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पांचवीं अनुसूची का महत्व

डॉ अनुज लुगुन सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया anujlugun@cub.ac.in साल 1820 में झारखंड के ‘हो’ आदिवासी समुदाय और अंग्रेजों के बीच चाईबासा के निकट रोरो नदी के किनारे पहली लड़ाई हुई थी. उसके पहले न ही अंग्रेजों का और न ही मुख्यधारा के समाज का ‘हो’ आदिवासियों से शासकीय संबंध था. तब के […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in
साल 1820 में झारखंड के ‘हो’ आदिवासी समुदाय और अंग्रेजों के बीच चाईबासा के निकट रोरो नदी के किनारे पहली लड़ाई हुई थी. उसके पहले न ही अंग्रेजों का और न ही मुख्यधारा के समाज का ‘हो’ आदिवासियों से शासकीय संबंध था. तब के अंग्रेज अधिकारी मेजर रफसेज ने कूटनीतिक हितों को देखते हुए कोल्हान के हो आदिवासियों को कंपनी शासन के अधीन रखने की योजना बनायी. अंग्रेजों द्वारा हो लोगों पर कई हमले किये गये. लेकिन, हो कभी भी अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. यह वह दौर था, जब दो बड़ी शक्तियां मुगल और मराठों के लिए अंग्रेज चुनौती बन गये थे.
रफसेज बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि हो आदिवासी कभी भी मुगलों और मराठों के अधीन नहीं थे. साथ ही उनकी कृषि व्यवस्था और ग्राम प्रशासन की व्यवस्था विकसित थी. हो विद्रोह से तंग आकर अंग्रेजों ने सिंहभूम के हो बहुल क्षेत्रों को मिलाकर सन् 1837 में एक अलग ही प्रशासनिक इकाई ‘कोल्हान गवर्नमेंट एस्टेट’ का गठन कर दिया.
विल्किंसन रूल उसी का परिणाम था. अब अंग्रेज अधिकारी की देखरेख में हो, मुंडा और मानकियों को ही राजस्व और प्रशासन की जिम्मेदारी मिली. इसके लगभग पांच दशक पहले इसी तरह अंग्रेजों ने पहाड़िया आदिवासियों के लिए स्वायत्त प्रशासनिक इकाई बनायी थी. ऐसे कई उदाहरण हैं. इन्हीं आधारों पर गांधीवादी चिंतक डॉ ब्रह्मदेव शर्मा कहते थे कि अंग्रेज भी आदिवासी हितों को नकार नहीं सके थे.
उपर्युक्त ऐतिहासिक घटनाओं के जरिये क्या आजाद भारत में आदिवासी हितों के लिए निर्मित पांचवीं अनुसूची जैसे संवैधानिक प्रावधानों को समझा जा सकता है? इस सवाल से गुजरे बिना हम न पांचवीं अनुसूची के औचित्य को समझ सकेंगे, न ही अन्य संवैधानिक प्रावधानों को.
मेजर रफसेज ने आदिवासियों की जिस बात की तरफ संकेत किया था, वह थी उनकी सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था. आदिवासी समाज की भिन्न गणतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था थी, जो मुंडा, मानकी, महतो, माझी और पड़हा इत्यादि समुदायों द्वारा संचालित होती थी. यह प्रत्यक्ष लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक प्रकार थी, जिसमें समुदाय की सामूहिक भागीदारी होती थी. इसी तरह की सामाजिक-प्रशासनिक व्यवस्था को आगे चलकर संविधान में रूढ़ि एवं प्रथा की संज्ञा दी गयी.
यह तत्कालीन राजा-रजवाड़ों की सामंती समाज व्यवस्था से बिल्कुल अलग थी. संविधान निर्माण के दौरान आदिवासी अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए जो संवैधानिक प्रावधान किये गये, उनमें अंग्रेजों द्वारा पूर्व में बनाये गये कानूनों को दरकिनार नहीं किया गया. विल्किंसन रूल, सीएनटी एक्ट और एसपीटी एक्ट इसके उदाहरण हैं.
आदिवासी अधिकारों को संविधान की पांचवीं एवं छठवीं अनुसूची में विस्तृत रूप दिया गया, जिनमें कहा गया कि अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासियों की रूढ़ि एवं प्रथा को विधि का बल प्राप्त है. इस तरह पांचवीं एवं छठवीं अनुसूची संविधान के उस विचार के प्रतिनिधि बने, जिसमें शासन के विकेंद्रीकरण का विचार है.
इस तरह की संवैधानिक व्यवस्थाओं के जरिये आजाद भारत के शासन में आदिवासियों की भागीदारी सुनिश्चित की गयी. यह विचार छठवीं अनुसूची में स्वशासी जिलों एवं स्वशासी परिषदों के रूप में फलित हुआ. पांचवीं अनुसूची में इसके लिए जनजातीय परामर्शदातृ परिषद् और पारंपरिक ग्राम सभाओं को आधार बनाया गया. लेकिन क्या वाकई शासन में आदिवासियों की भागीदारी तय हुई?
पांचवीं अनुसूची के तहत अनुच्छेद 244 (1) में आदिवासी क्षेत्रों में प्रशासन की व्यवस्था का उल्लेख है. इसके अंतर्गत दस राज्य आते हैं. इसके भाग- क, (3) में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य का राज्यपाल, जिसमें अनुसूचित क्षेत्र हैं, प्रतिवर्ष या राष्ट्रपति की मांग पर अनुसूचित क्षेत्र के प्रशासन के संबंध में प्रतिवेदन सौंपेगा.
उसी तरह इसके भाग- ख के 4 (1) में अनुसूचित क्षेत्रों के लिए एक जनजातीय सलाहकार परिषद् होगा, जिसकी सलाह से ही राज्यपाल कोई भी प्रशासनिक दिशा तय करेंगे. भाग- ख के 5 (1) में उल्लेखित है कि संविधान में किसी बात के होते हुए भी राज्यपाल लोक अधिसूचना द्वारा निर्देश दे सकेगा कि संसद या विधान मंडल का कोई विशिष्ट अधिनियम उस राज्य के अनुसूचित क्षेत्र या उसके किसी भाग में लागू नहीं होगा या अधिसूचना के द्वारा लागू भी करा सकता है.
पांचवीं अनुसूची का सार यह है कि इसके तहत आदिवासी संस्कृति, भाषा, जीवनशैली और अधिकारों को राज्यपाल की निगरानी में संवैधानिक संरक्षण दिया गया है. पांचवीं अनुसूची से ही संबद्ध कर पीईएसए (पेसा कानून) 1996 का प्रावधान किया गया, जिसमें रूढ़ि-प्रथा एवं ग्रामसभा को परिभाषित किया गया. इसके द्वारा संसद, विधानसभा और नौकरशाही के सीधे हस्तक्षेप को नियंत्रित किया गया. यह ऐसी व्यवस्था है, जो अनुसूचित क्षेत्र के राज्यों को दूसरे राज्यों से अलग और विशिष्ट बनाती है.
अनुसूचित क्षेत्र के राज्यपालों से अपेक्षा रही कि वे आदिवासी अधिकारों को सुनिश्चित करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हो सका. सामाजिक कार्यकर्ता दयामनी बारला कहती हैं कि झारखंड में अलग राज्य गठन के बाद भी पांचवीं अनुसूची को लागू नहीं किया गया. वर्तमान जनजातीय परामर्शदातृ परिषद् के सदस्य रतन तिर्की कहते हैं कि झारखंड में यह परिषद् प्रभावी नहीं है.
अलग राज्य गठन के बाद भी न तो इसके लिए नियमावली बनी और न ही इसे सशक्त किया गया. दुर्भाग्य तो यह रहा कि पांचवीं अनुसूची के संवैधानिक निर्देशों के बजाय राजनीतिक पार्टियों के हाई कमान के निर्देशानुसार शासन चलता रहा है. कई बार तो जनजातीय परामर्शदातृ परिषद् किसी राजनीतिक पार्टी की परिषद् मात्र बनकर रह गयी.
दूसरी ओर आदिवासी समुदाय द्वारा संवैधानिक अधिकारों के लिए उठी मांग का क्रूरतापूर्वक दमन होता रहा है. हाल ही में उठे आदिवासियों के पत्थलगड़ी आंदोलन का आधार भी पांचवीं अनुसूची ही था. दुखद है कि संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद आदिवासी अपनी जमीन से बेदखल-विस्थापित हो रहे हैं और इसमें राज्य सरकारों की भूमिका से इनकार नहीं है.
पिछले सप्ताह ही फिर से रांची में आदिवासी संगठनों द्वारा बहुत बड़े पैमाने पर पांचवीं अनुसूची को लागू करने की मांग उठायी गयी. पांचवीं अनुसूची न सिर्फ शासन के विकेंद्रीकरण के विचार का उदाहरण है, बल्कि यह आदिवासियों की सामाजिक व्यवस्था के सह-अस्तित्ववादी दर्शन का वाहक भी है. यह आदिवासी समाज के गौरवमयी इतिहास का परिणाम है. क्या सरकारें भी इसे ऐसे ही देखती हैं?

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