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जनतंत्र और ज्ञान परंपरा

मनींद्र नाथ ठाकुर एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू manindrat@gmail.com हाल के दिनों में यह बात लगभग साफ हो गयी है कि दुनियाभर में जनतंत्र और पूंजीवाद के बीच का रिश्ता बदलता जा रहा है. पूंजीवाद ने अपने प्रारंभिक दिनों में जनतंत्र की लड़ाई लड़ी थी. फ्रांस की क्रांति इसका अच्छा उदाहरण है. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी […]

मनींद्र नाथ ठाकुर
एसोसिएट प्रोफेसर, जेएनयू
manindrat@gmail.com
हाल के दिनों में यह बात लगभग साफ हो गयी है कि दुनियाभर में जनतंत्र और पूंजीवाद के बीच का रिश्ता बदलता जा रहा है. पूंजीवाद ने अपने प्रारंभिक दिनों में जनतंत्र की लड़ाई लड़ी थी. फ्रांस की क्रांति इसका अच्छा उदाहरण है. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी ऐसा कुछ देखा जा सकता है. लेकिन 2008 के आर्थिक संकट के बाद से पूंजी मालिकों को जनतंत्र खतरनाक लगने लगा है. इसलिए एक नयी तरह की राजनीति जन्म ले रही है.
इस नयी राजनीति की खासियत है कि इसमें ज्ञान की संस्थाओं पर आक्रमण हो रहा है. बुद्धिजीवियों को पहले तो बेकार बताया जाता है, फिर उन्हें समाज के लिए खतरनाक बताया जाने लगता है. शिक्षा को व्यापार का दर्जा मिलने लगता है. भारत जैसे देश में तो शिक्षा सामाजिक बदलाव का माध्यम है, लेकिन यहां भी उसे निजी क्षेत्र को सौंप दिया जा रहा है.
ऐसे में जनतंत्र की सुरक्षा का दायित्व ज्ञान के साधकों का ही होगा. यह समझ लेना जरूरी है कि इस दायित्व का निर्वाह भी आसान नहीं है.
इस तरह की राजनीति ने अासन्न खतरे को देखते हुए पहले से ही समाज में उनकी इज्जत की मिट्टी पलीद कर दी है. यह नयी राजनीति आम जनों को यह समझाने में सफल हो गयी है कि बुद्धिजीवी तो विकास के विरोधी हैं, क्योंकि उन्हें पर्यावरण की चिंता है, विस्थापित लोगों की चिंता है.
इतना ही नहीं, उनमें से ज्यादातर लोग तो राष्ट्र-विरोधी भी हैं, क्योंकि उन्हें मानवाधिकार की चिंता है, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की चिंता है. यह सब कुछ वे टैक्स देनेवाली आम जनता के पैसों से कर रहे हैं. और विकास के लिए ज्ञान की जरूरत नहीं है, बल्कि कड़ी मेहनत चाहिए. इसलिए अब देश को आगे बढ़ना है, तो काम करना होगा और बौद्धिक मंथन जरूरी नहीं है.
ऐसे में समय आ गया है भारतीय ज्ञान परंपरा से सबक लेने की. भारत में आज तक का सबसे बड़ा साम्राज्य था मगध. कहते हैं कि मगध सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य का राज्यारोहण उनके गुरु चाणक्य के राजनीतिक ज्ञान के प्रयोग की कहानी भी थी. नये राज्य की स्थापना में सफलता के बाद चाणक्य की चिंता थी कि इसे सुदृढ़ कैसे बनाया जाये. उन्होंने एक ही सूत्र राजा को दिया कि जनता को अपने साथ रखो.
जो बात इटली के प्रसिद्ध चिंतक और आधुनिक राजनीतिशास्त्र के जनक मेकियावेली को उनसे अलग करती है, वह एक साधारण सूत्र है कि राज्य और राजा का एक ही उद्देश्य होना चाहिए- जनता की भलाई के लिए काम करना. इसके विपरीत मेकियावेली का मानना था कि उसे मूर्ख बनाकर ही ज्यादा समय तक राज करना संभव है. यदि राजतंत्र के समय भारतीय ज्ञान परंपरा ने जनहित को राजनीति का आधार माना था, तो आज के जनतंत्र के लिए तो यह एक अनिवार्य शर्त है.
क्या जनता अपने हित को समझने में सक्षम है? क्या जनता जनतांत्रिक नैतिकता से सहमत हो पाती है? भारतीय ज्ञान परंपरा में इसके लिए अनेक ग्रंथों की रचना हुई है और उन्हें आम लोगों के द्वारा पढ़े जाने की परंपरा रही है. आज सवाल यह नहीं है कि विश्वविद्यालयों में राजनीति के ज्ञान का कितना विकास हो रहा है, बल्कि इस नयी राजनीति ने यह प्रमाणित कर दिया है कि जनतंत्र की सुरक्षा के लिए आम लोगों की राजनीति की शिक्षा जरूरी है.
राजनीति के ज्ञान को केवल कुछ लोगों के भरोसे छोड़ देना सही नहीं है. इसलिए जनतंत्र की रक्षा के लिए कुछ भारतीय ग्रंथों का अनुशीलन दुनिया के हर समाज में होना चाहिए.
कौटिल्य के अर्थशास्त्र को ही लें. इस ग्रंथ का मूल कथ्य है एक ऐसे समाज की स्थापना करना, जिसमें ‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया. सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्…’ की संभावना हो सके.
इसमें यह भी चर्चा है कि ऐसे समाज को बनाने और बनाये रखने के लिए कैसे राजनेता की जरूरत है, उसकी शिक्षा-दीक्षा कैसे की जानी चाहिए, आदि. एक तरह से यह जनता को भी समझाने का प्रयास है कि आपको अपना राजनेता चुनते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए. यदि राजा का स्थितप्रज्ञ होना जरूरी है और जनतंत्र में जनता ही राजा है, तो फिर जनता का भी स्थितप्रज्ञ होना जरूरी होगा.
इसी तरह पंचतंत्र को देखें. कहानी के अनुसार एक राजा अपने पुत्रों की मूर्खता से विचलित था. वह पंडितों को आमंत्रित करता है, उनसे अनुरोध करता है कि उन्हें उचित शिक्षा दी जाये. लेकिन पंडितों का मानना था कि व्याकरण, न्याय, सांख्य, अर्थशास्त्र की शिक्षा देने में तो बहुत वर्ष लग जायेंगे. राजा के पास इतना समय नहीं था. फिर अस्सी वर्ष के बुजुर्ग पंडित विष्णु शर्मा ने यह दायित्व लिया और केवल छह महीने में शिक्षा देने के लिए एक नयी विधा खोज निकाली.
इस पुस्तक में कहानियों के माध्यम से राजनीति की शिक्षा दी गयी. यह पुस्तक दुनियाभर में गयी और अपने अलग-अलग रूपों में इसने चिंतकों और आम जनता को प्रभावित किया. हमारे समाज ने ही इसे भुला दिया है. इन कहानियों को तंत्र से अलग कर बच्चों को परोसा जा रहा है. जरूरत है रामकथा और भागवत कथा की तरह पंचतंत्र के कथावाचन की. यदि जनता में राजनीतिक चेतना का अभाव होगा, तो जनतंत्र कभी सुरक्षित नहीं रह सकता है.
ऐसे और भी अनेक उदाहरण लिये जा सकते हैं. मेरे खयाल से ‘सिंहासन बत्तीसी’ भी लोगों की राजनीतिक चेतना के लिए बनी कहानियां हैं.
जैसे ही राजा भोज सिंहासन पर बैठना चाहता है, एक-एक कर बत्तीस पुतलियां निकलती हैं और उनसे सवाल करती हैं. इस परीक्षा में सफल होने के बाद ही उन्हें सिंहासन का अधिकारी माना जाता है. ये सवाल आम जनता के सवाल हैं. विक्रम और बेताल के बीच का संवाद भी ऐसा ही एक उदाहरण है. यहां तक कि ‘योग वशिष्ठ’ में राम और वशिष्ठ के बीच का संवाद राजनीति के सूत्रों को आम लोगों तक पहुंचाने का माध्यम है.
इस आर्थिक संकट के दौर में जब राजनीति ने जनहित के बदले पूंजी को अपना प्रभु माना है, तो चुनावी जनतंत्र भी प्रबंधन हो गया है. प्रबंधन की तकनीक से जनता की चेतना को प्रभवित करना खतरनाक है, क्योंकि उससे अंधभक्ति की संभावना है.
जनतांत्रिक मूल्यों के बिना जनतंत्र की सुरक्षा संभव नहीं है. इसके लिए भारतीय ज्ञान परंपरा से सूत्रों को पकड़ना जरूरी है. इन पुस्तकों के माध्यम से जनता और बुद्धिजीवियों के बीच संवाद संभव है. जिन कठिन ग्रंथों की रचना आज के बुद्धिजीवी कर रहे हैं, उसकी जरूरत तो है, लेकिन वह यथेष्ट नहीं है.

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