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दिव्यांगों को स्वाभिमान के साथ जीना सीखा रहे दिव्यांग जाहिद-खुर्शीद

– रांची में दिव्यांग को देखा था भीख मांगते, कमजोरी को ताकत बनाने की थी जिद गुरुस्वरूप मिश्रा जाहिद अंसारी (30 वर्ष) और खुर्शीद आलम (42 वर्ष). ये दोनों दिव्यांग हैं, लेकिन इनका हौसला दिव्यांगता पर भारी है. कांके प्रखंड के दिव्यांगों की ये ताकत हैं. आज की भागदौड़ की जिंदगी में किसी के पास […]

– रांची में दिव्यांग को देखा था भीख मांगते, कमजोरी को ताकत बनाने की थी जिद

गुरुस्वरूप मिश्रा

जाहिद अंसारी (30 वर्ष) और खुर्शीद आलम (42 वर्ष). ये दोनों दिव्यांग हैं, लेकिन इनका हौसला दिव्यांगता पर भारी है. कांके प्रखंड के दिव्यांगों की ये ताकत हैं. आज की भागदौड़ की जिंदगी में किसी के पास वक्त नहीं है, लेकिन दिव्यांगों की मदद को हमेशा तत्पर रहते हैं जाहिद. खुर्शीद ने रांची में दिव्यांग को भीख मांगते देखा था, तभी से कमजोरी को ताकत बनाने की जिद थी. जाहिद ने इनका साथ दिया और आज ये स्वाभिमान के साथ दिव्यांगों को जीना सीखा रहे हैं.

वरदान साबित हो रही जाहिद-खुर्शीद की जोड़ी

बीस साल पहले की बात है. राजधानी रांची में खुर्शीद आलम ने ट्राई साइकिल पर एक दिव्यांग को भीख मांगते देखा था. उसी वक्त उन्होंने दिव्यांगता की कमजोरी को ताकत बनाने का इरादा कर लिया था. दिव्यांग होने के बावजूद उन्होंने कांके क्षेत्र के 25 गांवों में अपनी ट्राई साइकिल से सर्वे किया और करीब 100 दिव्यांगों को नि:शक्तता पेंशन समेत अन्य सुविधाएं दिलाने का प्रयास करने लगे. वर्ष 2004 में विश्व दिव्यांगता दिवस पर वह जाहिद अंसारी से मिले. इसके बाद इनकी कोशिश रंग लायी. करीब 100 गांवों में भ्रमण कर अब तक 1100 दिव्यांगों को पेंशन समेत अन्य सुविधाएं दिला चुके हैं. जाहिद-खुर्शीद की जोड़ी दिव्यांगों के लिए वरदान साबित हो रही है.

दिव्यांग ही समझ सकता है दिव्यांगों का दर्द

स्नातक पास खुर्शीद पिठोरिया के सेमरटोली के रहने वाले हैं. पांचवीं तक पढ़े जाहिद पिठोरिया के नावाडीह (भागलपुर टोला) के हैं. वह कहते हैं कि दिव्यांगता का दर्द उन्होंने झेला है. खासकर ग्रामीण इलाकों में तो उन्हें बोझ ही समझा जाता है. जाहिद कहते हैं कि बचपन के दिनों में जब कोई उन्हें लंगड़ा कहता था, तो बर्दाश्त नहीं कर पाते थे. लोग देखकर हंसेंगे, इस कारण वह घर से बाहर नहीं निकलते थे. खुर्शीद कहते हैं कि दिव्यांग को कोई आदमी नहीं समझता. आम आदमी की क्या कहें, जब पढ़े-लिखे अधिकारियों ने एक कुआं के लिए उन्हें रुला दिया था. आखिरकार उन्होंने दिव्यांगों की ताकत बनने का फैसला किया.

विकलांग राहत सेवा संघ से कर रहे मदद

वर्ष 2003 में विकलांग राहत सेवा संघ का गठन किया गया, ताकि दिव्यांगों को मदद की जा सके. किसान परिवार से होने के कारण आर्थिक तंगी थी. इसके बावजूद हौसले की बदौलत मदद का सिलसिला जारी है. खुर्शीद अब बतौर पारा शिक्षक कार्य कर रहे हैं, जबकि जाहिद अब भी सेवा में समर्पित हैं.

दिव्यांगों के दर्द पर लगाया मरहम

एक हजार दिव्यांगों को स्वामी विवेकानंद नि:शक्तता पेंशन, 100 को सामाजिक सुरक्षा पेंशन, पांच सौ को कृत्रिम अंग, ढाई सौ को इंदिरा आवास एवं आठ को गौपालन के तहत गाय दिलाया गया. ढाई सौ को ट्राई साइकिल व बैसाखी, 10 को ब्लाइंड स्टिक, 50 को श्रवण यंत्र दिलवाया. एक हजार दिव्यांगों को प्रमाण पत्र बनवाने में मदद की. आज भी जाहिद एक फोन पर मदद को हाजिर रहते हैं. इन्हें अक्सर सदर अस्पताल व कांके प्रखंड कार्यालय में दिव्यांगों की आवाज बनते देखा जा सकता है.

उत्साह बढ़ाने की कोशिश : खुर्शीद आलम

खुर्शीद आलम कहते हैं कि खुद के पैसे से 5 फरवरी को हर वर्ष वार्षिकोत्सव का आयोजन कर दिव्यांगों को जागरूक करने का प्रयास किया जाता है. इस दौरान सम्मानित कर उनका उत्साह बढ़ाने की कोशिश की जाती है. सरकार मदद करती, तो बेहतर कार्य कर पाते.

दिव्यांगों को चाहिए हुनर से रोजगार : जाहिद अंसारी

जाहिद अंसारी कहते हैं कि दिव्यांगों को हुनरमंद बनाकर रोजगार देने की जरूरत है. हवाई घोषणाएं कर दी जाती हैं, लेकिन उसका लाभ इन्हें नहीं मिल पाता है. व्यवसाय के लिए लोन भी नहीं मिल पा रहा है. हुनर के बाद भी रोजगार नहीं मिल रहा. रोजी-रोटी के लिए आर्थिक मजबूती जरूरी है.

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