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अब मुख्यधारा से जुड़े कश्मीर

प्रभु चावला एडिटोरियल डायरेक्टर द न्यू इंडियन एक्सप्रेस prabhuchawla @newindianexpress.com जो असर अंगूर की उपज-भूमि का शराब की किस्म पर होता है, जम्मू और कश्मीर की विशिष्ट स्थिति का भारतीय सियासत की टकरावपूर्ण प्रकृति पर भी वही प्रभाव पड़ा है. पिछले सप्ताह, अमित शाह संसद के मंच से यह उद्घोषित करनेवाले भारत के ऐसे प्रथम […]

प्रभु चावला
एडिटोरियल डायरेक्टर
द न्यू इंडियन एक्सप्रेस
prabhuchawla
@newindianexpress.com
जो असर अंगूर की उपज-भूमि का शराब की किस्म पर होता है, जम्मू और कश्मीर की विशिष्ट स्थिति का भारतीय सियासत की टकरावपूर्ण प्रकृति पर भी वही प्रभाव पड़ा है. पिछले सप्ताह, अमित शाह संसद के मंच से यह उद्घोषित करनेवाले भारत के ऐसे प्रथम गृहमंत्री बन गये कि अनुच्छेद 370 सिर्फ एक ‘अस्थायी प्रावधान’ ही है.
पर अनुच्छेद 370 एवं उसके साथ ही अनुच्छेद 35क अब्दुल्ला एवं मुफ्ती परिवार और अलगाववादियों सरीखे घाटी के मौकापरस्त रहनुमाओं के लिए एक यकीन की चीज हैं, जो बाकी भारत की कीमत पर विलासितापूर्ण जीवन जीते हुए वहां के अनुत्पादक शासन के सूत्रधार बने रहे हैं.
शाह ने यह कहते हुए इनके पाखंड का भांडा फोड़ डाला कि वे अपने बच्चों को तो शिक्षा के लिए विदेश भेजते हैं, पर घाटी के छात्रों को स्कूलों के बहिष्कार का आदेश देते हैं. नेताओं की इस जमात का कहना है कि इन दोनों अनुच्छेदों से छेड़छाड़ वर्ष 1947 में भारत में कश्मीर के विलय के वक्त कश्मीरियों को दिये गये वचन का उल्लंघन है.
सच तो यह है कि दोनों प्रावधानों ने कश्मीर को गरीब रखते हुए उस पर इन नेताओं का आधिपत्य बनाये रखने का ही काम किया है. जैसा शाह ने स्पष्ट किया, कश्मीर घाटी पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती. जम्मू और लदाख समेत इस राज्य में कुल 22 जिले हैं, जबकि कश्मीर घाटी सिर्फ साढ़े तीन जिलों तक ही सिमटी है. किंतु अनुच्छेद 35क के अंतर्गत इस राज्य का केवल एक स्थायी निवासी ही यहां कोई संपत्ति का स्वामी बन सकता है, सरकारी नौकरी हासिल कर सकता या राज्य के किसी कॉलेज में दाखिला ले सकता है.
भारत में विलय के सहमति पत्र पर सौदेबाजी करते हुए शेख अब्दुल्ला ने उसमें एक ऐसे प्रावधान पर जोर दिया था, जो कश्मीरियों द्वारा भारतीय सेना में भर्ती पाने के मौलिक अधिकार की गारंटी देता, मगर इस राज्य के पुलिस बल में अन्य भारतीयों की भर्ती की मनाही करता हो.
वर्ष 2002 में राज्य की विधानसभा में अपनी पार्टी की सीटों में गिरावट की आशंका से भयभीत फारूक अब्दुल्ला ने अनुच्छेद 370 का बेशर्मी से दुरुपयोग करते हुए राज्य के संविधान में इस आशय का संशोधन किया, ताकि वर्ष 2026 तक राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन न हो, जिसे बाकी भारत के साथ वर्ष 2008 में ही हो जाना चाहिए था. नतीजतन, आज कुल 87 सदस्यों की इस विधानसभा में अकेले कश्मीर घाटी के लिए ही 46 सीटें हैं, जबकि जम्मू के लिए मात्र 37 एवं लद्दाख के लिए चार सीटें हैं, ताकि कश्मीर-केंद्रित सियासत सुनिश्चित की जा सके.
गुज्जर, बकरवाल एवं गद्दी नामक तीन समुदायों को वर्ष 1991 में ही अनुसूचित जातियों का स्तर प्रदान कर दिया गया, जो इस राज्य की आबादी के 11 प्रतिशत हिस्से का निर्माण करते हैं. पर उन्हें कोई आरक्षण नहीं मिला है, जबकि बाकी भारत में उन जैसे समुदायों को सारे संवैधानिक लाभ सुलभ हैं. पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को यहां मताधिकार नहीं मिला है, जबकि देश के बाकी राज्यों में उनके समुदाय के सदस्य मत दे सकते हैं.
ऐसी रिपोर्टें हैं कि मोदी प्रशासन निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन पर विचार कर रहा है, जो इस राज्य में समान विधायी प्रतिनिधित्व की दिशा में पहला कदम होगा. आज की घड़ी में देश को ‘एक भारत, एक संविधान’ तथा अनुच्छेद 370 एवं 35क जैसे पंगुकारी विचारों के परिसीमन और उन्मूलन की आवश्यकता है. अब देर सिर्फ उसके समय-निर्धारण की है.
एक बार परिसीमन हो जाये, तो कश्मीर घाटी को उसकी सीटों के एक बड़े हिस्से से हाथ धोना होगा, जो राज्य के अन्य क्षेत्रों के रहनुमाओं को एक गैर-लाभकारी स्थिति में रखता है. वर्तमान में, जम्मू और कश्मीर देश के अत्याधुनिक संस्थानों, बुनियादी संरचनाओं, निवेशों, रियल एस्टेट उफान एवं प्रौद्योगिक स्तरोन्नयन से वंचित है. धरती का यह स्वर्ग अर्धविकसित मलिन बस्तियों, टूटते-ढहते स्कूलों और दहशतगर्दी के दोजख में तब्दील हो चुका है.
अधिकतर कश्मीरी गरीबी रेखा से नीचे निवास करते हैं, जबकि अलगाववादी और सियासी रहनुमाओं के पास आय के किसी भी दृश्य स्रोत के बगैर राज्य की 90 प्रतिशत महंगी कारें और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण हैं. उन्हें राज्य की पूर्ण सुरक्षा हासिल है, जबकि राज्य के दुर्भाग्यशाली निवासियों के हिस्से सुरक्षा बलों की गोलियां और पाक-प्रायोजित दहशतगर्दों के बम आते हैं.
जम्मू और कश्मीर ऐसा एकतरफा बैंक है, जिसमें केंद्र सरकारें अंतहीन रूप से निधियां जमा तो करती जाती हैं, पर उससे कुछ भी निकाल नहीं सकतीं. अब जबकि इतिहास की धोखाधड़ियां वर्तमान की राष्ट्रीयता द्वारा खारिज की जा रही हैं, तो यह साफ होता है कि संविधान में इन दोनों अनुच्छेदों को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की छवि बचाने को जोड़ा गया था. संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ बीआर आंबेडकर ने इन्हें संविधान के मसौदे में शामिल करने से इनकार कर दिया था.
इसी तरह, गृह मंत्री सरदार पटेल ने भी इन्हें पूरी तरह अस्वीकार कर दिया था, पर अंततः नेहरू के अनुरोध पर उन्हें मानना पड़ा. नेहरू ने संविधान सभा में मद्रास से आये एक सदस्य कृष्णास्वामी अयंगर का इस्तेमाल कर उनके द्वारा कश्मीर पर अपना एजेंडा बढ़वाया.
नेहरू ने जम्मू और कश्मीर की विशिष्ट स्थिति पर लोकसभा में एक भावनात्मक भाषण देते हुए इन प्रावधानों का बचाव किया था और इस प्रकार इस अनिवासी कश्मीरी प्रधानमंत्री का खुला पक्षपात भारत की उस कश्मीर नीति का अंग बन गया, जिसने इस राज्य को देश की मुख्यधारा में लाने की सभी कोशिशों को घाटी की जनभावना को कुचलने के प्रयास का रूप दे दिया.
कई दशक बाद, इन्हीं लोगों ने यहां कश्मीरी पंडितों के बर्बर नरसंहार से अपनी आंखें फेर लीं. नतीजा यह हुआ कि लगभग एक लाख हिंदुओं को अपना घर-बार छोड़कर यहां से भागना पड़ा, जिन पर कब्जा कर लिया गया.
उन्होंने इस असुविधाजनक तथ्य की अनदेखी कर दी कि अनुच्छेद 370 के अंतर्गत इन पंडितों को भी वे ही अधिकार हासिल थे. चूंकि कश्मीर भारत का एक अविभाज्य हिस्सा है, यहां के रहनुमाओं को चाहिए कि वे भारत की विकास गाथा में सहभागी बन जायें, क्योंकि इसमें उनकी विफलता कश्मीर को आइएस तथा तालिबानों के पाले में डाल देगी, जिसकी परिणति केवल विनाश में ही होगी.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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