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जरूरी है राजकोषीय मितव्ययिता

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org विश्व के सबसे बड़े आम चुनावों की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है. लगभग 90 करोड़ मतदाता तकरीबन 10 लाख मतदान केंद्रों पर मतदान कर लगभग 10 हजार उम्मीदवारों के बीच से संसद के निचले सदन के लिए 545 सदस्यों को चुनेंगे. इस पूरी प्रक्रिया में 11 सप्ताह का […]

अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
विश्व के सबसे बड़े आम चुनावों की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है. लगभग 90 करोड़ मतदाता तकरीबन 10 लाख मतदान केंद्रों पर मतदान कर लगभग 10 हजार उम्मीदवारों के बीच से संसद के निचले सदन के लिए 545 सदस्यों को चुनेंगे. इस पूरी प्रक्रिया में 11 सप्ताह का समय लगेगा, जिस दौरान लगभग छह सौ सियासी पार्टियों एवं चुनाव में खड़े उम्मीदवारों पर आदर्श आचार संहिता लागू रहेगी.
यह दायित्व निर्वाचन आयोग का है कि वह इन राष्ट्रीय चुनावों का संचालन ऐसे करे कि बगैर किसी भय, दबाव अथवा प्रलोभन के स्वतंत्र तथा निष्पक्ष मतदान संपन्न हो सके. निर्वाचन आयोग को जिस सर्वाधिक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा, वह धन, बल एवं मीडिया (सोशल मीडिया समेत) का प्रभाव है.
इन चुनावों को लंबी अवधि तक खींचने की एक प्रमुख वजह सुरक्षा तथा हिंसक व्यवधानों से संबद्ध चिताएं ही हैं. ऐसी संभावनाओं से निबटने हेतु सुरक्षा बलों को एक जगह से दूसरी जगहों पर स्थानांतरित करते रहना होगा, क्योंकि वे इतनी बड़ी संख्या में उपलब्ध नहीं हैं कि पूरे देश में एक ही दिन चुनाव संपन्न कराये जा सकें.
इन चुनावों के संचालन में एक विशाल धनराशि व्यय होगी. वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में सरकार को 3426 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े थे, जो उसके पूर्ववर्ती चुनाव व्यय से 131 प्रतिशत ज्यादा था. इस हिसाब से इस बार इस व्यय के सात हजार करोड़ रुपये या लगभग एक अरब डॉलर तक पहुंच जाने की संभावना है.
पर पूरे व्यय की मात्रा यही नहीं रहेगी. सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज का अनुमान है कि यह खर्च लगभग 50 हजार करोड़ रुपये या सात अरब डॉलर से भी ऊपर चला जायेगा, जो इन चुनावों को विश्व के सबसे महंगे, यहां तक कि अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों से भी अधिक खर्चीले चुनावों में बदल देगा. एक ऐसे देश के लिए जो प्रति व्यक्ति आय की दृष्टि से विश्व में 139वें पायदान पर है, यह एक अत्यंत महंगी प्रक्रिया है. यह लागत जीडीपी की 0.3 प्रतिशत है, जो मनरेगा पर होनेवाले व्यय से भी अधिक है.
यह एक और बात है कि यह अनुमान भी कम ही है, क्योंकि यह केवल प्रत्यक्ष व्ययों, मतदाताओं को लुभाने के लिए अथवा मीडिया मुहिमों, रैलियों तथा यात्राओं पर किये गये खर्चों पर ही आधारित है, जबकि इसमें इन चुनावों के पूर्व मतदाताओं के लिए घोषित मुफ्त फायदों की लागतें शामिल नहीं हैं. इन मुफ्त उपहारों के संबंध हमेशा चुनावों से ही नहीं जोड़े जा सकते, मगर वे अनिवार्यतः उसी उद्देश्य के लिए होते हैं.
उदाहरण के लिए, पिछले दो वर्षों के दौरान विभिन्न राज्यों में की गयी कुल ऋणमाफी की लागत 2 लाख करोड़ बैठती है. इन राज्यों में केंद्र की सत्तारूढ़ पार्टी के अलावा विपक्षी पार्टियां भी सत्तासीन हैं. फरवरी महीने में प्रस्तुत बजट में ही लगभग 10 करोड़ किसान परिवारों के लिए प्रति परिवार 6 हजार रुपयों के भुगतान की घोषणा की गयी, जिसमें से 2 हजार रुपये तो इसी वित्तीय वर्ष के अंदर यानी चालू महीने के अंत के पूर्व ही दे दिये जाने हैं. यह अगले वर्ष हेतु प्रस्तावित बजट से भूतलक्षी प्रभाव से व्यय किये जाने की अनोखी मिसाल है.
अगली प्रमुख घोषणा पांच लाख रुपये तक की आय आयकर से मुक्त किये जाने की है, जिसका अर्थ है कि लगभग तीन करोड़ करदाताओं की आयकर देनदारी शून्य हो गयी, जिससे सरकारी खजाने पर कम से कम सात हजार करोड़ रुपयों का भार पड़ेगा. निश्चित रूप से इनका संबंध इन चुनावों से जोड़ा जा सकता है. भारत में प्रत्येक 100 मतदाता पर केवल सात मतदाता ही प्रत्यक्ष करदाता हैं. इसलिए इन सभी राजकोषीय उदारताओं का भार अंततः इन सात लोगों को ही वहन अकरना पड़ता है.
केंद्रीय कैबिनेट ने संकटग्रस्त चीनी क्षेत्र को 15 हजार करोड़ रुपये के अनुदानित ऋण उपलब्ध कराये जाने का फैसला भी किया, ताकि वे गन्ना उत्पादक किसानों की बकाया राशियों के भुगतान कर सकें. इससे सरकारी खजाने पर तकरीबन 3,400 करोड़ रुपयों का भार पड़ा. इसी तरह, परिधान क्षेत्र को कर तथा लेवी राहत के मद में लगभग 6,300 करोड़ रुपये मुहैया किये गये.
विद्युत वितरण कंपनियों द्वारा नवीकरणीय ऊर्जा के अनिवार्य क्रयभार को कम करने के लिए कैबिनेट ने सौर एवं पवन ऊर्जा के अलावा जल विद्युत को भी नवीकरणीय ऊर्जा की श्रेणी में डाल दिया. इसने जल विद्युत कंपनियों द्वारा ऋण पुनर्भुगतान अवधि को भी विस्तृत कर 18 वर्ष कर दिया, ताकि उन्हें राजकोषीय राहत मिल जाये. किफायती घरों के निर्माण में मदद के लिए जीएसटी परिषद् ने निर्माणाधीन परियोजनाओं पर जीएसटी की दर 12 प्रतिशत से घटाकर पांच प्रतिशत कर दी.
ये सभी केंद्रीय कैबिनेट से लेकर जीएसटी परिषद् और विभिन्न राज्य तथा स्थानीय सरकारों द्वारा विभिन्न स्तरों पर लिये गये उन निर्णयों की केवल चंद बानगियां हैं, जिन्हें आदर्श आचार संहिता लागू होने के पूर्व कर डाला गया.
इनमें से अधिकतर का अर्थ वर्तमान के लिए राजकोषीय राहत तो है, मगर इनका कुल राजकोषीय स्थिति पर बुरा असर पड़ेगा, जो चुनाव के बाद ही स्पष्ट होगा.
वर्तमान केंद्र सरकार राजकोषीय विवेक के लिए प्रतिबद्ध है और वह इस तथ्य पर गर्व करती है कि इस वर्ष राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3.4 प्रतिशत तक सीमित रखा गया है. किंतु यह पूरी स्थिति नहीं दर्शाता. सरकार एवं सार्वजनिक क्षेत्र निकायों द्वारा बैलेंस शीट से परे की ऋण जरूरतें भी खासी अधिक हैं. मिसाल के तौर पर उर्वरक सब्सिडी का एक बड़ा हिस्सा वाणिज्यिक बैंकों के बैलेंस शीटों में स्थानांतरित कर दिया गया है. राज्य सरकारों के दो वर्ष पूर्व तक के काफी बेहतर रिकॉर्ड के उलट अब वे भी विपरीत दिशा में ही अग्रसर हैं.
इस तरह राजकोषीय घाटे एवं सार्वजनिक क्षेत्र की ऋण जरूरतों का योग अब जीडीपी के लगभग 10 प्रतिशत तक पहुंच चुका है, जो देश को एक कमजोर स्थिति में डालता है.
यही कारण है कि कई सार्वजनिक क्षेत्र निकायों को इस वर्ष अधिक अंतरिम लाभांश देने को कहा गया, जिसके अंतर्गत हाल में रिजर्व बैंक ने ही सरकार को 28 हजार करोड़ रुपये दिये हैं. यह सही वक्त है कि अब हम राष्ट्रीय तथा उपराष्ट्रीय स्तर पर राजकोषीय मितव्ययिता का ध्यान रखते हुए राजस्व संग्रहण में व्याप्ति तथा गहराई लाने पर केंद्रित हों.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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