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हमारी भ्रामक विदेश नीति

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक विदेश मंत्रालय में अपने कार्यकाल के दौरान मैं उसका आधिकारिक प्रवक्ता रह चुका हूं और मुझे यह अच्छी तरह पता है कि उसका काम कितना कठिन होता है. प्रायः इस व्यक्ति को विदेश नीति से संबद्ध वैसे फैसलों का औचित्य भी सिद्ध करना पड़ता है, जो सिरे से […]

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक

विदेश मंत्रालय में अपने कार्यकाल के दौरान मैं उसका आधिकारिक प्रवक्ता रह चुका हूं और मुझे यह अच्छी तरह पता है कि उसका काम कितना कठिन होता है. प्रायः इस व्यक्ति को विदेश नीति से संबद्ध वैसे फैसलों का औचित्य भी सिद्ध करना पड़ता है, जो सिरे से अनुचित होते हैं.

बीते 26 दिसंबर, 2017 को भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजित डोभाल और उनके पाकिस्तानी समकक्ष लेफ्टिनेंट जनरल नासिर खान जंजुआ (सेवानिवृत्त) के बीच बैंकॉक में किसी अज्ञात स्थान पर वार्ता हुई.

इसके बाद, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार के सामने मीडियाकर्मियों ने जब यह कठिन प्रश्न खड़ा किया कि ‘दहशतगर्दी और बातचीत साथ नहीं चल सकती’ के हमारे सार्वजनिक बयान के बाद यह बैठक कैसे हो गयी, तो इसका जवाब देना निहायत मुश्किल था. पर रवीश ने अर्थहीन शब्दों के जरिये एक अविश्वसनीय राजनयिक बाजीगरी कर दिखायी: ‘हमने यह तो जरूर कहा है कि दहशतगर्दी और बातचीत साथ नहीं चल सकती, मगर दहशतगर्दी पर बातचीत तो यकीनन हो ही सकती है.’ यह बयान स्व-विरोधी उक्तियों के नायाब नमूने के रूप में सहज ही प्रतिष्ठा पा सकता है.

वैसे मैं विदेश मंत्रालय पर रणनीतिक स्पष्टता के पूर्ण अभाव का आरोप लगाने का अनिच्छुक हूं, पर इतना अवश्य कहना चाहूंगा कि यह बयान हिंदू तत्वमीमांसा के उस दार्शनिक द्वैतवाद का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत करता है, जिसके अनुसार माया के रूप में अनुभवजन्य वास्तविकता का अस्तित्व एक स्तर पर तो होता है, पर उस दूसरे स्तर पर नहीं होता, जहां ब्रह्म की गुण-धर्म-विहीन सार्वभौम सत्ता में सब समाहित हो जाता है. यानी जो वास्तविक-सा दिखता है, वह वस्तुतः अवास्तविक हेाता है और जो अवास्तविक नजर आता है, वस्तुतः वही वास्तविक होता है.

सब कुछ प्रेक्षक की दृष्टि पर निर्भर है, जिसके दार्शनिक आयाम में चले जाने पर समस्त विरोधाभास एक वृहत्तर सत्ता में समा जाते हैं, जो ज्ञानी के लिए तो ज्ञेय पर दृश्यमान जगत के लिए अज्ञेय बना रहता है. पाकिस्तान के साथ होती वार्ता भी वस्तुतः होती नहीं है और दूसरी ओर, वह तब भी होती रहती है, जब आधिकारिक नीति यह कहती है कि वह नहीं हो सकती!

ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे विदेश विभाग ने रणनीतिक स्पष्टता के अपने पूर्ण अभाव पर आवरण के रूप में इसी सिद्धांत का सहारा लिया है.

पाकिस्तान के साथ हमारी विदेश नीति के विभिन्न आयाम कुछ यों व्यक्त किये जा सकते हैं: पाकिस्तान के साथ वार्ता नहीं हो सकती; यदि पाकिस्तान आतंकवाद का प्रायोजन बंद करने पर सहमत न हो, तो उसके साथ वार्ता नहीं हो सकती; पाकिस्तान के साथ वार्ता हो सकती है, क्योंकि वह आतंकवाद का अपना प्रायोजन बंद नहीं करेगा; दोनों देशों के एनएसए यदि मिलते हैं, तो वे मिले मगर वार्ता नहीं हुई; यदि वार्ता नहीं हुई, तो संभवतः उन्होंने दिल्ली तथा इस्लामाबाद की सर्दी के सितम से बचने को संयोगवश एक ही वक्त बैंकॉक की यात्रा कर डाली; जब तक आतंकवाद रुकता नहीं, वार्ता का कोई अर्थ नहीं, पर दोनों एनएसए मिल-बैठकर इस संभावना का अन्वेषण कर सकते हैं कि क्या वार्ता का कोई अर्थ हो सकता है.

तथ्य यह है कि पाकिस्तान के साथ हमारी विदेश नीति ऐसे अक्षम्य विरोधाभासों और भूल-भुलैयों से भरी है, जो हमारे सर्वाधिक अंतर्दृष्टि-संपन्न तत्वदर्शियों को भी पूर्णतः भ्रमित कर दें.

इसकी वजह रणनीतिक नीति का अभाव और तदर्थ कार्रवाइयों की एक अंतहीन शृंखला ही है. यदि हमें पाकिस्तान के साथ औपचारिक वार्ता-प्रक्रिया स्थगित करने की अपनी पूर्व नीति की समीक्षा करने की जरूरत ही है, तो यह कार्य नपी-तुली रीति से सावधानीपूर्वक करना चाहिए.

बातचीत के फायदे होते हैं, बशर्ते इसे इस तरह किया जाये, जो अपेक्षित और सुनियोजित हो. दूसरी ओर, यदि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की समाप्ति अथवा कम से कम उसमें कमी आने तक उससे वार्ता न करने की हमारी नीति अपनी जगह कायम है, तो फिर बैंकॉक में दोनों देशों के एनएसए द्वारा की गयी वार्ता हमारी उस नीति का मजाक उड़ाती लगती है.

ऐसा लगता है कि अपने पश्चिमी पड़ोसी के लिए अल्पकालिक या दीर्घकालिक नीति-विहीनता और एक घटना से दूसरी घटना तक तक हमारी ढुलमुल चाल के साथ ही बारी-बारी से एक स्तर पर अविवेकी बड़बोलापन और दूजे पर लुकी-छिपी वार्ता के बीच भटकना ही हमारी एकमात्र नीति है.

क्या हम अपनी विदेश नीति से यह उम्मीद करें कि वह पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के प्रति एक दृढ़ रुख कायम रखने के साथ ही उसकी आंतरिक स्थिति, युद्धविराम उल्लंघन के स्तर, वार्ता की जरूरत, लोगों से लोगों के बीच संपर्क की अहमियत, मानवीय भंगिमाओं के मूल्य, चीन की भूमिका और अफगानिस्तान की घटनाओं समेत भू-राजनीतिक अनिवार्यताओं को ध्यान में रखते हुए पाकिस्तान के प्रति हमारे रवैये के लिए एक रणनीतिक ढांचा तय करेगी?

हमारे अब तक के इतिहास को देखते हुए यह एक बड़ी उम्मीद लगती है. तब तक के लिए हमारे विदेश मंत्रालय के बदनसीब प्रवक्ताओं के पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा कि वे विदेश नीति को भूलकर दार्शनिक द्वैतवादी उक्तियों के चमत्कार पैदा करते रहें.

(अनुवाद: विजय नंदन)

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