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Friday, March 29, 2024

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लोकतंत्र का अर्थ है संवाद

अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org भारतीय गणतंत्र की स्थापना के ठीक पहले, नवंबर 1949 में संविधान सभा में दिये गये अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ आंबेडकर ने चेतावनी दी कि भारत को सियासी समानता तथा सामाजिक और आर्थिक असमानता के बीच चौड़ी होती खाई का सामना करना ही चाहिए. सियासी समानता भारतीय संविधान […]

अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
भारतीय गणतंत्र की स्थापना के ठीक पहले, नवंबर 1949 में संविधान सभा में दिये गये अपने ऐतिहासिक भाषण में डॉ आंबेडकर ने चेतावनी दी कि भारत को सियासी समानता तथा सामाजिक और आर्थिक असमानता के बीच चौड़ी होती खाई का सामना करना ही चाहिए. सियासी समानता भारतीय संविधान का बुनियादी आधार है, जबकि सामाजिक और आर्थिक असमानता भारतीय समाज एवं अर्थव्यवस्था की विकासात्मक वास्तविकताएं हैं.
सामाजिक गैर-बराबरी हमारे इतिहास का एक तथ्य है, और आधुनिक गणतंत्र उसे पूरी तरह उन्मूलित नहीं, तो नियंत्रित करने का एक प्रयास है. वहीं आर्थिक असमानता उस बाजार आधारित पूंजीवादी व्यवस्था का नतीजा है, जिसे हमने अपनाया है. यदि सामाजिक गैर-बराबरी के मुकाबले के लिए सामाजिक नीतियां न हों, तो वह बनी रहती है अथवा बदतर होती जाती है, जबकि आर्थिक असमानता इसलिए बनी रहती है कि वह पूंजीवादी एवं बाजार आधारित व्यवस्था का एक चरित्र है.
थॉमस पिकेटी एवं अन्य अर्थशास्त्रियों की हालिया पुस्तकें यह व्याख्या करती हैं कि पूंजीवाद न केवल असमानता को यथावत छोड़ देता है, बल्कि एक अरसे में उसे और बुरा कर देता है. इसलिए, डॉ आंबेडकर की चेतावनी पर गौर करते हुए हमें इन दोनों प्रवृत्तियों के प्रतिकार हेतु सक्रिय सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों की आवश्यकता है, जो-चाहे वे विधायी कार्रवाई, आरक्षण, पुनर्वितरण के जरिये लागू हों या चरणबद्ध कराधान से- अंततः विवादात्मक मुद्दों में तब्दील हो जाती हैं. यही वजह है कि हम इन विवादों को लोकतांत्रिक ढंग से निपटाते हैं, क्योंकि लोकतंत्र का अर्थ ऐसा संवाद ही होता है.
‘जन इच्छा’ को प्रायः चुनावों या जनमतसंग्रह द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है. मगर एक बार फिर, लोकतंत्र का अर्थ सिर्फ उतना ही नहीं, बल्कि यह भी है कि हम अपनी सरकार को किस तरह संचालित करते हैं. स्पष्ट है कि इसमें चर्चा, संवाद, बहसें, मतभेद तथा असहमतियां शामिल हैं.
इसमें सत्ता का विकेंद्रीकरण भी सम्मिलित है, ताकि वह अत्यधिक असमान न हो जाये और उसका प्रयोग ‘नियंत्रण तथा संतुलन’ की प्रक्रिया के अंतर्गत हो. अंततः, लोकतंत्र का आशय उन निर्णयों से है, जो हमारे दैनंदिन जीवन को प्रभावित करते हैं. लोकतंत्र में हम जोरदार ढंग से असहमत तो हो सकते हैं, पर हमें उस असहमति का शिकार बन जाने की जरूरत नहीं होती. एक बार जब बहस समाप्त हो जाये, तो सभी पक्षों को फैसला स्वीकार करते हुए आगे का रुख करना होता है.
कोई चुनाव चाहे जितनी भी कड़वाहट से लड़ा जाये, जब एक बार नतीजा तय हो जाता है, तो सभी उसे मान लेते हैं. ब्रिटिश जनता ने ब्रेक्जिट का फैसला लगभग साढ़े तीन वर्ष पूर्व जनमतसंग्रह द्वारा लिया था, पर इतने दिनों बाद भी वहां के नेताओं को यह याद दिलाना पड़ता है कि उसका यह फैसला एक लोकतांत्रिक नतीजा था, जिसका विरोध नहीं होना चाहिए. यही स्थिति अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति पद पर निर्वाचन में भी सामने आयी.
तो क्या लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में ही ऐसा कुछ है, जो ठीक उसी तरह आत्यंतिक ध्रुवीकरण तक ले जाता है, जिस तरह पूंजीवाद आय तथा संपत्ति की असमानता तक पहुंचा देता है? हमारी तरह की बहुदलीय व्यवस्था में सभी पार्टियां चुनाव लड़ने और सरकार बनाने की स्पर्धा करती हैं.
चूंकि जिसे भी अन्य से अधिक मत आ जाये, वह विजयी घोषित होता है, इसलिए एक चतुष्कोणीय मुकाबले में प्रायः 12.5 अथवा 13 प्रतिशत मत पानेवाला उम्मीदवार भी एक ‘अल्पमतीय जीत’ का लाभ उठा ले जाता है. यह चुनावी स्पर्धा जितनी ही तीव्र होती है, ‘कट्टर समर्थकों’ की 12.5, 15 अथवा 18 प्रतिशत संख्या की भावनाओं का उतना ही अधिक खयाल रखा जाता है. ऐसे ही संघर्षों में प्रतिस्पर्धी पार्टियों द्वारा विभेदों को उजागर करने से उन्हें लाभ पहुंचता है. यदि चुनाव किसी खास पहचान या जाति के आधार पर लड़े जा रहे हों, तो इन विभेदों को उजागर करना और भी आसान हो जाता है.
इसलिए, सिद्धांतों की तो बात ही छोड़िए, इसमें कोई अचरज नहीं कि भारत में बहुत-से चुनाव विकासात्मक मुद्दों एवं रोजगारों की बजाय पहचान की सियासत पर लड़े जाते हैं, क्योंकि इससे साढ़े बारह प्रतिशत ‘कट्टर समर्थकों’ के आधार में और भी मजबूती आती है, जो जीत के लिए बहुत जरूरी है.
अब, जब सूक्ष्म-स्तरीय मार्केटिंग, इलेक्ट्रॉनिक एवं सोशल मीडिया के द्वारा संदेश प्रेषण की आधुनिक तकनीकों के उपयोगों से चुनाव अत्यधिक स्पर्धात्मक हो चले हैं, तो धन बल के अहमियत में खासा इजाफा हो जाता है, जिसे विभिन्न निर्वाचन आयोगों एवं विधि आयोगों द्वारा बार-बार ध्यान में लाया जा चुका है.
धन बल चुनावी कदाचार तथा चुनावी कानूनों के उल्लंघन तक ले जाता है. धन बल में कमी, अपराधियों का उन्मूलन, तथा चुनावी प्रक्रिया को स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा निडर बनाने समेत चुनावी सुधारों के व्यापक मुद्दे इस आलेख के दायरे से बाहर हैं, पर जहां तक चुनाव-पूर्व ध्रुवीकरण जैसे खास मुद्दे का सवाल है, एक अल्पमतीय जीत की संभावना कम किया जाना इस दिशा में एक प्रभावी कदम हो सकता है.
फ्रांसीसी चुनाव प्रणाली इसका एक समाधान दे सकती है, जो एक द्वि-चरणात्मक प्रक्रिया है. प्रथम चरण में सभी पार्टियां स्पर्धा करती हैं और दूसरे चरण में केवल दो शीर्ष पार्टियों में मुकाबला होता है. इस तरह, द्वितीय चरण में जीतनेवाली पार्टी स्वतः 50 प्रतिशत से ऊपर मत लाती है. यदि किसी पार्टी को प्रथम चरण में ही 50 प्रतिशत से अधिक मत मिल जायें, तो उस मामले में द्वितीय चरण की आवश्यकता ही नहीं होती.
एक व्यापक आधारीय जीत की जरूरत यह सुनिश्चित कर देती है कि कोई भी पार्टी किसी संकीर्ण अथवा अत्यंत विभाजक पहचान संबंधी मुद्दे को संबोधित करने का जोखिम ले ही नहीं सकती. नतीजतन, सारी बहसें विकास, रोजगार, पर्यावरण तथा सामाजिक मुद्दों की ओर मोड़नी पड़ेंगी.
भारत जैसे बहुदलीय एवं विविधताभरे लोकतंत्र में अल्पमतीय जीत की भी एक उपयोगिता है, इसलिए उससे किनारा करने की भी जरूरत नहीं, पर हमें चुनावी राजनीति के ध्रुवीकरण को उसी तरह कम करना होगा, जिस तरह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के अंतर्गत संपत्ति की आत्यंतिक असमानता में न्यूनता लाने को ‘पुनर्वितरणात्मक कराधान’ का सहारा लिया जाता है.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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