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अयोध्या : सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करेगा मुस्लिम पक्ष

लखनऊ/नयीदिल्ली : ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) आैर देश के प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने अयोध्या मामले पर उच्चतम न्यायालय के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का फैसला किया है. बोर्ड के सचिव जफरयाब जीलानी ने बोर्ड की वर्किंग कमेटी की बैठक में लिए गये निर्णयों की जानकारी देते हुए […]

लखनऊ/नयीदिल्ली : ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) आैर देश के प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने अयोध्या मामले पर उच्चतम न्यायालय के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल करने का फैसला किया है.

बोर्ड के सचिव जफरयाब जीलानी ने बोर्ड की वर्किंग कमेटी की बैठक में लिए गये निर्णयों की जानकारी देते हुए प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि बैठक में फैसला लिया गया है कि अयोध्या मामले पर गत नौ नवंबर को दिये गये उच्चतम न्यायालय के निर्णय पर पुनर्विचार याचिका दाखिल की जायेगी. उन्होंने कहा, बोर्ड का मानना है कि मस्जिद की जमीन अल्लाह की है और शरई कानून के मुताबिक वह किसी और को नहीं दी जा सकती. उस जमीन के लिए आखिरी दम तक कानूनी लड़ाई लड़ी जायेगी.

जीलानी ने कहा कि 23 दिसंबर 1949 की रात बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां रखा जाना असंवैधानिक था तो उच्चतम न्यायालय ने उन मूर्तियों को आराध्य कैसे मान लिया. वे तो हिंदू धर्म शास्त्र के अनुसार भी आराध्य नहीं हो सकते. जीलानी ने यह भी बताया कि बोर्ड ने मस्जिद के बदले अयोध्या में पांच एकड़ जमीन लेने से भी साफ इनकार किया है. बोर्ड का कहना है कि मस्जिद का कोई विकल्प नहीं हो सकता.

दूसरीओर देश के प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी ने रविवार को कहा कि उनका संगठन अयोध्या मामले पर उच्चतम न्यायालय के फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करेगा. इस विषय पर संगठन की ओर से बनाये गये पांच सदस्यीय पैनल की कानून के विशेषज्ञों से विचार-विमर्श करने के बाद बनी राय के आधार पर यह निर्णय लिया गया. मौलाना मदनी ने एक बयान में कहा, माननीय उच्चतम न्यायालय ने एक हजार से अधिक पृष्ठों वाले निर्णय में मुस्लिम पक्ष के अधिकतर तर्कों को स्वीकार किया. ऐसे में अभी भी कानूनी विकल्प मौजूद हैं. उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमान मस्जिद स्थानांतरित नहीं कर सकता इसलिए वैकल्पिक जमीन लेने का सवाल ही नहीं उठता.

मदनी ने दावा किया, अदालत ने पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट से यह स्पष्ट कर दिया कि मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को तोड़कर नहीं किया गया और 1949 में मस्जिद के बाहरी हिस्से में अवैध रूप से मूर्ति रखी गयी और फिर वहां से उसे अंदर के गुंबद के नीचे वाले हिस्से में स्थानांतरित किया गया, जबकि उस दिन तक वहां नमाज का सिलसिला जारी था. मदनी ने कहा, अदालत ने भी माना कि 1857 से 1949 तक मुसलमान वहां नमाज पढ़ता रहा तो फिर 90 साल तक जिस मस्जिद में नमाज पढ़ी जाती हो उसको मंदिर को देने का फैसला समझ से परे है.

जमीयत प्रमुख ने कहा कि पुनर्विचार याचिका पर विरले ही निर्णय बदले जाते हैं, लेकिन फिर भी मुसलमानों को न्याय के लिए कानूनी तौर पर उपलब्ध विकल्पों का उपयोग करना चाहिए. उन्होंने यह सवाल भी किया, अगर मस्जिद को ना तोड़ा गया होता तो क्या अदालत मस्जिद तोड़कर मंदिर बनाने के लिए कहती? दरअसल, पुनर्विचार याचिका को लेकर संगठन में सहमति नहीं बन पा रही थी जिस वजह से पांच सदस्यीय पैनल बनाया गया था. अयोध्या मामले में उच्चतम न्यायालय में मुस्लिम पक्ष की पैरवी कर चुकी जमीयत की कार्य समिति की बृहस्पतिवार को हुई मैराथन बैठक में पुनर्विचार याचिका को लेकर कोई सहमति नहीं बन पायी थी.

सूत्रों के मुताबिक, संगठन के कई शीर्ष पदाधिकारियों की राय थी कि अब इस मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए, लेकिन कई पदाधिकारी पुनर्विचार याचिका दायर करने की दिशा में कदम बढ़ाने पर जोर दे रहे थे. सहमति नहीं बन पाने के कारण जमीयत की ओर से पांच सदस्यीय पैनल बनाया गया. इसमें जमीयत प्रमुख मौलाना अरशद मदनी, मौलाना असजद मदनी, मौलाना हबीबुर रहमान कासमी, मौलाना फजलुर रहमान कासमी और वकील एजाज मकबूल शामिल थे. मौलाना मदनी ने बृहस्पतिवार को कहा था कि अयोध्या मामले पर शीर्ष अदालत का फैसला कानून के कई जानकारों की समझ से बाहर है. उन्होंने यह भी कहा था कि अयोध्या मामले में फैसला सुनाते हुए उच्चतम न्यायालय ने जो पांच एकड़ भूमि मस्जिद के लिए दी है, उसे सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को नहीं लेना चाहिए.

गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय ने गत शनिवार को सर्वसम्मत फैसले में अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दिया और केन्द्र को निर्देश दिया कि नयी मस्जिद के निर्माण के लिये सुन्नी वक्फ बोर्ड को प्रमुख स्थान पर पांच एकड़ का भूखंड आवंटित किया जाए। प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इस व्यवस्था के साथ ही राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील 134 साल से भी अधिक पुराने इस विवाद का निपटारा कर दिया.

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