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राजनीति बनाम समाजनीति

मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com यह बात लगभग सर्वमान्य है कि प्राचीन भारत में राजा गुरुकुल तक जाने के लिए न केवल अपने अंगरक्षकों को दूर ही रोक देते थे, बल्कि रथ भी वहीं छोड़ आते थे. राजसत्ता से चाणक्य के संबंधों के बारे में तो हम सब जानते ही हैं. फारस में […]

मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
यह बात लगभग सर्वमान्य है कि प्राचीन भारत में राजा गुरुकुल तक जाने के लिए न केवल अपने अंगरक्षकों को दूर ही रोक देते थे, बल्कि रथ भी वहीं छोड़ आते थे. राजसत्ता से चाणक्य के संबंधों के बारे में तो हम सब जानते ही हैं. फारस में बलख नगर में शेख बहाउद्दीन नामक एक प्रसिद्ध सूफी संत थे. जिनकी लोकप्रियता से परेशान होकर वहां के बादशाह ने एक दिन उनसे कहा कि जब लोग हर समस्या के लिए आपके पास ही जायेंगे, तो फिर हमारी क्या जरूरत है.
कहते हैं कि शेख बहाउद्दीन शहर छोड़कर चले गये और फिर घूमते हुए अफगानिस्तान में आ बसे. कम लोग जानते होंगे कि वे प्रसिद्ध मौलाना रूमी के पिता थे. निजामुद्दीन औलिया कभी राजदरबार में नहीं गये. इसी कड़ी में आप कबीर, रामकृष्ण परमहंस को भी ले सकते हैं. और इस कड़ी के आखिरी व्यक्ति थे गांधी, राजसत्ता जिनकी कुटिया में चलकर आती थी. रोज की प्रार्थना सभा में हजारों लोग उन्हें सुनने आते थे और उसमें गांधी समाज के बदलाव की बात करते थे.
आप जेपी को भी इसी श्रेणी में रख सकते हैं. क्या हमारे देश में राजनीति की केंद्रीयता आवश्यकता से ज्यादा हो गयी है? क्या समाज की अपनी स्वायत्तता खत्म हो गयी है? क्या आज यह परंपरा मर गयी है? क्या हमें अब इसकी जरूरत नहीं है?
आधुनिक भारत में राजसत्ता की इतनी प्रधानता हो गयी है कि हर कोई उससे जुड़ना चाहता है. यहां तक कि शिक्षा जगत को भी राजसत्ता ने अपने अधिकार में कर लिया है. मसलन, पारंपरिक व्यवस्था में कुलपति का अर्थ था एक ज्ञान कुल को चालने के लिए जिम्मेदार व्यक्ति.
विश्वविद्यालय का उद्देश्य था देश-काल से परे ज्ञान की खोज करना, मानव कल्याण के लिए ज्ञान सृजन करना. इसी बात को ध्यान में रखते हुए आधुनिक विश्वविद्यालयों में भी कुलपति और उपकुलपति की नियुक्ति की कुछ ऐसी व्यवस्था की गयी थी कि उसे राजसत्ता के प्रभाव से मुक्त रखा जा सके. लेकिन धीरे-धीरे यह व्यवस्था कमजोर हो गयी है. अब उपकुलपति की नियुक्ति के लिए आवेदन और साक्षात्कार की व्यवस्था की गयी है. इसका उद्देश्य यह बताना है कि किसी आम सेवक की तरह उन्हें भी राजसत्ता के लिए काम करना होगा.
इस मानसिकता का ही प्रभाव है कि आप उपकुलपतियों को सचिवों और अवर सचिवों का चक्कर लगते देख सकते हैं. विवि भी अब सचिवालय की तरह काम करने लगे हैं. तभी कोई उपकुलपति सत्ता को खुश करने के लिए तरह तरह का छात्र और शिक्षक विरोधी काम करते हैं और अजीब-अजीब से बेतुके बयान देते हैं.
इन बयानों और शिक्षा विरोधी कामों से विवि की गरिमा आम लोगों में काम होती है. अब ऐसे में कोई बुद्धिजीवी समाजसत्ता की बात को क्या समझ सकता है. इसी का परिणाम है कि राजनेता अपने को सबसे ऊपर समझते हैं. बुद्धिजीवियों की इज्जत सरेआम नीलाम होते देखी जा सकती है. शिक्षा और ज्ञान को बाजार में बिकाऊ बना दिया गया है.
समाजनीति को नेतृत्व देनेवाले लोगों की कमी का क्या परिणाम है? राजसत्ता का समाज में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप का नकारात्मक परिणाम देखा जा सकता है. समाज सुधार का जो काम कभी राजा राममोहन राय, विवेकानंद, गांधी और मौलाना आजाद जैसे लोग किया करते थे अब राजनीति उसका जिम्मा लेना चाहती है.
समाजनीति राजनीतिक पार्टियों की प्रतियोगिता में फंस जाती है और फिर अंत में राजनीतिज्ञ उसे अदालत के हवाले कर लंबे समय तक उस पर राजनीति करते हैं. आप इसके लिए कई उदाहरण ले सकते हैं. रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को ही लें. दोनों ही पक्ष में कोई ऐसा समाजनीतिज्ञ नहीं है, जिसकी बात आम लोग सुन सकें. दोनों समुदायों के समाजनीतिज्ञों ने राजनेताओं के सामने घुटने टेक दिये हैं, बल्कि अब राजनीति में ही अपना भाग्य आजमाना चाहते हैं.
जब सरकार का कानून मंत्री कहने लगे कि अदालत को फैसला देने में देर नहीं करनी चाहिए, तो समझ सकते हैं कि उनकी मंशा क्या है. बेचारी अदालत जानती है कि यह फैसला इतना आसान नहीं होगा. यदि ठोस कानूनी बात को मान भी लिया जाये और फैसला किसी एक के पक्ष में हो जाये, तो फिर जिस अशांति की संभावना है इसका अंदाजा माननीय न्यायाधीशों को जरूर होगा, इसलिए इस फैसले को टालने की कोशिश की जा रही है.
इसी तरह भ्रष्टाचार के मामले को लें. आपको याद होगा कि अन्ना हजारे के आग्रह पर किस तरह लोग भारत भर में सड़कों पर आ गये. लाख प्रयासों के बाद भी शायद और कोई इस काम को नहीं कर सकता था. लोगों का विश्वास उन पर क्यों था? शायद इसलिए कि राजनीति से उनका लेना-देना नहीं था.
समाज में उनकी मान्यता का उपयोग कर अंत में एक राजनीतिक पार्टी बना ली गयी. संभव है राजनीतिक पार्टी सफल भी हो जाये, लेकिन इस घटना से उनकी सामाजिक मान्यता काफी घट गयी. मैं आम मध्यम वर्गीय से बिल्कुल सहमत नहीं हूं कि राजनीति दलदल है. मैं केवल इतना ही आग्रह करना चाहता हूं कि भारत जैसे देश में समाजनीतिज्ञों का बड़ा महत्व था और उनका एक महत्वपूर्ण काम जनहित में राजनेताओं पर अंकुश डालने का होता था. आधुनिक समय में ऐसे लोगों की बहुत कमी हो गयी है.
हमें आज ऐसे समाजनीतिज्ञों की बेहद जरूरत है. समाज सुधार का बड़ा काम जो आजादी के आंदोलन के समय शुरू हुआ था अधूरा रह गया है.
भारतीय जनतंत्र को मजबूत करने के लिए एक और सामाजिक आंदोलन की जरूरत है. इस बार बाल-विवाह, विधवा-विवाह, धार्मिक कट्टरता और अंधविश्वास के विरोध के अतिरिक्त संविधान के प्रति सामाजिक प्रतिबद्धता के लिए भी प्रयास करने होंगे. हमने संविधान तो लागू कर लिया है, लेकिन अभी तक उसके सिद्धांत और प्रावधान हमारी आत्मा में उतरे नहीं है. संप्रदायों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंधों को आंदोलन का विषय बनाना पड़ेगा. सामाजिक न्याय को केवल कानूनी तौर पर नहीं बल्कि एक न्यायपूर्ण समाज बनाने के लिए आत्मसात करना होगा.
नये वर्ष में हमें संकल्प लेना चाहिए कि हम राजनीति से ज्यादा समाजनीति पर ध्यान दें, ताकि नेताओं को सनद रहे कि वे इस देश को जैसे चाहे नहीं चला सकते हैं, उनकी सीमाएं हैं और उनका मुख्य काम जनहित में राजकाज करना है.
राजधर्म का पालन करना उनके लिए अनिवार्य है. ऐसे समाजनीतिज्ञों के निर्माण में विश्वविद्यालयों को आगे आना ही चाहिए, जनता को भी उन्हें सम्मान देकर अपनी स्वीकृति को स्पष्ट करना चाहिए. शिक्षाविदों को राजनेता बनने के बदले समाजनीतिज्ञ बनना चाहिए.

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