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आतंकवाद पर नकेल का नया उपाय

आकार पटेल लेखक एवं स्तंभकार aakar.patel@gmail.com भारत ने अपने आतंकवाद रोधी कानून- ‘गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम’ (यूएपीए)-को संशोधित किया है. ऐसे कानून राज्य को इस हेतु अधिकृत करते हैं कि वह बगैर स्पष्ट आरोप के किसी व्यक्ति को हिरासत में ले सके. इनके अंतर्गत आरोपितों के लिए जमानत हासिल कर पाना भी कठिन हो जाता […]

आकार पटेल

लेखक एवं स्तंभकार

aakar.patel@gmail.com

भारत ने अपने आतंकवाद रोधी कानून- ‘गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम’ (यूएपीए)-को संशोधित किया है. ऐसे कानून राज्य को इस हेतु अधिकृत करते हैं कि वह बगैर स्पष्ट आरोप के किसी व्यक्ति को हिरासत में ले सके. इनके अंतर्गत आरोपितों के लिए जमानत हासिल कर पाना भी कठिन हो जाता है.

इसके अतिरिक्त, ये कानून पुलिस के हाथों में व्यापक अधिकार सौंप देते हैं, जिनके चलते भ्रष्टाचार तथा निरंकुशता को बढ़ावा मिलता है. इतने पर भी इन कानूनों से कोई वास्तविक लाभ नहीं मिल पाता. पंजाब में हिंसक गतिविधियों के बहुत बढ़ जाने पर कांग्रेस ने ‘आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियां (रोकथाम) विधेयक’ यानी ‘टाडा’ लागू किया था.

यह कानून लगभग दस वर्षों तक बना रहा. इसके अंदर हजारों व्यक्ति गिरफ्तार कर जेलों में रखे गये, जिनमें अधिकतर मुस्लिम और सिख थे. मगर इस कानून के अंतर्गत अंततः केवल एक प्रतिशत आरोपित ही दोषसिद्ध हो सके, जिसका अर्थ यह हुआ कि 99 प्रतिशत आरोपित वस्तुतः निर्दोष ही थे.

यह एक अत्यंत कड़ा और अन्यायपूर्ण कानून था, जिसके अंतर्गत आरोपित को ही अपनी दोषहीनता सिद्ध करनी थी. जाहिर है कि यह कानून हमेशा के लिए तो लागू रह नहीं सकता था और इसलिए इसकी अवधि न बढ़ाते हुए इसे अपनी मौत मर जाने दिया गया.

उसके बाद, वर्ष 2002 में इसकी जगह ‘आतंकवाद निरोधक कानून’ यानी ‘पोटा’ लाया गया. इसे भी इस उद्देश्य से कड़ा स्वरूप प्रदान किया गया था कि इससे आतंकवाद का मुकाबला किया जा सकेगा. जैसी सूचना पूर्व केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी ने दी थी, इस कानून के अंतर्गत कुल 4,349 मामले दर्ज किये गये, जिनमें 1,031 में आतंकवाद संबंधी आरोप लगाये गये.

इनमें भी सरकार केवल 13 लोगों को ही दोषसिद्ध कर सकी. निर्दोषों को फंसाने के मामले में पोटा ने टाडा को भी पीछे छोड़ दिया. तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री एलके आडवाणी ने महसूस किया कि इसका दुरुपयोग हो रहा है और इसीलिए इसे निरस्त करने की प्रक्रिया शुरू हुई.

वर्तमान ‘गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम’ (यूएपीए) के संशोधन द्वारा राज्य को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी व्यक्ति को ‘आतंकवादी’ करार दे सकता है. मेरे सहयोगी मृणाल शर्मा के अनुसार, यह उसी अंतरराष्ट्रीय नियम का उल्लंघन है, जिसके विषय में सरकार यह कहती है कि वह उसका अनुपालन कर रही है.

वर्ष 2006 में संयुक्त राष्ट्र के विशिष्ट प्रतिवेदनकर्ता ने यह कहा था कि किसी भी अपराध को एक ‘आतंकवादी कृत्य’ बताने के लिए उसमें तीन तत्व एक साथ मौजूद होने अनिवार्य हैं: उसके द्वारा इस्तेमाल किये जानेवाले साधन का मारक होना, कृत्य के पीछे जनमानस के बीच भय पैदा करने या सरकार या किसी अंतरराष्ट्रीय संगठन को कुछ करने या न करने हेतु बाध्य करने की नीयत एवं किसी सैद्धांतिक लक्ष्य को बढ़ावा देने का उद्देश्य.

दूसरी ओर, यूएपीए एक ‘आतंकवादी कृत्य’ की अत्यंत व्यापक तथा अस्पष्ट परिभाषा देता है, जिसमें किसी व्यक्ति की मृत्यु या उसे चोट पहुंचाने, किसी संपत्ति को क्षति पहुंचाने, आपराधिक बल प्रयोग से किसी लोक कर्मी को भयग्रस्त करने तथा सरकार या किसी व्यक्ति को कुछ करने या न करने को बाध्य करने हेतु किया गया कोई कृत्य शामिल है. इसमें ‘धमकी देने की संभावना’ या ‘लोगों में आतंक पैदा करने की संभावना’ को शामिल करते हुए सरकार को इस हेतु निरंकुश शक्ति दी गयी है कि वह किसी साधारण नागरिक या ‘एक्टिविस्ट’ को ऐसे किसी कृत्य के बगैर ही आतंकवादी घोषित कर सकती है.

यह अधिनियम किसी व्यक्ति की निजता तथा स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करते हुए उस प्रावधान का उल्लंघन करता है, जो उसके साथ किसी मनमाने एवं गैरकानूनी हस्तक्षेप से सुरक्षा प्रदान करता है.

यह सिर्फ किसी पुलिस अधिकारी की निजी जानकारी के आधार पर किसी वरीय न्यायिक प्राधिकार के लिखित अधिकार पत्र के बगैर ही खोजबीन, जब्ती तथा गिरफ्तारी की अनुमति देता है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, वर्ष 2014 और 2016 के बीच यूएपीए के अंतर्गत 75 प्रतिशत से भी अधिक मामलों का अंत दोषमुक्ति या आरोपों की वापसी में हुआ.

पिछले कई वर्षों की अवधि में यह अधिनियम दमन का एक साधन, या राज्य की इच्छानुसार अवधि तक उन्हें जेलों में रखने का हथियार बन गया है. यह संशोधन सरकार को भारी शक्ति सौंप देगा कि वह व्यक्तियों को आतंकवादी बताकर उन्हें फंसा सके, आलोचनात्मक सोच को प्रतिबंधित कर और असहमति को अपराध घोषित कर सके.

पी चिदंबरम ने कहा है कि इस एक्ट में संशोधन के गंभीर नतीजे होंगे. हालांकि, कांग्रेस ने इस कानून में परिवर्तनों के पक्ष में वोट दिये. चिदंबरम ने कहा कि पार्टी इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देगी. संवैधानिक लोकतंत्रों में ऐसे कानून नहीं होने चाहिए, जो राज्य को अपने नागरिकों को प्रताड़ित करने की शक्ति दें. उन सभ्य देशों में, जिनसे भारत ने उनके संविधान एवं कानूनों के अनुकरण किये हैं, आपराधिक न्याय प्रणाली का अर्थ ही है कि वह आरोपित के अधिकारों की रक्षा करे.

साधारण भारतीय नागरिकों के लिए इस अवधारणा को स्वीकार कर पाना कठिन होगा, पर वस्तुतः यही हमारी न्याय प्रणाली का भी आधार है. किसी को बगैर दोषसिद्ध किये आतंकवादी घोषित करने का विचार स्वयं में ही कानून और न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है.

(अनुवाद : विजय नंदन)

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