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लोकतंत्र की रक्षा के लिए

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार वैश्विक स्तर पर आज लोकतंत्र पर जब पुनर्विचार किया जा रहा है, भारत में लोकतंत्र की रक्षा की चिंता कम बड़ी बात नहीं है. भारतीय लोकतंत्र रुग्णावस्था में है और लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट करने की प्रक्रिया जारी है. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों- जस्टिस जे चेलमेश्वर (23 जून 1953), जस्टिस […]

रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार
वैश्विक स्तर पर आज लोकतंत्र पर जब पुनर्विचार किया जा रहा है, भारत में लोकतंत्र की रक्षा की चिंता कम बड़ी बात नहीं है. भारतीय लोकतंत्र रुग्णावस्था में है और लोकतांत्रिक संस्थाओं को नष्ट करने की प्रक्रिया जारी है. सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों- जस्टिस जे चेलमेश्वर (23 जून 1953), जस्टिस एमबी लोकुर (31 दिसंबर, 1953), जस्टिस रंजन गोगोई (18 नवंबर, 1954), और जस्टिस कुरियन जोसेफ (30 नवंबर, 1953) को जिन कारणों से प्रेस कांफ्रेंस करनी पड़ी, उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती.
12 जनवरी, 2018 के 12 बजे दिन में जस्टिस चेलमेश्वर ने तुगलक रोड (दिल्ली) स्थित अपने आवास पर आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में न्यायपालिका को बचाने की बात कही. जस्टिस चेलमेश्वर छह वर्ष से (अक्तूबर 2011) सुप्रीम कोर्ट के जज हैं.
मुख्य न्यायाधीश के बाद उनका स्थान है. उन्होंने कहा कि उन्हें प्रेस कांफ्रेंस करने में कोई खुशी नहीं है. दो महीने पहले उन्होंने मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर कहा था कि महत्वपूर्ण केस कनिष्ठ जज को न दिये जायें. प्रेस कांफ्रेंस के दिन मुख्य न्यायाधीश से मिलकर वे न्यायपालिका को प्रभावित करनेवाले मुद्दे उठाये थे, पर मुख्य न्यायाधीश ने उनकी नहीं सुनी. चार वरिष्ठ न्यायाधीशों के समक्ष प्रेस कांफ्रेंस के सिवा कोई विकल्प नहीं था.
मुख्य न्यायाधीश के बाद जे चेलमेश्वर दूसरे वरिष्ठतम न्यायाधीश हैं और जस्टिस रंजन गोगोई अक्तूबर 2018 में मुख्य न्यायाधीश बननेवाले हैं. सबकी चिंता सर्वोच्च न्यायालय की छवि की है. यह प्रेस कांफ्रेंस लोकतंत्र की रक्षा और न्यायपालिका की गरिमा बनाये रखने के लिए था.
भारतीय न्यायपालिका और सर्वोच्च न्यायालय के लिए 12 जनवरी, 2018 एक ऐतिहासिक तिथि हो गयी है.
यह एक ‘टर्निंग प्वॉइंट’ है. इसे सिर्फ न्यायपालिका के अंदरूनी विवाद के रूप में ही नहीं देखा जा सकता. लोकतंत्र के चार स्तंभ भीतर से हिल चुके हैं. विधायिका, कार्यपालिका और प्रेस की लोकतांत्रिक ‘निष्ठा’ से हम सब अवगत हैं. न्यायपालिका पर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं. पहली बार उसके भीतर से जो आवाज उठी है, उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए. विभाजित न्यायपालिका के पीछे के कारणों को देखा जाना चाहिए. पहली बार मुख्य न्यायाधीश पर, उनकी कार्य-पद्धति पर, उनके वरिष्ठ सहयोगियों ने ही प्रश्न खड़े किये हैं, उनके मनमाने कामकाज को सामने रखा गया है.
जजों के बीच अगर यह चौड़ी खाई बनी है, तो इसके पीछे मुख्य कारण स्वहित और जनहित है. सोहराबुद्दीन मुठभेड़ केस के ट्रॉयल जज लोया की मौत की जांच का मामला न्यायाधीश अरुण कुमार मिश्र को दिया गया, जो वरिष्ठता में दसवें नंबर पर हैं. न्यायिक संकट बाहर का कोई व्यक्ति उत्पन्न नहीं करता. भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि मुख्य न्यायाधीश पर उनके वरिष्ठ सहयोगियों ने आरोप लगाये हैं. इन्होंने साफ कहा- ‘कोई बीस साल बाद यह न कहे कि हमने अपनी आत्मा बेची.’ सुप्रीम कोर्ट पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं, पर इस बार के सवाल कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं. मुख्य न्यायाधीश के ‘मास्टर आॅफ दि रोस्टर’ होने की बात कही जाती है, पर इन चार जजों ने यह बता दिया है कि वे बराबरी के बीच पहले हैं, न अधिक, न कम.
मुख्य न्यायाधीश द्वारा बिना किसी तर्क और आधार के, अपनी पसंद के अनुसार बेंच गठित करने को केवल इसलिए नहीं स्वीकारा-सराहा जा सकता कि यह उनका विशेषाधिकार है.
इन चार जजों ने मुख्य न्यायाधीश को लिखे पत्र में न्यायिक आदेशों से न्याय वितरण प्रणाली के विपरीत रूप से प्रभावित होने की बात कही थी, उच्चतम न्यायालय की आजादी के प्रभावित होने के साथ मुख्य न्यायाधीश के प्रशासनिक कार्य के भी प्रभावित होने का जिक्र किया था. मुख्य न्यायाधीश रोस्टर (जजों में केस और बेंच वितरण) के नियमों की बात कही और इसके विपरीत जाने को ‘अवांछनीय’ माना. इन जजों के लिए न्यायालय की सत्यनिष्ठा महत्वपूर्ण है. व्यक्ति निष्ठा, सत्ता निष्ठा और सत्यनिष्ठा में सदैव संघर्ष होता रहा है. इन जजों की मुख्य चिंता यह है कि बिना किसी तर्क और आधार के ‘देश तथा संस्थान के लिए दूरगामी प्रभाव वाले केस’ मुख्य न्यायाधीश ने अपनी पसंद के जजों को दिये. यह न्यायपूर्ण फैसले को प्रभावित करना है. सर्वोच्च न्यायालय के प्रति अभी निष्ठा बची हुई है. वहां मुख्य न्यायाधीश की निजी पसंद का कोई अर्थ नहीं है.
मुख्य न्यायाधीश पर लगाये गये गंभीर आरोप इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये वरिष्ठ जजों द्वारा लगाये गये हैं. न्यायमूर्ति चेलमेश्वर ने कहा है कि भारत सहित किसी भी देश में लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय जैसी संस्था को सही ढंग से काम करने की जरूरत है. जनतंत्र में ‘जन’ प्रमुख है, न कि ‘तंत्र’. ‘तंत्र’ ‘जन’ के लिए है. जब यह तंत्र किसी व्यक्ति विशेष, दल विशेष, विचारधारा विशेष के लिए कार्य करता है, तो जनतंत्र फिर जनतंत्र नहीं रहता.
न्यायाधीशों को भी यह तय करना होगा कि वे किसके साथ हैं? सत्य, नियम, कायदे-कानून के साथ या किसी व्यक्ति और सत्ता-व्यवस्था के साथ‍? आज सारी टकराहट इन दोनों के बीच है. भारत के 45वें मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के वरिष्ठ सहयोगियों की चिंताएं बड़ी हैं- वह लोकतंत्र, न्याय-प्रक्रिया और सत्यनिष्ठा से जुड़ी हुई है. स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रश्न एक बड़ा प्रश्न है. स्वतंत्र न्यायपालिका ही लोकतंत्र की रक्षा कर सकती है.

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