भी कम नहीं है मनोरोग को लेकर भ्रांतियां : रिपोर्ट में जिक्र किया गया है कि मनोरोग को लेकर समाज की भ्रांतियां अभी भी कम नहीं wहैं. कई दशक से मेंटल हेल्थ प्रोग्राम चल रहे हैं, लेकिन इसका असर समाज पर बहुत कम हुआ है. पुलिस भी ऐसे मरीजों के साथ कैसे व्यवहार करे, इसकी समझ कम है.

अस्पतालों में आधार देख कर भर्ती किये जाते हैं मनोरोगी
सरकारी अस्पतालों में तीन माह तक के लिए भर्ती का प्रावधान है. इसके बाद मरीज को उनके अभिभावकों को ले जाने के लिए कहा जाता है. नहीं ले जाने की स्थिति में मरीजों को उनके घर पहुंचा दिया जाता है. इस मामले में अस्पताल प्रबंधन का कहना है कि अस्पतालों में मरीजों को रखने की क्षमता नहीं है. बेघर मरीजों के लिए सरकार के स्तर से कोई सहयोग भी नहीं मिलता है. इसके बावजूद वैसे मरीज जो जिला प्रशासन द्वारा भेजे जाते हैं, उनको भर्ती किया जाता है.
सामाजिक पूछ नहीं रह जाती
सर्वे के दौरान पाया गया है कि मनोरोग होने के बाद उनकी समाज में पूछ नहीं रह जाती है. उनको नौकरी नहीं मिल पाती है. उनको काम के लायक नहीं माना जाता है. उनकी शादी नहीं हो पाती है. कई स्थानों में शादी टूट जाने की शिकायत भी मिली है.
कई नामों से पुकारने लगता है मनोरोगियों को समाज
मनोरोगियों को कई नामों से लोग पुकारने लगते हैं. सर्वे में पाया गया था कि सबसे अधिक नामों से मनोरोगियों को मणिपुर में लोग बोलने लगते हैं. झारखंड में मनोरोगियों को पागल, कांके रिटर्न, घसकल, स्क्रू ढीला, दिमाग घसकउा, पागलपन, सठिया गया भी बोला जाता है.
केएमएसी ने शुरू की थी व्यवस्था
कस्तूरबा गांधी मेडिकल इंस्टीट्यूट मणिपाल ने ऐसे मरीजों के लिए होंबूलेकू नाम से एक सेंटर खोला था. यहां बेघर मरीजों को रखा जाता था. डॉ पीवीएन शर्मा की देखरेख में संचालन हो रहा था. यहां सेवा देने वाले डॉ सिद्धार्थ सिन्हा बताते हैं कि कुछ महीनों में यहां वेटिंग शुरू हो गयी थी. लंबे समय तक रखे जाने वाले मरीजों की संख्या बढ़ गयी थी. देश के अन्य राज्यों के पास इस तरह की सुविधा नहीं है. निजी संस्थान भी ऐसे मरीजों के लिए व्यवस्था शुरू कर सकते हैं.
इन्हें इलाज की है जरूरत
11.40 करोड़ लोग हैं मनोरोग से पीड़ित
5.50 करोड़ लोगों में इंटेलेक्चुअल डिसेबिलिटी
1.15 करोड़ युवाओं (13 से 17 साल के ) में मनोरोग के लक्षण
75 लाख लोगों में आत्महत्या की अधिक संभावना

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