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‘ओ जट्टा आई बैसाखी’

प्रो लाल मोहर उपाध्याय (अध्यक्ष-गुरुबाणी प्रचार सेवा केंद्र, पटना साहेब, पटना सिटी) बैसाखी प्राचीन राष्ट्रीय त्योहार है, जो देश की एकता, अखंडता का प्रतीक है तथा देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग तरह से मनाया जाता है. यह त्योहार बैसाख की संक्रांति को मनाया जाता है, जो इस बार 14 अप्रैल को है. विक्रमी संवत् […]

प्रो लाल मोहर उपाध्याय
(अध्यक्ष-गुरुबाणी प्रचार सेवा केंद्र, पटना साहेब, पटना सिटी)
बैसाखी प्राचीन राष्ट्रीय त्योहार है, जो देश की एकता, अखंडता का प्रतीक है तथा देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग तरह से मनाया जाता है. यह त्योहार बैसाख की संक्रांति को मनाया जाता है, जो इस बार 14 अप्रैल को है.
विक्रमी संवत् के हिसाब से यह नववर्ष का दिवस भी होता है. कहा जाता है कि सूर्य इस दिन अपनी कक्षा के उच्चतम बिंदु पर पहुंचता है तथा उसके तेज से शीत की अवधि समाप्त होनी शुरू हो जाती है. इस समय पृथ्वी में नवजीवन का संचार होता है. हरियाली लहराती है तथा बीज अंकुरित होते हैं और फल-फूल पकने लगते हैं. तमिल में इसे नववर्ष दिवस पर्याय चितराई पिरावि के नाम से पुकारते हैं. 14 अप्रैल को बंगाली एवं नेपाली नववर्ष मनाते हैं.
मणिपुर में भी 14 अप्रैल को नववर्ष दिवस चेरोवा नाम से जाना जाता है. बिहार में इस दिन लोग सतुआ संक्रांति मनाते हैं, जिसे सतुआनी भी कहते हैं. जिन क्षेत्रों में गेहूं की मुख्य फसल होती है, यह दिन फसल पकने के प्रतीक दिवस के रूप में मनाया जाता है, जब किसानों के वर्ष भर के कठिन परिश्रम का फल प्राप्त होता है. इस प्रथा ने फसल की कटाई को धार्मिक पवित्रता प्रदान की. स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में बैसाखी के दिन बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की थी. विश्वभर में बौद्ध धर्म के लोग इसे 2500 से अधिक वर्षों से मनाते आ रहे हैं. 600 ईपू बैसाखी के ही दिन बोध गया में बुद्ध को ज्ञान प्राप्त हुआ था और मानव जाति की भलाई के लिए उन्होंने एक नये समाज, नये धर्म के उदय की घोषणा की. पंजाब में लोग इस दिन अपनी खुशी को भांगड़े नृत्य के रूप में व्यक्त करते हैं.
आनंद और उल्लास के इस मौके पर ‘ओ जट्टा आई बैसाखी’ कहकर लोग एक-दूजे को बंधाइयां देते हैं. पंजाब में भांगड़ा नृत्य एवं बैसाखी में धनिष्ठ संबंध है. यह बैसाखी उल्लास को अभिव्यक्ति देनेवाला त्योहार है. दरअसल, भांगड़ा फसल की कटाई पर किया जानेवाला नृत्य है. हालांकि बदलते वक्त के साथ त्योहारों के मनाने के रूप बेशक बदल गये हो, मगर इनके प्रति लोगों की श्रद्धा और आस्था में कोई कमी नहीं आयी है.
दो प्रमुख घटनाएं :
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय इसी बैसाखी से जुड़ा है. यह घटना 1919 में अमृतसर के जलियांवाला बाग में हुआ नरसंहार है. ब्रिटिश शासकों के प्रति जन आक्रोश चरम सीमा पर था. चार अंग्रेज मारे गये. पंजाब के राज्यपाल ने पूरे राज्य में सार्वजनिक समारोहों पर मार्शल लॉ लगा दिया था. पंजाबियों ने खुला विरोध किया, जिसकी कीमत उन्हें अपने निहत्थे पुरुषों, महिलाओं व बच्चों पर हुई अंधाधुंध गोलीबारी से चुकानी पड़ी. इस घटना से ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध भारतीयों के दिलो-दिमाग में अविश्वास पैदा हुआ और उसने स्वतंत्रता की लड़ाई की आग में घी का काम किया.
वर्ष 1699 की बैसाखी का दिन भी विशेष रूप से प्रमुखता रखता है. उसी दिन संत, सिपाही, साहित्यकार श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके एक सामाजिक क्रांति का उद्घोष किया था. उन्होंने 13 अप्रैल, 1699 की बैसाखी के दिन जो खालसा पंथ की परिकल्पना की थी, वह अपने आप में एक सार्वदेशिक, सार्वभौमिक कतिपय ऐसे वैचारिक धरातल की मांग कर रही थी, जिसका बीजारोपण गुरु नानक महाराज ने अपने जीवन एवं वाणी के माध्यम से 15वीं सदी में ही कर दिया था. ‘खालसा’ का शाब्दिक अर्थ होता है- पवित्र-निर्मल, जो ‘खालिस’ शब्द से बना है.
गुरु गोबिंद सिंह ने समाज की जीवन धुरी को आलोकित करने के लिए जिस खालसा पंथ की रूपरेखा तैयार की, उसके मूल में विश्व शांति, प्रेम, सेवा भाव, विश्व बंधुत्व एवं सत्य का अमर संदेश है. इस पंथ की पृष्ठभूमि में उस समाज की परिकल्पना की गयी है, जो वर्गविहीन, जातिविहीन एवं संप्रदाय विहीन हो. इसमें उनकी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्रांति के लक्षण पूर्णत: परिलक्षित होते हैं.
जीवन का एक पवित्र मार्ग है खालसा पंथ
गुरु गोबिंद जी ने उस समय के मुगल शासकों के अत्याचारों से मुक्ति पाने और समाज को एक जुट करने के उद्देश्य से खालसा पंथ की स्थापना की थी. गोबिंद सिंह जी ने लोगों को मुगल शासकों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए एकजुट होने तथा धर्म और जाति का भेदभाव छोड़ने की सीख दी. खालसा धर्म के प्रथम गुरु नानक देवजी ने वैसाख माह को आध्यात्मिक साधना के लिए सबसे अच्छा महीना बताया है, इसलिए भी वैसाख महीने का महत्व सिख धर्म में देखने को मिलता है.
बैसाखी के दिन जीवन के एक पवित्र मार्ग- खालसा पंथ की स्थापना करते हुए गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने अनुयायियों से कहा है- देश तथा धर्म की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब कुछ न्योछावर कर दें. इस अमृतपान के बाद एक राष्ट्रीय संगठन बना, जो देश की रक्षा में जूझता रहा. सचमुच खालसा पंथ की स्थापना एक सामाजिक क्रांति का प्रतीक है, जो हमें राष्ट्र की प्रमुख धारा में बहने को प्रेरित करता है. कुल मिलाकर बैसाखी राष्ट्रीयता का प्रतीक पर्व है.
सति श्री अकाल!
समानता एवं एकता की भावना का प्रतीक दिवस है बैसाखी
जसबीर सिंह
जेनरल मैनेजर, एसबीआइ सेवानिवृत, रांची
यूं तो भारतवर्ष में बैसाखी महीने को नये साल के त्योहार के रूप में मनाया जाता है, परंतु सिखों के लिए यह खालसा सृजन दिवस के रूप में मनाया जाता है. इसी दिन गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 में खालसा की सृजना की थी. औरंगजेब का शासनकाल था और समाज चार वर्णों में विभाजित था. शुद्र एवं दलितों की दशा अत्यंत दयनीय थी.
उन्हें समाज के उच्च वर्गों से भीषण यातनाएं झेलनी पड़ती थीं. गुरु गोबिंद सिंह जी ने देखा कि ऊंच-नीच, बड़े-छोटे विभिन्न धार्मिक वर्गों में बंटा समाज बुरी तरह से खंडित हो चुका है. इसका भरपूर लाभ मुगल उठा रहे थे. छोटे वर्ग के लोग बड़ों द्वारा कुचले जा रहे थे और वे दीन-हीन भावना से ग्रसित होकर समाज में मात्र कीड़े बनकर रह गये थे.
आपने दृढ़ संकल्प किया कि ये जो समाज की शक्ति बिखर गयी है, इसे समेटना होगा, लोगों में जनशक्ति का संचार करना होगा, उनके स्वाभिमान को जगाना होगा और उनमें अदम्य उत्साह भरकर शेर की शक्ति लानी होगी, उनकी मानसिकता बदलनी होगी, ताकि वे सदैव शक्ति-पुंज बनकर तुर्कों के अत्याचारों से जूझ सकें और उन्हें परास्त कर सकें. इसी संदर्भ में आपने उद्घोष किया-
‘मानस की जात सभै एकै पहिचानबो’
उन्होंने बैसाखीवाले दिन देशभर में फैले हुए लोगों का एक विशाल जन-सम्मेलन आनंदपुर साहिब में बुलाया और उसमें एक कड़ी परीक्षा द्वारा पांच व्यक्तियों का चयन किया. इन पांच व्यक्तियों में एक खत्री, एक जाट, एक धोबी, एक कहार और एक नाई जाति का था. यह भी मात्र संयोग था कि इनमें एक पंजाब, एक उत्तर प्रदेश, एक गुजरात, एक उड़ीसा और एक कर्नाटक का था. विखंडित भारत को संगठित करने का यह सर्वप्रथम प्रयास था.
गुरुजी ने इन्हें अमृत-पान कराकर ‘पांच प्यारे’ कहा और इनके नाम के साथ सिंह जोड़ दिया. तत्पश्चात् स्वयं भी उनके हाथों से अमृत-पान किया और गोबिंद राय से गोबिंद सिंह हो गये. सबों को बराबरी दर्जा प्रदान करते हुए आपने विनम्रता का यह उच्च कोटि का उदाहरण पेश किया. इसलिए भाई गुरदास जी ने कहा –
‘वाह-वाह गोबिंद सिंह आपे गुरु चेला’
इस अमृत-पान से लोगों की मानसिकता बदल गयी. स्वयं को दीन-हीन समझनेवाले, जाति-कर्म से अभिशप्त लोगों में अद्भुत क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ और सदियों से शोषित हो रहे लोग अब शेर बनकर जीवन-क्षेत्र में आत्मविश्वास से परिपूर्ण सिर उठाकर सिंह-गर्जना कर रहे थे.
इसी संदर्भ में संगत एवं पंगत की प्रथा भी जीवन का हिस्सा बन गयी, जिसका भाव है कि सभी लोग मिल -जुल कर प्रभु का गुनगान करते हैं तथा ऊंच-नीच की बेड़ियों को तोड़ते हुए एक साथ पंगत (पंक्ति) में बैठकर लंगर (भोजन) ग्रहण करते हैं, जो समानता एवं एकता की भावना को परिपोषित तथा सुदृढ़ करता है.
आश्चर्य है कि सदियों बाद भी हम वर्ण-विभाजन के अभिशाप से पूर्ण-रूपेण मुक्त नहीं हो पाये हैं. अपने नाम के बाद उपनाम भी लिखते हैं, जो जाति को इंगित करता है. कहने की आवश्यकता नहीं है कि इससे समाज और देश की जड़ें कमजोर होती हैं और हम एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभरने से पीछे रह जायेंगे.
बैसाखी की लख-लख बधाइयां
बैसाखी फसल पकने की खुशी का प्रतीक है. किसान इस पर्व के बाद ही फसल की कटाई शुरू करते हैं और प्रकृति को धन्यवाद देते हैं. वहीं सिख इसे सामूहिक जन्म दिवस के रूप में भी मनाते हैं. ऐसे में यह लोक परंपरा, धर्म व प्रकृति से जुड़ा आनंद व उल्लास का पर्व है. हमारे कुछ लोकप्रिय सितारे इस अवसर पर साझा कर रहे हैं कुछ मीठी यादें व शुभ संदेश.
जरूरतमंदों का भी रखें ख्याल : मीका
बैसाखी की सुबह हम सभी नहा-धोकर गुरुद्वारे जाते थे. प्रार्थना करते. भजन-कीर्तन करते थे, जिसकी जिम्मेदारी हमारे परिवार को मिलती थी. फिर पंगत में भोजन करते. घर पर मां स्पेशली मीठा भात बनाती थीं, जो मुझे बहुत पसंद है. पापाजी और बड़े-बुजुर्ग इससे जुड़ी कहानियां सुनाते थे. महत्व समझाते थे. शाम में बॉन फायर के बीच गाना और भांगड़ा होता था. त्योहार का मतलब सेलिब्रेशन होता है, लेकिन इससे जुड़े मूल्य ही उसे खास बनाते हैं. इसलिए सेलिब्रेशन कीजिए, मगर दूसरों के बारे में भी सोचिए. हमें ऐसे मौके पर जरूरतमंदों के लिए भी कुछ करना चाहिए.
मिस करती हूं बैसाखी : भारती सिंह
चंडीगढ़ की बैसाखी बहुत ही खास होती थी. हम धूमधाम से सेलिब्रेट करते थे. अपनों के संग ढेर सारी मस्ती होती था. हफ्तों पहले से तैयारियां शुरू हो जाती थीं. सुबह नहा-धोकर तैयार होते. नये कपड़े पहनकर कर गुरुद्वारा प्रार्थना के लिए जाते.
शाम को मेहमानों और रिश्तेदारों की महफिल जमती. ढेरों पकवान व मिठाइयां खाने को मिलतीं. गिद्दा और भांगड़ा करते थे. देर रात तक जश्न चलता था. मुंबई में इन सबको मिस करती हूं. मगर हेक्टिक शेड्यूल में भी इस दिन गुरुद्वारा जाकर प्रार्थना करना नहीं भूलती. आखिकार रब की ही मेहरबानी है, जो यहां तक पहुंची हूं. इस साल कोशिश है कि इस दिन छोटी-सी पार्टी करूं. इसमें करीबी रिश्तेदार और दोस्त शामिल होंगे. उनके साथ मिलकर बैसाखी मनाऊंगी. आप सभी को बैसाखी के पावन पर्व की लख-लख बधाइयां!
सीखा विनम्रता का मूल्य : गुरुचरण सिंह
‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ में सोढ़ी का किरदार निभा रहे गुरुचरण सिंह कहते हैं- जब मैं बहुत छोटा था. घर में गुरुग्रंथ साहिब का अखंड पाठ रखते थे. मां-पिताजी और भाई मिलकर 48 घंटे में पूरा करते थे. फिर लंगर लगता था, जिसमें अनाथालय के बच्चे भी शामिल होते. हम सभी पंगत में भोजन करते थे. गुरुद्वारे में सेवा करते थे, जहां से मैंने विनम्रता का मूल्य सीखा.
मां बनाती थीं ‘पीला भात’ : रिचा चड्ढा
‘फुकरे’ फेम एक्ट्रेस रिचा चड्ढा कहती हैं- मां बचपन में इस दिन मेरे लिए पीला भात (पुलाव) बनाती थीं. इसमें सूखे मेवे और केसर मिला होता था. मैं टिफिन में स्कूल ले जाती और दोस्तों संग खाती. दिल्ली इस सीजन में फूलों से सजी रहती थी. हमलोग लुत्फ उठाते. मेरी फिल्म ‘पंगा’ की शूटिंग दिल्ली में हो रही है. समय मिला तो परिवार के साथ सेलिब्रेट करूंगी.
प्रार्थना से होती है सुबह : कनिका
सुपरहिट साॅन्ग ‘बेबी डॉल’, ‘चीटिया कलाइयां’ की आवाज कनिका कपूर कहती हैं- मेरे लिए बैसाखी का मतलब एक जुड़ाव है, जब पूरा परिवार मनाने के लिए एक साथ होता है. हर बैसाखी सुबह परिवार के साथ गुरुद्वारे आशीर्वाद लेने जाती हूं. इस बार ‘द वॉयस’ का परिवार मेरे घर पर होनेवाले जश्न समारोहों में शामिल होगा.
इनपुट : उर्मिला कोरी, मुंबई

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