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कभी मिट नहीं सकती कला-संस्कृति

डॉ ओम सुधा, धनबाद : ‘मौलिकता का कोई विकल्प नहीं है. सदियों से कला-साहित्य-संस्कृति पर हमले हुए हैं, हो रहे हैं. बावजूद इसके कला-साहित्य-संस्कृति बची रही है. आगे भी बची रहेगी. कला-साहित्य-संस्कृति कभी मिट नहीं सकती.’ यह कहना है अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पेंटर भूरी बाई का. चार दिवसीय धनबाद आर्ट फेयर में भाग लेने धनबाद […]

डॉ ओम सुधा, धनबाद : ‘मौलिकता का कोई विकल्प नहीं है. सदियों से कला-साहित्य-संस्कृति पर हमले हुए हैं, हो रहे हैं. बावजूद इसके कला-साहित्य-संस्कृति बची रही है. आगे भी बची रहेगी. कला-साहित्य-संस्कृति कभी मिट नहीं सकती.’ यह कहना है अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पेंटर भूरी बाई का. चार दिवसीय धनबाद आर्ट फेयर में भाग लेने धनबाद आयीं भूरी बाई ने गुरुवार को प्रभात खबर से बातचीत में कहा कि ‘सिर्फ कला के माध्यम से ही दुनिया को और खूबसूरत बनाया जा सकता है.’
संघर्ष से भरा जीवन
भोपाल के भारत भवन में मजदूरी कर रही भूरी बाई को यह पता नहीं था कि आने वाले दिनों में उनका सितारा इतना बुलंद होगा कि मिट्टी और सेम के पत्ते के रस से बने उनके चित्र पचास लाख में बिकेंगे. मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में एक छोटा सा गांव है पिटोल बावड़ी.
इस गांव में मिट्टी के तवे पर जम आयी कालिख को काला रंग बना लेने वाली भूरी बाई को धनबाद में इंडिया टेलिंग संस्था द्वारा कला रत्न से सम्मानित किया गया. पूरी दुनिया में पिथौरा कला को पहचान दिलाने का श्रेय बहुत हद तक भूरी बाई को जाता है.
अमेरिका में अपनी कलाकृति की प्रदर्शनी लगा चुकी भूरी का जीवन संघर्षों से भरा रहा है. भूरी के पति शादी के बाद भूरी को मजदूरी कराने गुजरात ले गये. फिर वो मजदूरी करने मध्यप्रदेश आ गयी, जहां भारत भवन में मजदूरी करने लगी.
वहां जमीन पर आड़ी-तिरछी रेखाएं खींच रही थीं. कला प्रेमी जगदीश स्वामीनाथन की नजर उन पर पड़ी. महज छह रुपये की मजदूरी कर रही भूरी से जगदीश ने कागज पर पेंटिंग बनवायी और दस रुपये दिये. दस रुपये से शुरू हुआ भूरी बाई की पेंटिंग का सफर पचास लाख तक पहुंच चुका है. हाल में ही भूरी बाई की एक पेंटिंग पचास लाख में बिकी है.
पेंटिंग की खासियत
भूरी की पेंटिंग में आदिवासी भील जनजाति के लोक जीवन, उत्सव, प्रकृति प्रेम, आदिवासी परंपराओं को शिद्दत से महसूस किया जा सकता है. वह कहती हैं-हमारी भील जनजाति में मृत व्यक्तियों को देवता की श्रेणी में मान लिया जाता है. उनको पिथौर देव की संज्ञा दी जाती है.
भूरी बाई की पेंटिंग में जन्म से मृत्यु और फिर पारलौकिक लोक का सफर रंगों के माध्यम से सहज अभिव्यक्त हो जाती हैं. पिथौरा को भील जाति के लोग अपने घरों की दीवारों पर बनाते हैं, जिससे घर में शांति, खुशहाली बनी रहे.
भूरी अपने चित्र के बीच में एक छोटा आयताकार जानवर बनाती हैं, जिसमें उंगलियों से छोटी-छोटी बिंदी लगाई जाती है, जिसे टीपना कहते हैं.
कला की सेवा करना ही है जीवन का लक्ष्य
भूरी बाई ने अपने बच्चों और नाती, पोतों को भी पिथौरा पेंटिंग सिखाई है. हालांकि गावों में इस चित्रकला को सिर्फ पुरुष ही कर सकते हैं, स्त्रियों के लिए यह निषेध है.
भूरी पढ़ लिख नहीं सकती पर इतना जानती हैं कि कला ने उनकी दुनिया बदल दी, इसलिए कला ही उनकी दुनिया है. जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा मजदूरी करके गुजारने वाली भूरी बाई अब सिर्फ कला की सेवा करते हुए बिताना चाहती हैं.

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