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आदर्श मनुष्य वह है, जो सत्कर्मों का फल ईश्वर को करे समर्पित

श्री श्री आनंदमूर्ति आध्यात्मिक गुरु व आनंद मार्ग के संस्थापक आज का आलोच्य विषय है- आदर्श मनुष्य की जीवनचर्या कैसी होनी चाहिए? मनुष्य पृथ्वी में बहुत दिनों तक रहने के लिए नहीं आता है. वह आता है, कुछ दिन रहता है, काम-काज करता है, खाता-पीता है, दूसरों का उपकार करता है, राग-अभिमान करता है, अभाव […]

श्री श्री आनंदमूर्ति
आध्यात्मिक गुरु व आनंद मार्ग के संस्थापक
आज का आलोच्य विषय है- आदर्श मनुष्य की जीवनचर्या कैसी होनी चाहिए? मनुष्य पृथ्वी में बहुत दिनों तक रहने के लिए नहीं आता है. वह आता है, कुछ दिन रहता है, काम-काज करता है, खाता-पीता है, दूसरों का उपकार करता है, राग-अभिमान करता है, अभाव अभियोग करता है, उसके बाद सबकुछ समाप्त हो जाता है, हमेशा के लिए वह सो जाता है.
यही है मनुष्य का जीवन-सुख-दुःख, भाषा-आकांक्षाओं के परिवृत्त जीवन. इसमें भी मनुष्य को एक नियम मान कर चलना पड़ता है. किसी भी तरह छंद वहिर्भूत होकर नहीं चला जा सकता है. एक छंद मान कर चलना पड़ता है.
मनुष्य जब पृथ्वी में आया है, तो वह भी जानता है, दूसरे लोग भी जानते हैं कि वह चिर-काल के लिए नहीं आया है. आदर हो या अनादर हो, वह छोड़ कर जायेगा ही. मनुष्य चिर दिन के लिए नहीं रहेगा. तब मनुष्य को क्या करना होगा, उसे कैसे चलना होगा?
कुछ लोग कहते हैं- देखो, अच्छा काम करते जाओ, सत्कर्म करते जाओ. उससे मन को तृप्ति मिलेगी और सत्कर्म का शुभ फल तो है ही, किंतु सत्कर्म क्यों करते जा रहे हो, इसका उत्तर तो चाहिए? कहते हैं मन को शांति मिलेगी और सत्कर्म का फल भी मिलेगा. क्यों मिलेगी? मन को शांति क्या शुभ फल की प्रत्याशा है इसलिए?
कृष्ण ने कहा है- कर्म करने से कर्म का प्रतिकर्म है. साथ-साथ कर्म का बंधन भी है और वह बंधन जब तक खुल नहीं जाता है, तब तक कर्म-चक्र में घूमना पड़ेगा, बार-बार पृथ्वी पर आना पड़ेगा. यहां तक कि जो जैमिनी पंथी हैं अर्थात जो स्वर्गवादी हैं, वे भी कहते हैं- सत्कर्म करने से मनुष्य स्वर्ग में जाते हैं और जब उनका कर्म का शुभफल भोग समाप्त हो जाता है, तब वे स्वर्ग से उतर कर फिर मनुष्य का शरीर लेते हैं.
हमलोग दार्शनिक विचार से ऐसा नहीं मानते हैं, क्योंकि स्वर्ग नाम की किसी वस्तु को हमलोग अलग अस्तित्व के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं, किंतु यह ठीक है कि सत्कर्म का सत्फल एक दिन समाप्त होगा ही. तब क्या होगा?
महाराज युधिष्ठिर ने कहा है- तो हमलोग देखते हैं कि कर्म लेकर रहने के लिए केवल अच्छा काम करो, इतना कहना ही काफी नहीं है. अच्छा काम करने से उसका अच्छा फल भी भोगना होगा और फल भोग समाप्त होने पर फिर पृथ्वी में आना होगा. पृथ्वी पर आने के बाद फिर सत्कर्म ही होगा, ऐसी कोई बात नहीं है. असत्-कर्म भी हो सकता है, इसलिए कर्म चक्र में चक्कर खाना ही होगा और लगता है कि जैसे इसका कोई अंत नहीं है.
किंतु अंत में युधिष्ठिर ने और दो बातें कही हैं – काम मैं किये जाता हूं, किंतु फल मैं नहीं चाहता हूं. मैं फल को ईश्वर में उसी वक्त समर्पित कर देता हूं, अर्थात अपने अशुभ कर्म के अशुभ फल का भोग करने के लिए मैं राजी हूं, किंतु अपने शुभ कर्म का शुभ-फल मैं नहीं चाहता हूं. मैं ईश्वर को दे देता हूं.
यह बात कौन कह सकता है? वही कह सकता है, जिसको ईश्वर के प्रति दृढ़ भक्ति है. वह स्वयं को जितना प्यार करता है, ईश्वर को उससे अधिक प्यार करता है. स्वयं के प्रति उसका जितना आकर्षण है, जितनी ममता है, परमपुरुष के प्रति उससे भी अधिक ममता है. केवल वही ऐसा कह सकता है.
दूसरा कोई नहीं कह सकता है. और जो ऐसा कह सकता है, वह तो भक्तिवादी है. वह तो कर्मवादी नहीं है. इसलिए कर्म करते जाओ, और कुछ मत सोचो- यह बात उसे कहना वृथा है. यह बात उसी से कही जा सकती है, जो भक्ति में प्रतिष्ठित है. यह बात तो कर्मवादी की बात नहीं हुई. और यदि कार्यवाद की बात ही कहूं, तो कहना होगा कि उसमें कोई शेष निष्पत्ति नहीं होगी.
कुछ लोग कहते हैं- जगत के लिए क्लेश स्वीकार करते जायेंगे. सभी चीजों का एक अच्छा फल है. यह जो क्लेश स्वीकार करते चल रहे हैं, इसका भी एक अच्छा फल है. एक नब्बे या सौ साल की वृद्धा विधवा भी क्लेश स्वीकार करती हुई चल रही है, इस आशा में कि इस क्लेश का भी एक दिन प्रतिदान मिलेगा, सुफल भोग करूंगी, स्वर्ग में जाऊंगी.
अब हमलोग विचार करें कि इस प्रकार का जो क्लेश है, चाहे परिवार के लिए हो या और किसी के लिए हो, समाज के लिए हो अथवा और किसी के लिए हो, इसका मूल्य क्या है? इस पृथ्वी में कुछ भी मूल्यहीन नहीं है. किसी का क्लेश भी मूल्यहीन नहीं होता.
तो क्या वही मनुष्य-जीवन की चरम सार्थकता है? केवल क्लेश सहन करते जाना? क्लेश सहन करते जाना एक लक्ष्यहीन क्रिया है, अर्थात क्यों क्लेश सहन कर रहा हूं, इस संबंध में कुछ नहीं जानता हूं.
जानना चाहता भी नहीं हूं. केवल क्लेश सहन करता जाता हूं. क्लेश सहन करने की खातिर. यह तो एक अर्थहीन चीज है. यह तो वैसा ही हुआ, जैसे नाव चलाते जा रहा हूं. कहां जा रहा हूं, मुझे मालूम नहीं है.
चलाना जरूरी है, इसलिए चला रहा हूं. यह एकदम अर्थहीन है. इस प्रकार नाव चलाने से हाथ में दर्द हो जायेगा और एक दिन नाव चलाने का सामर्थ्य नहीं रहेगा और तब नाव के साथ डूब मरना होगा. मनुष्य के समस्त साधना के लक्ष्य होंगे परमपुरुष. उन्हें सामने रखकर जो करना होगा, करेंगे. उन्हें भुला कर कुछ नहीं करेंगे.
(प्रस्तुति : दिव्यचेतनानंद अवधूत)

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