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साहित्यकार महाश्वेता देवी के घनिष्ठ थे राय दा

पलाश विश्वास ए क दैनिक अखबार के संपादकीय पेज पर मेरे चर्चित उपन्यास ‘अमेरिका से सावधान’ पर लिखे अपने लेख में महाश्वेता देवी ने धनबाद में काॅ. एके राय और मेरे साथ घनिष्ठ संपर्क होने की बात लिखी थी. महाश्वेता दी कई बरस हुए, नहीं हैं. आज काॅ एके राय का भी अवसान हो गया. […]

पलाश विश्वास
ए क दैनिक अखबार के संपादकीय पेज पर मेरे चर्चित उपन्यास ‘अमेरिका से सावधान’ पर लिखे अपने लेख में महाश्वेता देवी ने धनबाद में काॅ. एके राय और मेरे साथ घनिष्ठ संपर्क होने की बात लिखी थी.
महाश्वेता दी कई बरस हुए, नहीं हैं. आज काॅ एके राय का भी अवसान हो गया. साल 1984 में मैंने धनबाद छोड़ दिया था. तबसे लेकर अब तक धनबाद से कोई रिश्ता बचा हुआ था, तो वह एके राय के कारण ही. एमए पास करने के बाद कालेजों में नौकरी करने का विकल्प मेरे पास खुला था, लेकिन मैं डीएसबी नैनीताल में पढ़ाना चाहता था और इसके लिए पीएचडी जरूरी थी. इसी जिद की वजह से मैं नैनीताल छोड़ने को मजबूर हुआ और इलाहाबाद विश्वविद्यालय पहुंच गया.
इलाहाबाद में शैलेश मटियानी और शेखर जोशी की मार्फत पूरी साहित्यिक बिरादरी से आत्मीयता हो गयी, लेकिन वीरेन दा और मंगलेश दा के सुझाव मानकर मैं उर्मिलेश के साथ जेएनयू पहुंच गया. वहीं मैंने महाश्वेता देवी का उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ हिंदी में पढ़ा. इसी दरम्यान उर्मिलेश एके राय से मिलने धनबाद चले गये, जहां एक दैनिक अखबर में मदन कश्यप थे. मैं बसंतीपुर गया तो एक आयोजन में झगड़े की वजह से सार्वजनिक तौर पर पिताजी ने मेरा तिरस्कार किया. अगले ही दिन उर्मिलेश का पत्र आया कि धनबाद में उस अखबार में मेरी जरूरत है.
अखबार वाले दरअसल उर्मिलेश को चाहते थे, लेकिन तब उर्मिलेश जेएनयू में शोध कर रहे थे और पत्रकारिता करना नहीं चाहते थे. उन्होंने मुझे पत्रकारिता में झोंक दिया, हालांकि बाद में वे भी आखिरकार पत्रकार बन गये. शायद दिल-ओ-दिमाग में बिरसा मुंडा के विद्रोह और एके राय के आंदोलन का गहरा असर रहा होगा कि पिताजी के खिलाफ गुस्से के बहाने शोध, विश्वविद्यालय, वगैरह अकादमिक मेरी महत्वाकांक्षाएं एक झटके के साथ खत्म हो गयीं और मैं धनबाद पहुंच गया. धनबाद में अप्रैल, 1980 में दैनिक अखबार में काम के साथ आदिवासियों और मजदूरों के आंदोलनों के साथ मेरा नाम जुड़ गया और बहुत जल्दी एके राय, शिबू सोरेन और बिनोद बिहारी महतो से घनिष्ठता हो गयी.
वहीं मनमोहन पाठक, मदन कश्यप, बीबी शर्मा, वीर भारत तलवार और कुल्टी में संजीव थे, तो एक टीम बन गयी और हम झारखंड आंदोलन के साथ हो गये, जिसके नेता एके राय थे, जो धनबाद के सांसद भी थे. एके राय झारखंड को लालखंड बनाना चाहते थे और उनकी सबसे बड़ी ताकत कोलियरी कामगार यूनियन थी. वे अविवाहित थे और सांसद होने के बावजूद एक होल टाइमर की तरह पुराना बाजार में यूनियन के दफ्तर में रहते थे. कोलियरी कामगार यूनियन ने धनबाद में प्रेमचंद जयंती पर महाश्वेता देवी को मुख्य अतिथि बनाकर बुलाया था. वक्ताओं में मैं भी था. महाश्वेता देवी के साथ एके राय और मेरी घनिष्ठता की वह शुरुआत थी.
एके राय एकदम अलग किस्म के मार्क्सवादी थे, जो हमेशा जमीन से जुड़े थे और विचारधारा से उनका कभी विचलन नहीं हुआ, बल्कि शिबू सोरेन और सूरज मंडल की जोड़ी ने एके राय को झारखंड आंदोलन से उन्हें दीकू बताते हुए अलग-थलग कर दिया तो झारखंड आंदोलन का ही विचलन और विघटन हो गया. एके राय लगातार अंग्रेजी दैनिकों में लिखते रहे और उनका लेखन भी अद्भुत था.
भारतीय वामपंथी नेतृत्व ने एके राय और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता, आर्थिक सुधारों से पहले शहीद शंकर गुहा नियोगी का नोटिस नहीं लिया, जो सीधे जमीन से जुड़े हुए थे और भारतीय सामाजिक यथार्थ के समझदार थे. वामपंथ से महाश्वेता दी के अलगाव की कथा भी हैरतअंगेज है.
प्रस्तुति : धर्मेंद्र प्रसाद गुप्त

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