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बच्चे गाइड-कोचिंग न पढ़ें, तो क्या करें

राजेंद्र तिवारी कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर दसवीं व बारहवीं की परीक्षाएं होनेवाली हैं. खेलना, घूमना, खाना-पीना व सोना छोड़ कर बच्चे पढ़ाई में लगे हैं. सुबह कोचिंग है, तो शाम को होम ट्यूशन. 15 से 18 साल की यह पीढ़ी इस समय भयानक दबाव में है अच्छे नंबरों से परीक्षा पास करने के. माता-पिता भी […]

राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
दसवीं व बारहवीं की परीक्षाएं होनेवाली हैं. खेलना, घूमना, खाना-पीना व सोना छोड़ कर बच्चे पढ़ाई में लगे हैं. सुबह कोचिंग है, तो शाम को होम ट्यूशन. 15 से 18 साल की यह पीढ़ी इस समय भयानक दबाव में है अच्छे नंबरों से परीक्षा पास करने के. माता-पिता भी लगे हैं. जिस परिवार में इस उम्र के बच्चे हैं, वहां टीवी, फिल्म, गाना, आउटिंग आदि सब बंद है.
मेरे घर में भी ऐसा ही है, मैथ्स, फिजिक्स, केमिस्ट्री से 12वीं की परीक्षा की तैयारी चल रही है. चूंकि मैंने भी इन्हीं विषयों से 12वीं पास की थी और पीजी तक स्टैटिस्टिक्स की पढ़ाई की थी, लिहाजा लगा कि कम से कम मैथ्स व फिजिक्स में कुछ मदद तो मैं भी कर सकता हूं. बस ये सब्जेक्ट दोहराने पड़ेंगे, क्योंकि फिजिक्स छोड़े 30 साल हो गये और मैथ्स-स्टैट्स छोड़े 24 साल.
सीबीएसइ की मैथ्स की टेक्स्टबुक लेकर बैठा. स्टैटिस्टिक्स का स्टूडेंट रहा हूं, तो सबसे पहले प्रोबैबिलिटी के चैप्टर पर पहुंचा. शुरुआती तीन-चार पन्ने पढ़ गया. कंडीशनल प्रोबैबिलिटी से शुरुआत थी. लेकिन यह क्या? इन टेक्स्टबुक में तो फाॅर्मूले पहले ही दे दिये गये और फिर उनको प्रूव कर दिया गया. इसके बाद कुछ उदाहरण.
फिर नया टाॅपिक…… और फिर वैसे ही फाॅर्मूले, उनका प्रूफ और कुछ उदाहरण. मैंने बच्चे से पूछा, क्या तुमको कंडीशनल प्रोबैबिलिटी का मतलब समझाया गया है, तो बच्चे ने फाॅर्मूला सुना दिया. खैर, मैंने अपने जमाने में बीएससी की एक टेक्स्टबुक तलाशी. बच्चे को आम जिंदगी के उदाहरणों से समझाया कि प्रोबैबिलिटी का मतलब क्या है. उदाहरण के जरिये ही पहुंचा कंडीशनल प्रोबैबिलिटी पर और फिर उदाहरण से ही फाॅर्मूला बना कर दिखाया.
यह सब यहां लिखने के पीछे मेरा उद्देश्य यह बताना नहीं है कि मुझे प्रोबैबिलिटी आती है, बल्कि यह बात सामने लाना चाहता हूं कि आज बच्चों की टेक्स्टबुक्स की क्वाॅलिटी बहुत खराब हो गयी है. यह सिर्फ मैथ्स की ही बात नहीं है, फिजिक्स की मौजूदा टेक्स्टबुक्स भी बहुत कमजोर हैं. बाकी विषयों की भी होंगी ही. मुझे याद आता गया कि कैसे 12वीं क्लास में हमारे गणित टीचर ने ताश के पत्तों और सिक्कों के जरिये बहुत आसानी से रैंडमनेस और प्रोबैबिलिटी का कॉन्सेप्ट समझा दिया था और उसके बाद टेक्स्टबुक खोली थी.
टेक्स्टबुक में भी आम उदाहरणों के जरिये टाॅपिक समझाया गया था कि यदि बच्चा क्लास में पढ़ ले और फिर टेक्स्टबुक दोहरा ले, तो उसे किसी और मदद की जरूरत थी ही नहीं. लेकिन आज की टेक्स्टबुक्स? लगता है कि ये लिखी ही इस तरह गयी हैं कि गाइडबुक्स और कोचिंग व्यवसाय को बढ़ावा मिल सके. क्या यह किसी की चिंता का विषय है? शायद नहीं.
आज से 30-40 साल पहले तक कोचिंग में जाना गर्व का विषय नहीं होता था. गिने-चुने कोचिंग संस्थान थे और जो थे, उनमें पढ़ाने को स्कूल-काॅलेजों के शिक्षक अपनी तौहीन समझते थे. बच्चों में भी कोचिंग का क्रेज नहीं था. लेकिन आज? आज देखने में तो यह आता है कि बच्चों में कोचिंग का क्रेज है. लेकिन क्रेज के पीछे की वजह सिर्फ दिखावा नहीं है, बल्कि जरूरत है.
इन टेक्स्टबुक्स के सहारे किसी भी सिद्धांत की अवधारणा समझना कठिन है. यह बात सिर्फ विज्ञान या काॅमर्स के लिए होगी, यह मानना बेमानी होगी. सामाजिक विज्ञान के विषयों में भी टेक्स्टबुक्स की हालत तो अच्छी नहीं ही होगी. सब जगह व्यावसायिकता हावी है, तो इन विषयों में भी होगी ही. अब रही बात स्कूलों व काॅलेजों में अच्छे शिक्षकों की, तो यह समझना कठिन नहीं होना चाहिए कि ऐसी हालत क्यों है? जो बच्चे कुशाग्र होते हैं, पढ़ने में तेज होते हैं, जिनको कॉन्सेप्ट्स क्लीयर होते हैं, वे 10वीं के बाद ही अपना क्षेत्र चुन लेते हैं यानी डाॅक्टर-इंजीनियर या सीए बनने की ओर चले जाते हैं.
इसके बाद जो बचते हैं, वे निजी क्षेत्र और सरकारी नौकरियों में चले जाते हैं. जो बाकी बचते हैं, उनमें से भी कम मेधा वाले लोग ही शिक्षक का व्यवसाय चुनते हैं. और जो मेधावी इस क्षेत्र में जाना भी चाहते हैं, वे इन लोगों की भीड़ देख कर नहीं जाते हैं या फिर विदेश की राह पकड़ लेते हैं. अब जिन्होंने खुद ही कॉन्सेप्ट के लेवल रट्टा का पहाड़ा पढ़ा, उनसे यह उम्मीद करना कि वे बेहतरीन शिक्षा देंगे, बेमानी ही है. उच्च शिक्षा में भी हालत खराब हैं.
आप अपने आसपास की यूनिवर्सिटी को देखिए. अपने समय को याद करिए. उस समय हर विभाग में चार-छह टीचर्स के नाम हुआ करते थे. कई शिक्षक तो वाइस चांसलर से ज्यादा आदर पाते थे. कोई अपनी रिसर्च के लिए जाना जाता था, तो कोई अपने क्षेत्र के विद्वानों के बीच अपनी पहुंच और पकड़ के लिए. लेकिन, आज उन जगहों पर किस तरह के लोग दिखाई देते हैं? मुझे तो बस अदम गोंडवी की लाइन याद आ रही है-
……… परधान (मुखिया) बनके आ गये अगली कतार में. ताज्जुब की बात यह है कि आज कम्युनिकेशन के दौर में भी इस तरह के सवाल समाज में कहीं भी दिखाई नहीं देते, जबकि सोशल मीडिया पर हर तीसरा-चौथा व्यक्ति देश को तथाकथित पुराना गौरव दिलवाने के लिए व्यग्र नजर आता है.
और अंत में……
दिसंबर 2014 में पाकिस्तान के पेशावर में आतंकियों ने आर्मी पब्लिक स्कूल पर हमला बोल कर 140 से ज्यादा बच्चों को गोलियों से भून डाला था. इस घटना की पहली बरसी पर स्कूल के बच्चों ने एक गीत प्रस्तुत किया. इस गीत की लाइनें पढ़ कर किसी भी संवेदनशील व्यक्ति की आंखे गीली हो जायेंगी. पढ़िए इस गीत की लाइनों को-
कलम की जो जगह थी, वो वही है/ पर उसका नाम तक बाकी नहीं है
कलम की नोक पे नुक्ता है कोई/ जो सच हो वो भला झुकता है कोई
वो जिस बचपन ने थोड़ा और जीना था/ वो जिसने मां तुम्हारा ख्वाब छीना था
मुझे मां उससे बदला लेने जाना है/ मुझे दुश्मन के बच्चों को पढ़ाना है
वो जिसको सोच के सोती नहीं मां/ किताबें देख के रोती रही मां
हैं किसकी वापसी की राह तकते/ कि दरवाजा खुला बाबा क्यों रखते
वो जो सारी ही नजरों से गिरा था/ न था इंसान न जिसका खुदा था
मुझे मां उससे बदला लेने जाना है/ मुझे दुश्मन के बच्चों को पढ़ाना है
वो डर के सामने हंसता गया है/ जो अपना छोड़ कर बस्ता गया है
के इक कैसी कहानी लिख गया वो/ किताबों में निशानी रख गया वो
वो माथा चूमनेवाला लहू था/ वो जिसने ख्वाब का भी खूं किया था
मुझे मां उससे बदला लेने जाना है/ मुझे दुश्मन के बच्चों को पढ़ाना है

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