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‘राज्यसभा : द जर्नी सिन्स 1952”- जब उच्च सदन के पीठासीन अधिकारी ने ही दिया था सत्तापक्ष के विरोध में वोट

नयी दिल्लीः राज्यसभा के पिछले 67 साल के इतिहास में अब तक एक ही मौका आया है जब सदन के पीठासीन अधिकारी को किसी प्रस्ताव पर मतदान करना पड़ा हो. दिलचस्प बात यह है कि तत्कालीन पीठासीन अधिकारी ने तब सत्तापक्ष के विरोध में मतदान किया था. यह वाकया पांच अगस्त 1991 का है, जब […]

नयी दिल्लीः राज्यसभा के पिछले 67 साल के इतिहास में अब तक एक ही मौका आया है जब सदन के पीठासीन अधिकारी को किसी प्रस्ताव पर मतदान करना पड़ा हो. दिलचस्प बात यह है कि तत्कालीन पीठासीन अधिकारी ने तब सत्तापक्ष के विरोध में मतदान किया था. यह वाकया पांच अगस्त 1991 का है, जब दंड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अध्यादेश को खारिज करने संबंधी विपक्ष के प्रस्ताव पर हुये मतदान में सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच बराबर वोट पड़ने के कारण राज्यसभा के तत्कालीन पीठासीन अधिकारी के रूप में एम ए बेबी को मतदान करना पड़ा.

प्रस्ताव के पक्ष में मत देने के कारण सदन में विपक्ष की जीत हुयी. राज्यसभा के 1952 में वजूद में आने के बाद अब तक एक ही बार पीठासीन अधिकारी द्वारा सदन में किसी प्रस्ताव पर मतदान करने की यह घटना इतिहास में दर्ज हो गयी. साथ ही पीठासीन अधिकारी द्वारा सत्तापक्ष के विरोध में मत देने की भी यह पहली घटना है. राज्यसभा के 67 साल के इतिहास पर आधारित पुस्तक ‘‘राज्यसभा : द जर्नी सिन्स 1952′ में उच्च सदन से जुड़़े रोचक पहलुओं में इस घटना का प्रमुखता से जिक्र किया गया है.

राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने राज्यसभा के 250वें सत्र की शुरुआत की पूर्वसंध्या पर रविवार को आयोजित सर्वदलीय बैठक में इस पुस्तक का विमोचन किया. नायडू ने ट्वीट कर कहा, विभिन्न दलों के माननीय नेताओं की सम्मानित उपस्थिति में, ‘राज्य सभा : द जर्नी सिन्स 1952′ नामक पुस्तक का विमोचन करते हुए मुझे हर्ष हो रहा है. यह ग्रंथ गहन शोध के बाद तैयार किया गया है जिसमें इस सदन द्वारा पारित विधेयकों का ब्योरा है. राज्यसभा सचिवालय द्वारा जारी बयान के अनुसार सौ से अधिक पृष्ठ वाली इस पुस्तक के 29 अध्याय में राज्यसभा के 67 साल के अतीत से जुड़ी अहम घटनाओं, रोचक तथ्यों और आंकड़ों को समाहित किया गया है. उल्लेखनीय है कि सोमवार को संसद का शीतकालीन सत्र शुरु हो रहा है.
पुस्तक के अनुसार बीते 67 सालों में राज्यसभा की कुल 5466 बैठकों में 3817 विधेयक पारित किये गये. इनमें से 63 विधेयक लोकसभा का विघटन होने के कारण निष्प्रभावी हो गये. राज्यसभा ने लोकसभा द्वारा पारित पांच विधेयकों को अब तक खारिज किया, जबकि 120 विधेयकों को संशोधन के पश्चात पारित किया. उच्च सदन से पारित होने वाला पहला विधेयक ‘भारतीय शुल्क (दूसरा संशोधन) विधेयक 1952′ था, जबकि सामाजिक सुधार से जुड़ा पहला कानून ‘विशेष विवाह विधेयक 1952′ था, जिसमें वैवाहिक अधिकारों का दायरा व्यापक बनाया गया था.
राज्यसभा के पहले सत्र की पहली बैठक 13 मई 1952 को हुयी थी. तब से लेकर उच्च सदन के लिये अब तक कुल 2282 सदस्य निर्वाचित हो चुके हैं. इनमें 208 महिलायें और 137 मनोनीत सदस्य शामिल हैं.राज्यसभा में महिला सदस्यों की भागीदारी 1952 में 15 से बढ़कर 2014 में 31 (दोगुनी) हो गयी. इस समय उच्च सदन में महिला सदस्यों की संख्या 26 (10.8 प्रतिशत) है. कार्यकाल के लिहाज से बिहार से जदयू के राज्यसभा सदस्य डा महेन्द्र प्रसाद, अब तक सर्वाधिक सात बार उच्च सदन के सदस्य चुने गये.
उच्च सदन के लिये छह बार चुने गये सदस्यों में कांग्रेस के डा. मनमोहन सिंह, डा. नजमा हेपतुल्ला और रामजेठमलानी तथा पांच बार चुने गये सदस्यों में कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद, ए के एंटनी, अहमद पटेल और अंबिका सोनी शामिल हैं. सभापति नायडू, राज्यसभा के लिये अब तक चार बार चुने गये 45 सदस्यों में शामिल हैं. राज्यसभा के एक से अधिक बार चुने गये सदस्यों की संख्या 2282 है. इनमें 208 महिला सदस्य और 137 मनोनीत सदस्य हैं.
पुस्तक में राज्यसभा के 67 साल की कार्यवाही के दौरान घटी विलक्षण घटनाओं का जिक्र करते हुये बताया गया है कि लोकसभा भंग होने के कारण अब तक दो बार राष्ट्रपति शासन के विस्तार को सिर्फ राज्यसभा से मंजूरी दी गयी. पहली बार 1977 में तमिलनाडु और नगालैंड में तथा इसके बाद 1991 में हरियाणा में राष्ट्रपति शासन की अवधि को सिर्फ राज्यसभा की मंजूरी से आगे बढ़ाया गया. इसी प्रकार किसी न्यायाधीश को पद से हटाने के प्रस्ताव को भी राज्यसभा में अब तक सिर्फ एक स्वीकार किया गया.
राज्यसभा ने 18 अगस्त 2011 को कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश सौमित्र सेन को पद से हटाने का प्रस्ताव स्वीकार किया था लेकिन लोकसभा में यह प्रस्ताव पेश होने से पहले ही उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था. पुस्तक के अनुसार राज्यसभा के तीन सदस्यों के निष्कासन की अब तक कार्रवाई की गयी.
पहली बार उच्च सदन ने 1976 में सुब्रह्मण्यम स्वामी को सदन की गरिमा के अनुरूप आचरण नहीं करने के मामले में निष्कासित करने का प्रस्ताव स्वीकार किया था. इसके बाद 2005 में डा. छत्रपाल सिंह को पैसा लेकर सवाल पूछने के आरोप में और 2006 में साक्षी महाराज को सांसद निधि योजना में अनियमितता के आरोप में निष्कासित किया गया.

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