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Friday, March 29, 2024

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कब तक वे हमको टोपी पहनाते रहेंगे

राजेंद्र तिवारी कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर दिल्ली में डेंगू से अमन नाम के बच्चे की मौत शायद इसलिए हो गयी कि अस्पतालों ने उसे भरती करने से मना कर दिया. अमन के पिता उसे लेकर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकते रहे, लेकिन अमन को बचा न सके. अमन के पिता ने बताया कि दिल्ली […]

राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
दिल्ली में डेंगू से अमन नाम के बच्चे की मौत शायद इसलिए हो गयी कि अस्पतालों ने उसे भरती करने से मना कर दिया. अमन के पिता उसे लेकर एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकते रहे, लेकिन अमन को बचा न सके. अमन के पिता ने बताया कि दिल्ली के नामी सफदरजंग अस्पताल में नर्सों ने कहा कि एक तुम्हारा ही बच्चा नहीं मरा जा रहा है.
नर्सें आपस में हंसी-ठिठोली करती रहीं. अमन के पिता बच्चे को लेकर दूसरे अस्पताल गये और फिर तीसरे, चौथे…. किसी ने उसे जगह न दी और अमन की मौत हो गयी. यह दिल्ली का वाकया है, जहां देश के सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर, अस्पताल व सुविधाएं मौजूद हैं, पर मरीज को लेकर इतनी बेरहमी. यह सिर्फ एक घटना नहीं है, यह हमारे समाज के बिजनेस माइंडेड, प्रॉफिट मेकिंग मशीन में बदलते जाने का नतीजा है. बाजारवाद के इस दौर में न संवेदनाएं हैं और न रिश्ते. पिछले दिनों फेसबुक पर मैंने कई ऐसी पोस्ट पढ़ी. आप सबको भी पढ़ाना चाहूंगा.
पोस्ट 1 : यकीन मानिये, पिछले 9 वर्षों में अस्पतालों के चक्कर काटते-काटते एक्सपर्ट हो गया हूं. अस्पताल में भर्ती होने के बाद दिन में डॉक्टर मरीज के साथ ज्यादा से ज्यादा आधा घंटा बिताता है. दो बार राउंड पर. एक राउंड की फीस सिंगल रूम में करीब 1200 रुपये है. बाकी साढ़े तेईस घंटे मरीज नर्सों के भरोसे हैं. कायदे से एक नर्स को दो मरीज से ज्यादा का जिम्मा नहीं दिया जाना चाहिए, पर निजी अस्पतालों में नर्स 4-6 मरीज देखती हैं. कारण साफ है. स्टाफ कम कर अस्पताल खर्च बचाते हैं. यही नहीं अधिकतर नर्सें अनुभवी नहीं होती हैं. फ्रेशर्स को कम वेतन देना पड़ता है और वो काम भी ज्यादा घंटे तक करती हैं.
उन्हें कुछ खास आता-जाता नहीं (उदाहरण- अगर BP की दवा डॉक्टर ने लिखी है, तो BP कम होने पर भी वो दवा देगी जरूर) और उनके हवाले पेचीदा केस करने के पहले अस्पताल सोचता नहीं. वेतन नहीं बढ़ता तो अनुभवी स्टाफ विदेश चला जाता है. निजी अस्पताल पैसे लेकर कैसे काम कर रहे हैं, यह कौन देखेगा? क्या यह सरकार का काम नहीं? सरकार तो इस मामले में धृतराष्ट्र है. और हम? हम गांधारी की भूमिका निभा रहे हैं. जब अपने पर पड़ती है, तभी आंखों से पट्टी उतरती है.
पोस्ट 2 : मैं जब कभी अस्पताल के आसपास होता हूं तो आज भी सोचता हूं कि अव्वल तो भारतवर्ष में जन्म हो नहीं और यदि हो तो भगवान बीमार न करे, सीधा ऊपर बुला ले. यदि आपके पास धन नहीं है, तो बीमारी से बड़ी सजा आपके लिए और आपसे ज्यादा आपसे सीधे जुड़े लोगों के लिए हो नहीं सकती. शायद फांसी भी नहीं. कदम-कदम पर गिद्ध बैठे हैं आपको नोचने के लिए और आप इतने असहाय कि बर्दाश्त करने के अलावा कुछ कर भी नहीं सकते.
पोस्ट 3 : मित्रों, क्या एक और जेपी जैसा आंदोलन नहीं होना चाहिए? नहीं हुआ तो आम आदमी जिंदा कैसे रहेगा? पूरी व्यवस्था चरमरा चुकी है. भ्रष्टाचार चरम पर है. जुगाड़ तंत्र शबाब पर है. सिर्फ पैसा बोल रहा है. अमीर और अमीर हो रहा है, गरीब और गरीब. दुनिया की तरह देश में भी 5-10 फीसदी लोग 90-95 धन दौलत कब्जियाये हैं. वही सरकार बनाते हैं और सरकार उनको बनाती है.
छोटे शहरों की बात छोड़ दीजिये, महानगरों में कथित नौकरियां तो हैं- मान लीजिये, मर-खप के एक औसत व्यक्ति 15-20 हजार कमा भी लेता है (इतना एक बड़े परिवार का बच्चा एक आउटिंग में उड़ा देता है), तो क्या वह इसमें एक पत्नी, एक बच्चा और माता-पिता को पाल सकता है? किराया देगा, फीस देगा, इलाज करायेगा. कुछ वर्ष में उम्र बढ़ेगी तो नौकरी भी चल बसेगी.
फिर क्या करेगा? अब तो श्रम कानून और आसान होनेवाले हैं. दशकों से कोई सरकार गरीबी की खाती रही तो कोई इस बात को बता कर खाती रही, लेकिन गरीबी बनी रही. एक वर्ग है जो बतायेगा कि कैसे लोगों ने तरक्की की है और आज रिक्शेवाला मोबाइल पर बात कर रहा है, ये वही 5-10 फीसदी वाला वर्ग है, जिसे खुद के लिए मलाईपान कम लगता है, दूसरों के लिए पान काफी.
खाना पहुंच के बाहर है, रहना पहुंच के बाहर, पढ़ना पहुंच के बाहर, इलाज पहुंच के बाहर, नौकरी है नहीं. कीड़े-मकौड़े की तरह जीना कोई जीना है? अपनी तो जैसे-तैसे कट गयी, जो आज स्कूल में हैं, उनका सोच कर रूह कांप उठती है.
अभी हाल में विश्वबैंक की रिपोर्ट आयी है भारत के राज्यों में बिजनेस करने की सहूलियत (ईज ऑफ डूइंग बिजनेस) पर. खूब चर्चा हो रही है इसकी. मुझे लगता है कि ईज ऑफ डूइंग बिजनेस से ज्यादा जरूरी है पेशेंट फ्रेंडली मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर एंड प्रोफेशनल्स पर रिपोर्ट तैयार करने की.
क्या कोई अंतरराष्ट्रीय एजेंसी, सरकारी या गैरसरकारी एजेंसी ऐसी रिपोर्ट तैयार करने का काम करेगी, जो सिस्टम को आईना दिखा सके. यकीन मानिये, यदि ऐसी कोई रिपोर्ट आयेगी तो उसमें दिल्ली, मुंबई, बैंगलुरु, अहमदाबाद, लखनऊ, जयपुर, पटना, रांची आदि शहर निगेटिव में जायेंगे. सब राजनीति है. 30-40 साल पहले सबसे अच्छे डाॅक्टर और सुविधाएं सरकारी अस्पतालों में मिलती थीं, लेकिन आज सरकारी अस्पताल खुद बीमार हैं. इस देश के शासक वर्ग के लिए अस्पताल भी धरती-आसमान एक कर देता है और सिस्टम भी. लेकिन आम नागरिक की चिंता किसे? दिल्ली के ही एक बड़े अस्पताल का वाक्या है मेरा देखा हुआ.
अस्पताल के आइसीयू के बाहर मध्य प्रदेश से आयी एक महिला दहाड़ मार-मार कर रो रही थी. उसके पति की मौत हो गयी थी, पर अस्पताल का कहना था कि पहले वह करीब पौने तीन लाख का बिल भरे, तब शव मिलेगा. वह रो रही थी कि जमीन बेच कर इलाज कराया, कर्जा लिया और अब घर का अकेला कमानेवाला भी मर गया. वह कहां से लायेगी पैसा. अब तो कोई कर्जा भी न देगा. वह कोस रही थी दिल्ली को और अस्पताल को. लेकिन उसकी सुननेवाला कौन है?
एनएसएसओ के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, देश में 70 फीसदी बीमारियों का इलाज निजी अस्पतालों में होता है. ग्रामीण इलाकों 42 फीसदी मरीज सरकारी में और 58 फीसदी निजी अस्पतालों में दाखिल होते हैं, जबकि शहरों में 32 फीसदी सरकारी में और 68 फीसदी निजी अस्पतालों में दाखिल होते हैं. सरकारी अस्पताल के मुकाबले निजी अस्पताल में इलाज का खर्च चार गुने से भी ज्यादा होता है. क्या सरकारें इसे पढ़ रही हैं और उनको आम आदमी के इलाज की चिंता है?
और अंत में…
फेसबुक पर ही एक पोस्ट पढ़ी जो अपीलनुमा है – एक छोटी सी अपील आप से. बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, जहां भी चुनाव हो, वहां वोटर नेता से जरूर पूछें कि वो आपके परिवार के सस्ते और अच्छे इलाज के लिए क्या करनेवाले हैं. आपके बच्चे के लिए सस्ते में अच्छी शिक्षा के लिए क्या करनेवाले हैं. जब तक हम मिल कर इन सवालों को बार-बार नहीं पूछेंगे, तब तक नेता हमको टोपी पहनाते रहेंगे.
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