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कैसे भरोसेमंद बने बैंकिंग प्रणाली

अजित रानाडे सीनियर फेलो तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org पंजाब एवं महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक (पीएमसी) के खातों को ‘फीज’ करना तथा उसके द्वारा ऋण देना और जमा राशियां स्वीकार करना रोकने से एक बार फिर बैंकों तथा खासकर कोऑपरेटिव बैंकों की जोखिमशीलता उजागर हुई है. आरबीआइ ने जिस तरह एकाएक इसके खातों को फ्रीज कर दिया, उससे […]

अजित रानाडे
सीनियर फेलो
तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
पंजाब एवं महाराष्ट्र कोऑपरेटिव बैंक (पीएमसी) के खातों को ‘फीज’ करना तथा उसके द्वारा ऋण देना और जमा राशियां स्वीकार करना रोकने से एक बार फिर बैंकों तथा खासकर कोऑपरेटिव बैंकों की जोखिमशीलता उजागर हुई है.
आरबीआइ ने जिस तरह एकाएक इसके खातों को फ्रीज कर दिया, उससे जमाधारकों में क्षोभ तथा सदमें की लहर छा गयी. इसने अब उन्हें प्रति खाता दस हजार रुपये निकलने की छूट दे दी है, ताकि उनकी जरूरतें पूरी हो सकें. ऐसे मामले भी सामने आये हैं, जिनमें जमा धारकों ने अपने पूरे जीवन की बचत पीएमसी में जमा कर रखी है और यह स्वाभाविक है कि उन्हें कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा. ऐसा हो सकता है कि अंततः सभी
जमाधारकों को उनकी समस्त जमाराशियां वापस मिल जाएं, पर इसमें कुछ वक्त लगेगा. इस वर्ष आरबीआई द्वारा ऐसी कार्रवाई का शिकार होनेवाला यह कोई पहला कोऑपरेटिव बैंक नहीं है. पैसे निकालने तथा नये ऋण देने पर रोक की जरूरत आगे अधिक गंभीर संकट को टालने के लिए पड़ती है. आरबीआइ के अनुसार, 1542 नगरीय कोऑपरेटिव बैंकों में 46 का शुद्ध मूल्य नकारात्मक है.
पर विफलता का यह खतरा केवल कोऑपरेटिव बैंकों के ही नहीं, बल्कि वाणिज्यिक बैंकों के सामने भी मंडराता है. पिछले वर्ष आरबीआइ ने सार्वजनिक क्षेत्र के ग्यारह बैंकों को त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) के अंतर्गत डाला था और उसमें भी नये ऋण देने पर प्रतिबंध था, क्योंकि उनका डूबा ऋण अनुपात बहुत ऊंचा हो चुका था. वर्तमान में आरबीआइ ने एक अन्य बैंक, लक्ष्मी विलास बैंक, पर भी प्रतिबंध लगा रखे हैं.
अब हम जरा रुक कर कुछ बुनियादी प्रश्नों पर गौर करें. जब जमाकर्ता अपनी मेहनत की कमाई बैंकों में डालते हैं, तो क्या वस्तुतः वे एक जोखिम उठाते है? यदि हां, तो क्या उनकी जमा राशियों के लिए बैंक जैसी ही तरलता का कोई जोखिम-मुक्त विकल्प मौजूद है? ऐसा क्यों है कि कोऑपरेटिव बैंकों तथा अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की धारणात्मक या वास्तविक जोखिमों में एक फर्क होता है?
यहां तक कि क्यों ऐसे अंतर सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों अथवा भारतीय और विदेशी बैंकों के बीच भी होते हैं? क्या बुरे ऋणों अथवा उससे भी बदतर, बैंकों के शीर्ष प्रबंधन की धोखाधड़ी का खामियाजा जमाकर्ताओं को भुगतना चाहिए? यदि कोई धोखाधड़ी लंबे वक्त तक उजागर नहीं हो पाती, तो जिम्मेदार कौन है?
अंकेक्षकों की जिम्मेदारी क्या है, जो बैंकों के संबंध में अपनी रिपोर्टों में जोखिमों को जानबूझ कर उजागर नहीं करते? निरीक्षकों तथा पर्यवेक्षकों की जिम्मेदारी क्या है? यदि कारोबार में मंदी अथवा धोखाधड़ी अथवा दोनों के चलते कोई बैंक विफल हो, तो क्या जमा बीमा सभी जमाकर्ताओं को सुरक्षा दे सकता है? क्या वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा (एफआरडीआइ) विधेयक, जिसे संसद से अस्थायी रूप से वापस ले लिया गया है, इन सारी समस्याओं का समाधान प्रस्तुत करता है?
जब बैंक निदेशकों के निकटस्थों को बड़े ऋण मुहैया किये जाते हैं, तो यह संकट किस सीमा तक गवर्नेंस की चूकों का नतीजा होता है? उपर्युक्त सारे प्रश्नों के उत्तर इस आलेख की सीमा के बाहर हैं, जिनके लिए विस्तृत शोध तथा सहायक आंकड़ों की जरूरत होगी. तथ्य यह है कि भारतीय बैंकिंग का दो-तिहाई सार्वजनिक क्षेत्र में और बहुत हद तक सरकारी स्वामित्व के अंतर्गत है.
इससे यह छवि बनती है कि जमा राशियां हमेशा सुरक्षित रहेंगी, चाहे जमा बीमा के नियम जो भी हों. वर्ष 2017 के एफआरडीआइ विधेयक को उसके सिर्फ एक प्रावधान पर मचे सार्वजनिक कोहराम की वजह से वापस लेना पड़ा था, जिसका तात्पर्य यह था कि बैंक के विफल होने की स्थिति में बीमित राशि के ऊपर की सार्वजनिक जमा राशियों का इस्तेमाल बैंक का संकट टालने के लिए किया जा सकेगा.
मतलब यह कि जमाकर्ताओं की प्रत्यक्ष सहमति के बगैर ही उन्हें बैंक का शेयरधारक बना दिया जा सकता था. यह सार्वजनिक बैंकों से ‘स्थिर आय’ की मानसिकता वाले जमाकर्ताओं के लिए स्वीकार्य न था. यह एक तथ्य है कि जमाकर्ता निजी तथा विदेशी बैंकों पर सार्वजनिक बैंकों को इसलिए भी तरजीह देते हैं कि वे उसमें अपनी जमा राशियों को सुरक्षित समझते हैं.
क्या इसकी वजह बैंकों का वह राष्ट्रीयकरण था, हाल ही जिसकी पचासवीं वर्षगांठ मनायी गयी है? राष्ट्रीयकरण को लेकर चाहे जो भी कहा जाए, यह एक तथ्य है कि उससे बैंक शाखाओं का व्यापक विस्तार तथा जमा राशियों के रूप में राष्ट्रीय बचत का बड़े पैमाने पर बैंकों में आगमन संभव हो सका. बैंकों का राष्ट्रीयकरण एक सियासी फैसला था, मगर आज तक भी उनके निजीकरण अथवा निःराष्ट्रीयकरण को सियासी पार्टियों का समर्थन नहीं मिल पाता. यहां तक कि जन-धन योजना के अंतर्गत बैंक खातों में रिकॉर्ड बढ़ोतरी तथा शून्य बैलेंस खाता जैसी चीजें भी मुख्यतः सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की वजह से ही संभव हो सकीं.
पिछले चार वर्षों के अंदर सरकार द्वारा बैंकों में लगभग तीन लाख करोड़ रुपये की इक्विटी पूंजी डाली गयी है, पर उनका सम्मिलित बाजार मूल्य सिर्फ पांच लाख करोड़ रुपये ही है. ऐसा लगता है कि स्टॉक बाजार के निवेशक इन बैंकों से न तो प्रभावित और न ही उन्हें लेकर आशान्वित हैं. सरकार भी उनकी संख्या में कमी लाने, उनकी समरूपता का लाभ उठाने और उनका प्रदर्शन बेहतर करने को उनके विलय और सुदृढ़ीकरण का सहारा ले रही है.
बैंकिंग क्षेत्र में सुधार एक लंबा किंतु जरूरी सफर है. अर्थव्यवस्था को इसकी दरकार है कि वित्तीय क्षेत्र को काफी गहरा तथा अधिक औपचारिक बनाया जाए.
बचतकर्ताओं को इस तथ्य के प्रति अवश्य जागरूक किया जाना चाहिए कि अपने पैसे को निजी या सार्वजनिक बैंकों में रखना जोखिम भरा है. जमा बीमा सुरक्षा के बावजूद बैंक विफल हो सकते हैं और होंगे. उनका निजी या सार्वजनिक स्वामित्व अधिक मतलब नहीं रखता, मगर प्रबंधकीय स्वायत्तता तथा गवर्नेंस के मानक अहम हैं.
उसी तरह अंकेक्षकों तथा रेटिंग एजेंसियों की निष्ठा महत्वपूर्ण है. विनियामक की भी बड़ी जिम्मेदारी है. भारतीय वित्त पर बैंकों का दबदबा रहेगा, पर उनके स्वस्थ विकास के लिए पूंजी आधार का सर्वांगीण सुदृढ़ीकरण, एफआरडीआइ जैसे सुधार, मजबूत गवर्नेंस एवं स्वायत्तता तथा अधिक सजग एवं सक्रिय निगरानीकर्ताओं की जरूरत है.
(अनुवाद: विजय नंदन)

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