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गांवों में भी खोले जाएं वृद्धाश्रम!

वीरेंद्र नारायण झा लेखक bnjha977@gmail.com इसमें कोई शक नहीं कि भारत आज भी गांवों का देश है, लेकिन आबादी के हिसाब से देखें, तो गांव आज अपनी ही आबादी के लिए तरस रहा है.लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं. दरअसल, आज के समय में लोगों की जरूरतें जब बढ़ रही हैं, ऐसे में […]

वीरेंद्र नारायण झा
लेखक
bnjha977@gmail.com
इसमें कोई शक नहीं कि भारत आज भी गांवों का देश है, लेकिन आबादी के हिसाब से देखें, तो गांव आज अपनी ही आबादी के लिए तरस रहा है.लोग शहर की ओर पलायन कर रहे हैं. दरअसल, आज के समय में लोगों की जरूरतें जब बढ़ रही हैं, ऐसे में कोई भी गांव प्रायः सक्षम नहीं है कि इन्हें अपने बल-बूते पूरी कर सके. अधिकांश जरूरतों के लिए गांव को शहर पर ही निर्भर रहना पड़ता है. इनमें प्रमुख हैं रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और बहुत कुछ.
रोजगार एक अकेला कारण है, जो गांव को अपने ही लोगों से जुदा किये हुए है. एक बार जिसने शहर की ओर रुख किया, सुविधा व सहूलियत की वजह से मानो वहीं का हो गया. वहां छोटा ही सही, उनका अपना आशियाना बन जाता है. बच्चे स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हैं या पार्ट टाइम जॉब करने लगते हैं.
बेटी को पढ़ाना वहां आसान तो है ही, उसे अपने पांव पर खड़ा कराना भी मुमकिन है. गांव में इस सब के लिए कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. ऊपर से अपनी-अपनी जाति की बंदिशें, पुरानी परिपाटी, परंपरा-प्रेम, पर्दा और कुव्यवस्था का झमेला. कुल मिला कर आज अधिकांश गांवों में वृद्ध-लाचार बच गये हैं. या वैसे लोग हैं, जो किसी कारणवश गांव में ही रहने को बाध्य हों.
पहले के समय में संयुक्त परिवार का चलन था. लोग मुख्य रूप से कृषि पर निर्भर थे. आवश्यकता सीमित थी. अन्न-वस्त्र का इंतजाम तो हो जाता था, लेकिन नगद की बहुत कमी रहती थी. कृषि से सारे सदस्यों का भरण-पोषण भी कठिन था. ऐसे में, शिक्षित-अशिक्षत लोगों द्वारा नौकरी-चाकरी की तलाश में शहर की ओर रुख करना शुरू हुआ.
हालांकि, उस वक्त बूढ़े सदस्यों की देख-रेख तथा सेवा में कोई कमी नहीं आयी. सम्मिलित परिवार होने से सदस्यों की संख्या काफी होती थी और एक-दो के शहर जाने से भी परिवार पर कोई असर नहीं पड़ता था.
लेकिन आज के एकल परिवार में वृद्धों की हालत बहुत ही दयनीय हो गयी है. एक तो सदस्य की कमी और दूसरा पड़ोसियों का आपस में सद्भाव व प्रेम का अभाव. फिर शरीर से लाचार-बीमार वृद्ध किसके सहारे बाकी जीवन काटेंगे? वास्तविकता यह है कि गांव का हर परिवार सूना-सूना सा है. टोला-मोहल्ला खाली है, आंगन वीरान है.
गांव में कहते हैं, समांग (आदमी) से ही घर, वरना भूत का घर. पर्व-त्योहार के समय जो थोड़े दिनों के लिए चहल-पहल हुई, आनेवालों के शहर लौटने के बाद फिर वही सन्नाटा. इस स्थिति में बूढ़ों का क्या होगा!
शहर जानेवालों में सभी जाति, संप्रदाय तथा आर्थिक स्थिति के लोग हैं. बड़ा भी छोटा भी. परिणामस्वरूप, देश के लगभग सारे गांव में आज कृषि मजदूरों की कमी है. घरेलू कामकाज के वास्ते कोई आदमी नहीं मिलता. जो है भी, उसे कमाने की जरूरत नहीं रही, क्योंकि उसके बच्चे शहर से उतने पैसे भेज देते हैं कि वह घर बैठे आराम से जिंदगी काटता रहे. अब प्रश्न उठता है कि बूढ़े किसके भरोसे जीएं?
उनकी भी कुछ आवश्यकताएं हैं, रोजमर्रे के काम हैं. दूध, सब्जी, फल, दवा, अखबार, मोबाइल रिचार्ज, बिजली बिल, बैंक, वृद्धा पेंशन एवं अन्य घरेलू चीजें जीने के लिए चाहिए ही. लेकिन आदमी एक भी नहीं. बूढ़े गांव-घर छोड़ नहीं सकते, लेकिन नयी पीढ़ी जमाने के साथ चलना सीख गयी है. यह विश्व में कहीं भी रह सकती है. बशर्ते कि पैसा मिले. वृद्ध माता-पिता को कब तक ढोती रहेगी यह पीढ़ी!
इसलिए इनके लिए माता-पिता को वृद्धा आश्रम में रखना बहुत आसान है, क्योंकि इनके पास अकूत पैसा है, आश्रम का भार वहन करने के वास्ते. और जिनके पास पैसा नहीं है, उनका एक पांव गांव में और दूसरा शहर में. फिर एक दिन माता या पिता की मृत्यु की खबर मिलती है, घर या अस्पताल से.
पश्चिमी देशों के वृद्धा आश्रम की अवधारणा का हमारे यहां लाख विरोध हो, लेकिन वहां के असहाय वृद्धों को अपना जीवन जीने के लिए एक मुकम्मल ठौर तो मिल ही गया है. वहीं भारत में वृद्ध मां-बाप के प्रति आस्था का आदर्श भले ही श्रेष्ठ हो, लेकिन कथनी और करनी में आज भी बहुत अंतर है. गांव हो या शहर, कमोबेश एक ही स्थिति है.
एकल परिवार की वजह से गांव के वृद्ध जहां एकाकी जीवन जीने के लिए बाध्य हों, वहां अगर एक वृद्धाश्रम की परिकल्पना की जाये, तो इसमें क्या बुराई है! आश्रम की आवश्यकता पर कुछ लोग चर्चा करते हैं, लेकिन खुल कर नहीं, क्योंकि वे आज भी गांव की खोखली परंपराओं से लोकलाजवश जुड़े हुए हैं.
चाहे उनके माता-पिता लाख कष्ट झेलें या सेवा-दवा के बगैर प्राण त्याग दें. मृत्योपरांत श्राद्धकर्म के साथ श्राद्धभोज पर लाखों खर्च कर दें, लेकिन जीते जी उन पर खर्च करने में कोताही बरती जाती है. इसके पीछे सोच यह होती है कि मरनेवाले को कौन रोक सकता है. हालांकि, सब की सोच एक सी नहीं होती.
बच्चों की अनुपस्थिति में गांवों में लाचार-बीमार व विकलांग माता-पिता की सेवा कैसे हो, जिससे कि उनका कष्ट दूर तो नहीं, कुछ कम जरूर हो सके? गांव में वृद्धाश्रम की स्थापना ही इस प्रश्न का माकूल जवाब है.
सरकार को गांव वालों के साथ मिल कर इस दिशा में सार्थक कदम उठाना चाहिए. पहले पुरानपंथियों द्वारा ही इसकी आलोचना होगी, लेकिन उनकी संतानें सहयोग जरूर करेंगी, लेकिन हां, वृद्धाश्रम का संचालन गुणवत्तापूर्ण हो, इस पर अधिक ध्यान देना होगा. कई शहरों के आश्रम की स्थिति बहुत दयनीय है. इसलिए इसकी विश्वसनीयता पर सवाल तो उठेंगे ही.

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