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पूर्वजों यानी पितरों को श्रद्धा के तर्पण का पक्ष है पितृपक्ष, …जानें महात्म्य और कब से शुरू हो रहा पितृपक्ष ?

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष के नाम से विख्यात है. इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पूर्वजों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं. पिता-माता आदि पारिवारिक सदस्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किये जानेवाले कर्म को श्राद्ध कहते हैं. श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ […]

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या पंद्रह दिन पितृपक्ष के नाम से विख्यात है. इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पूर्वजों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं. पिता-माता आदि पारिवारिक सदस्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किये जानेवाले कर्म को श्राद्ध कहते हैं. श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ अर्थात जो श्रद्धा से किया जाये, वह श्राद्ध है. भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाये, वह श्राद्ध है. आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या के पंद्रह दिन पितृपक्ष कहलाता है. इन 15 दिनों में पितरों का श्राद्ध किया जाता है और उनका आशीर्वाद लिया जाता है. इस बार 14 सितंबर से 28 सितंबर तक पितृपक्ष रहेगा. 14 सितंबर को पूर्णिमा प्रातः 09:03 तक है, इसके बाद प्रतिपदा श्राद्ध, महालयारंभ, पितृपक्षारंभ शुरू जायेगा.

पितृपक्ष का पारिवारिक संदर्भ

पितृपक्ष का श्राद्ध मूलतः एक पारिवारिक कृत्य है. भारतीय सनातन परंपरा में अपने दिवंगत माता-पिता के लिए प्रतिवर्ष पितृपक्ष में तर्पण एवं पिंडदान करने का शास्त्रीय विधान है. वैसे एक द्विज के लिए यह दैनिक कृत्य है. आज भी एक सुपुत्र की यह इच्छा रहती है कि वह अपने दिवंगत माता-पिता के लिए ऐसा करे.

दिवंगत माता-पिता के लिए भारतवर्ष में अनेक ऐसे पावन स्थल हैं, जहां उनका पिंडदान किया जाता है. परंतु, शास्त्र ने इस कार्य के लिए गया धाम को सर्वोत्तम माना है. ऐसी मान्यता है कि आश्विन मास में सूर्य के कन्या राशि पर अवस्थित होने पर यमराज पितरों को यमालय से मुक्त कर देते हैं. पितर पृथ्वी पर आकर यह इच्छा करते हैं कि उनके पुत्र गया क्षेत्र में आकर पिंडदान करें, ताकि हम पितरों को नारकीय जीवन से मुक्ति मिले- काक्षान्तिपितरः पुत्रान् नरकादप्यभीरवः (वायुपुराण 105/8).

गयां यास्यति यः पुत्रः स नस्त्राताभविष्यति।।

गया श्रद्धात्प्रमुच्यन्तेपितरो भवसागरात्।

गदाधरनुग्रहेण ये यान्ति परमांगतिम्।। (वायुपुराण 105/9).

अर्थात् गया-श्राद्ध से पितर भवसागर से पार हो जाता है और गदाधर के अनुग्रह से परमगति को प्राप्त होते हैं.

पितृगण कहते हैं कि जो पुत्र गया-यात्रा करेगा, वह हम सबको इस दुःख सागर से तार देगा. इतना ही नहीं, इस तीर्थ में अपने पैरों से भी जल को स्पर्शकर पुत्र हमें क्या नहीं दे देगा-पदभ्यामपि जलं स्पृष्ट्वा सोऽस्मभ्यं किं न दास्यति।। (वायुपुराण 105/9).

यहां तक कहा गया है कि श्राद्ध करने की दृष्टि से पुत्र को गया में आया देख कर पितृगण अत्यंत प्रसन्न होकर उत्सव मनाते है- गयां प्राप्तं सुतं दृष्ट्वा पितृणामुत्सवो भवेत्। (वायुपुराण 105/9).

शास्त्रों में ऐसे अनेक उद्धरण हैं. इसी पारिवारिक पावन परंपरा के निर्वहण के लिए परशुरामजी ने गया में श्राद्ध किया था. मत्स्य पुराण (12/17). ब्रह्म पुराण (3/13/104), वायुपुराण (85/19).

इसी प्रकार भगवान् श्रीराम ने भी अपने पारिवारिक दायित्व का निर्वहण करते हुए गयाधाम में अपने पिता महाराज दशरथ के लिए पिंडदान किया था. गरुड़ पुराण (अध्याय-143), शिवपुराण (ज्ञानखंड अध्याय 130), आनंदरामायण आदि में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है. यह बहुत प्रसिद्ध कथा है. गया धाम में वह स्थल सीताकुंड के नाम से आज भी विख्यात है.

इस प्रकार गया धाम में पुत्र अपने पूर्वजों को पिंडदान और तर्पण के माध्यम से पारिवारिक दायित्व का निर्वहण करते हुए अपने माता-पिता के ऋण से उऋण होता है. इस समय परिवार में एक उत्सव का वातावरण होता है. सबके मन में यह भाव रहता है कि वह आज उस पिता, पितामह, प्रपितामह के उस ऋण से मुक्त हो रहा है, जिसके कारण आज वह धन, जन, बल, बुद्धि, विद्या, आयु, आरोग्य सबसे परिपूर्ण है. इस पितृयज्ञ के माध्यम से वह ना केवल वर्तमान को, वरन् पूरी तीन पीढ़ियों को अपने पारिवारिक परिवेश में सम्मिलित कर आनंदित होता है.

एक बात ध्यान देने योग्य है कि आज परिवार का वह सदस्य, जो पुत्र रूप में यह कार्य कर रहा है, वह अपने पुत्र का पिता भी है. वह अपने पोते का दादा भी है. अर्थात् अपनी जिन दिवंगत तीन पीढ़ियों का वह श्राद्ध कर रहा है, उसके पीछे उतनी ही पीढ़ियां खड़ी हैं. वह दोनों के बीच का सेतु है. आज वह पुत्र के रूप में अपने पिता के प्रति जो श्रद्धा निवेदित कर रहा है, वहां उपस्थित उनका पुत्र इस दायित्व बोध से अवगत होता है. इससे वह भविष्य के लिए प्रेरणा ग्रहण करता है. इस प्रकार संबंध की यह शृंखला सतत चलती रहती है. शृंखला-सेतु बनने का यह पावन अवसर पितृपक्ष ही है. परिवार का वह बाल-सदस्य जो अपने पूर्वजों से अपरिचित है, इस अवसर पर वह कौतूहलवश सबका परिचय पूछता है और जानकर आनंदित होता है. इस प्रकार पारिवारिक संबंधों के सुदृढ़ीकरण में पितृपक्ष की महत्वपूर्ण भूमिका है.

इस पितृयज्ञ में जब तर्पण किया जाता है, तो उसमें पिता, पितामह (दादा), प्रपितामह (परदादा), माता, दादी, परदादी, सौतैली मां, नाना, परनाना, वृद्धपरनाना, नानी, परनानी, वृद्धपरनानी, पत्नी, पुत्री, चाचा, चाची, चचेरा भाई, मामा, मामी, ममेरा भाई, अपना भाई, भाभी, भतीजा, फूफा, फूआ, फूआ का पुत्र, मौसा, मौसी, मौसा का पुत्र, अपनी बहन, बहनोई, भानजा, श्वसुर, सास, सद्गुरु, गुरुपत्नी, शिष्य, संरक्षक, मित्र, सेवक आदि इतने पारिवारिक सदस्यों को नाम-गोत्र के साथ सम्मिलित किये जाते हैं. इससे हमारे मनीषियों द्वारा निर्मित इस श्राद्ध-तर्पण पद्धति की उदारता सहज ही समझी जा सकती है, जिन्होंने पारिवारिक वृत्त के इस वृहत् स्वरूप की रचना की. इस पितृयज्ञ के माध्यम से जिस पारिवारिक सौहार्द, सद्भावना और संबंधों की व्यापकता का परिचय दिया गया है, वह हमारे अतीत के स्वर्णिम भारत के पारिवारिक परिवेश की एक झांकी है. ऐसे ही विस्तृत पारिवारिक परिवेश से मनुष्य का तन, मन और विवेक स्वस्थ, सुंदर, संतुलित और तनाव रहित रह सकता है.

आज के न्यूक्लियर फैमिली सिस्टम में भले ही भौतिक साधन की प्रचुरता हो, उसमें आधुनिक सुख साधन के सारे यंत्र-उपयंत्र हों. सूक्ष्म संयंत्रों से लेकर दूरदर्शन तक की व्यवस्था हो. परंतु, वहां के सारे संबंध जितने ताप-तनाव, कुंठा, संत्रास से संत्रस्त हैं, उसका एकमात्र कारण है उपर्युक्त पारिवारिक संबंधों की व्यापकता का अभाव.

इस प्रकार यह पितृयज्ञ संयुक्त परिवार से भी बड़ा उस परिवार से हमें जोड़ता है, जो किसी-न-किसी रूप से हमसे संबंधित है. पितृपक्ष हमें वर्ष में एकबार उन संबंधों की याद दिलाता है, जिन्हें जीवन की आपाधापी में हम भूलने लगते हैं. इस प्रकार पितृयज्ञ के द्वारा इन पारिवारिक संबंधों का पुनर्नवीकरण होता है.

सचमुच यह एक मनोवैज्ञानिक प्रकिया है. जब हम तर्पण के समय उन्हें मन से याद करते हैं, तो उस समय उनके साथ अपने पारिवारिक संबंधों की याद आती है. उनका रूप-स्वरूप सामने आ जाता है. उससे सहज ही उनके अतीत के सारे सुकृत्य सामने आ जाते हैं. हमारे मन-प्राण भावुक हो जाते हैं. ना केवल हाथ की अंजुलि, वरन् दोनों आंखें भी आंसुओं से तर्पण करने लगती हैं. सच तो यही है कि परिवार ईंट और सीमेंट से बना मात्र एक घर नहीं है, वह इन सात्विक संबंधों का पावन समुच्चय है. इन्हीं संबंधों से एक आदर्श पारिवार को सुरक्षित और संरक्षित रखा जा सकता है.

निष्कर्षतः आज के टूटते-बिखरते पारिवारिक परिवेश में पितृयज्ञ एक संजीवनी की तरह है, जो सभी परिस्थितियों में पारिवारिक संबंधों का कायाकल्प करने की क्षमता रखता है.

(लेख : ज्योतिषाचार्य श्रीपति त्रिपाठी)

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