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बिहार : 2019 के लिए गठबंधन के दलों के बीच सीटों के बंटवारे की चुनौती

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक िवश्लेषक राजग और महागठबंधन अपने घटक दलों के बीच सीटों का बंटवारा किस अनुपात में करेंगे? यह एक बड़ा सवाल है़ याद रहे कि अगले लोकसभा चुनाव को लेकर करीब एक साल पहले से ही राजनीतिक दल तरह-तरह की तैयारियां शुरू कर देते हैं. बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं. […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक िवश्लेषक
राजग और महागठबंधन अपने घटक दलों के बीच सीटों का बंटवारा किस अनुपात में करेंगे? यह एक बड़ा सवाल है़ याद रहे कि अगले लोकसभा चुनाव को लेकर करीब एक साल पहले से ही राजनीतिक दल तरह-तरह की तैयारियां शुरू कर देते हैं. बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं.
राजग के चार घटक दल हैं. भाजपा, जदयू, लोजपा और उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली आरएसएलपी. उधर, राजद के साथ कांग्रेस और कुछ अन्य छोटे दल हैं. जीतन राम मांझी और शरद यादव जैसे प्रमुख नेता भी राजद के साथ हैं. अब लालू प्रसाद पर यह निर्भर करेगा कि वे एनसीपी, बसपा तथा कम्युनिस्ट दलों को भी साथ लेते हैं या नहीं. वैसे पता नहीं चला है कि गत साल राजग में एक बार फिर शामिल होने के समय इस मुद्दे पर भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से नीतीश कुमार की कोई बातचीत हुई है या नहीं. पर उम्मीद की जाती है कि इन दो दलों के शीर्ष नेतृत्व आपस में बात कर किसी नतीजे पर पहुंच जायेंगे. पर असल समस्या लोजपा और आरएसएलपी के साथ हो सकती है. 2014 के लोकसभा चुनाव के समय राजग में जदयू नहीं था. भाजपा ने लोजपा के लिए सात और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी के लिए चार सीटें छोड़ी थीं. भाजपा ने 29 सीटों पर चुनाव लड़ा था.
राजग ने कुल 31 सीटें जीती थीं. पर 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 15 और जदयू ने 25 सीटों पर लड़कर कुल 32 सीटें हासिल की थी. 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद और जदयू ने आधी-आधी सीटें आपस में बांट ली थी. इससे जदयू के महत्व का पता चलता है.
अब अगली बार ये चार दल सीटों का किस अनुपात में बंटवारा करेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा. कई बार टिकट के बंटवारे के सवाल पर भी गठबंधनों का स्वरूप बनने और बिगड़ने लगता है. चूंकि महागठबंधन के पास लोकसभा की सीटें पहले से बहुत कम हैं, इसलिए वे आपसी बंटवारे में लचीलापन अपनाने की स्थिति हैं. पर सब कुछ राजद की उदारता पर निर्भर करता है. यह काम आसान नहीं है.
सीपीआई को भी मिला था संवेदना वोट का लाभ : 1972 के बिहार विधानसभा चुनाव में दक्षिण बिहार के राम गढ़ क्षेत्र से सीपीआई के मजरूल हसन खान ने चुनाव जीता था. पर चुनाव के तत्काल बाद उनकी हत्या कर दी गयी थी. उपचुनाव हुआ तो सीपीआई ने उनकी पत्नी शहीदुन निशा को वहां से उम्मीदवार बना दिया. वह विजयी रहीं. कम्युनिस्ट पार्टियां आमतौर पर परिवारवाद में विश्वास नहीं करती हैं.
इसके बावजूद यदि उसने दिवंगत की विधवा को खड़ा कराया तो इसलिए ताकि सीट जीतने में कोई दिक्कत नहीं हो. पार्टी के जन समर्थन के साथ-साथ संवेदना-सहानुभति वोट का लाभ भी शहीदुन निशा को मिला था. बिहार में हुए हाल के उपचुनावों में राजद और भाजपा उम्मीदवारों को यदि संवेदना-सहानुभूति का भी चुनावी लाभ मिला तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं.
कदाचार रोकने का भी चुनाव पर असर : पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने हाल में कहा है कि परीक्षा में थोड़ा बहुत पूछ लेना नकल नहीं. योगी सरकार के नकल विरोधी अभियान की आलोचना करते हुए अखिलेश ने यह भी कहा कि ‘90 प्रतिशत लोगों ने अपने छात्र जीवन में परीक्षा में थोड़ी-बहुत पूछताछ की होगी.
मैंने भी की है.’ इस बयान के बाद यह सवाल उठता है कि क्या फूलपुर-गोरखपुर उपचुनाव पर भी नकल विरोधी कदमों का असर पड़ा है? भाजपा उम्मीदवारों की हार का यह भी एक कारण रहा? 1992 में कल्याण सिंह सरकार ने नकल विरोधी कानून बनाया था. कानून बहुत कड़ा था. मुलायम सिंह यादव ने 1993 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इसे एक बड़ा मुद्दा बनाया. उसका चुनावी लाभ भी सपा को मिला. कल्याण सिंह की पार्टी सत्ता से बाहर हो गयी. इन दिनों पूरे देश में नकल माफिया सक्रिय हैं.
इससे प्रतिभाओं का बड़े पैमाने पर हनन हो रहा है. फिर भी सरकारें कारगर कार्रवाई नहीं कर पा रही हैं. क्योंकि उन्हें चुनाव हारने का डर है. कहां जा रहा है अपना देश?
पश्चिम बंगाल की सराहनीय पहल : प्रश्न पत्रों को लीक किये जाने से रोकने के लिए पश्चिम बंगाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने एक खास उपाय किया है. प्रश्न पत्रों के सीलबंद पैकेट्स के स्टिकर पर माइक्रो चीप लगा दिये जायेंगे. उस माइक्रो चीप का संबंध परीक्षा बोर्ड आॅफिस के सर्वर से होगा. जैसे ही सील को तोड़ा जायेगा, उसकी सूचना तत्क्षण बोर्ड आॅफिस को मिल जायेगी. देखना है कि नकल माफिया इस उपाय की कैसी काट निकालते हैं! पर है यह नायाब उपाय!
1989 से पहले के कागजी सबूत अनुपलब्ध : जुलाई, 1997 में चारा घोटाले की जांच कर रही सीबीआई के सूत्रों ने बताया था कि 1989 से पहले के घोटाले की जांच इसलिए नहीं हुई क्योंकि उस अवधि के तत्संबंधी सरकारी दस्तावेज आसानी से उपलब्ध नहीं थे.
कुल घोटाले का 80 प्रतिशत घोटाला 1989 और उसके बाद के वर्षों में हुआ. इस अवधि के आरोपी और कागजात आसानी से उपलब्ध थे. 1977 और 1989 के बीच की अवधि के घोटालों के कागजात व आरोपियों की तलाश में काफी समय लग सकते थे.
साथ ही यह भी आशंका थी कि पता नहीं कि फिर भी वे मिलेंगे या नहीं. सीबीआई सूत्रों ने तब यह भी बताया था कि चारा घोटाले के मुख्य आरोपित डाॅ श्याम बिहारी सिन्हा ने अन्य बातों के अलावा यह भी बताया था कि बिहार के एक पत्रकार को उसने 50 लाख और दूसरे को दस लाख रुपये दिये थे. पर इस लेनदेन का सबूत उपलब्ध नहीं था. यह भी नहीं कि उन लोगों ने इस रुपये के बदले घोटालेबाजों को किस तरह और क्या लाभ पहुंचाया.
एक भूली-बिसरी याद : सर्वोदय नेता जय प्रकाश नारायण ने 1973 में अपने निजी आय-व्यय का विवरण प्रकाशित किया था. वह विवरण साप्ताहिक पत्रिका ‘एवरीमेन’ में छपा था. जेपी के अनुसार रैमन मैगसेसे पुरस्कार के साठ हजार रुपये बैंक में जमा हैं. उसके सूद से मेरा खर्च चलता है.
इसके अलावा सिताब दियारा की अपनी जमीन की पैदावार काम आती है. फर्नीचर मुझे मेरे मित्र डाॅ ज्ञान चंद ने दिया है. बाहर आने-जाने और कपड़ों का खर्च मेरे कुछ मित्र दे दिया करते हैं. दरअसल तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की एक टिप्पणी के जवाब में जेपी ने अपने खर्चे का विवरण प्रकाशित किया था.
इंदिरा जी ने कहा था कि ‘जो लोग अमीरों से पैसे लेते हैं, उन्हें भ्रष्टाचार के बारे में बात करने का कोई अधिकार नहीं.’ इस पर जेपी ने यह भी लिखा था कि ‘अपना पूरा समय समाज सेवा में लगाने वाला ऐसा कार्यकर्ता जिसकी आय का अपना कोई स्रोत न हो, अपने साधन संपन्न करीबी मित्रों की मदद के बिना काम नहीं कर सकता. अगर इंदिरा जी के मापदंड सब जगह लगाये जाएं तो गांधी जी सबसे भ्रष्ट व्यक्ति निकलेंगे, क्योंकि उनके तो पूरे दल की सहायता उनके अमीर प्रशंसक ही करते थे.’
और अंत में : रक्षा मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने कहा है कि बजट प्रावधान सेना की जरूरतों के अनुपात में बहुत कम है. उधर, केंद्र सरकार संसाधनों की कमी का रोना रोती रहती है. जानकार लोग बताते हैं कि इस देश में टैक्स की भारी चोरी के कारण संसाधनों की कमी रहती है.
इस स्थिति में देश की सुरक्षा को लेकर चिंतित रहने वाले नागरिकों से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने आसपास के टैक्स चोरों के बारे में सूचना सरकार व संबंधी एजेंसियों को दें, ताकि देश की सुरक्षा के पुख्ता प्रबंध के लिए पैसों की कमी नहीं रहे.

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