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अल्पसंख्यक को राज्य के आधार पर परिभाषित करने की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी से मांगा सहयोग

नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय आंकड़ों की बजाय राज्य की आबादी के आंकड़ों के आधार पर किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने के लिए दायर जनहित याचिका पर शुक्रवार को अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से मदद मांगी. चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने भाजपा नेता […]

नयी दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय आंकड़ों की बजाय राज्य की आबादी के आंकड़ों के आधार पर किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने के लिए दायर जनहित याचिका पर शुक्रवार को अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल से मदद मांगी. चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की पीठ ने भाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिका पर वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी की इन दलीलों का संज्ञान लिया कि राष्ट्रीय आंकड़ों के आधार पर अल्पसंख्यक समुदाय घोषित करना गैरकानूनी है.

पीठ ने याचिकाकर्ता उपाध्याय से कहा कि वह अपनी याचिका की एक प्रति अटॉर्नी जनरल के कार्यालय में पहुंचायें. न्यायालय इस याचिका पर अब चार सप्ताह बाद सुनवाई करेगा. उपाध्याय ने इस याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून के तहत पांच समुदायों (मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी) को अल्पसंख्यक घोषित करने संबंधी केंद्र की 26 साल पुरानी अधिसूचना की वैधता को चुनौती दी है.

याचिका में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग कानून, 1992 की धारा 2 (सी) को असंवैधानिक घोषित करने का अनुरोध किया है. इसी धारा के तहत केंद्र ने 23 अक्टूबर, 1993 को अधिसूचना जारी की थी. उपाध्याय ने राष्ट्रीय स्तर पर एक समुदाय की औसत आबादी की बजाये राज्यों में उनकी आबादी के आधार पर ‘अल्पसंख्यक’ परिभाषित करने के लिए दिशा-निर्देश प्रतिपादित करने का अनुरोध किया है.

याचिका में कहा गया है कि अक्टूबर, 1993 की अधिसूचना से स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और आजीविका के मौलिक अधिकारों का हनन होता है. उपाध्याय ने कहा है कि इस विषय में गृह मंत्रालय, कानून मंत्रालय और राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को दिये गये प्रतिवदेनों पर उनसे किसी प्रकार का जवाब नहीं मिलने की वजह से जनहित याचिका दायर की जा रही है.

इससे पहले, शीर्ष अदालत ने 11 फरवरी को उपाध्याय को इस विषय पर राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग में प्रतिवेदन करने के लिए कहा था. साथ ही आयोग को राष्ट्रीय औसत की बजाय राज्य स्तर पर आबादी के आधार पर ‘अल्पसंख्यक’ घोषित करने के लिए दिशा-निर्देश बनाने संबंधी प्रतिवेदन पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेने का निर्देश दिया था.

याचिका में क्या

उपाध्याय ने अपनी याचिका में कहा था कि राष्ट्रीय आंकड़ों के आधार पर हिंदू बहुसंख्यक समुदाय है, लेकिन जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के कई राज्यों में वह अल्पसंख्यक है. याचिका के अनुसार, इन राज्यों में हिंदू समुदाय के सदस्य अल्पसंख्यकों को मिलने वाले लाभों और योजनाओं से वंचित हैं. इसलिए अल्पसंख्यक आयेाग को इस संबंध में अल्पसंख्यक को परिभाषित करने पर फिर से विचार करना चाहिए.

याचिकाकर्ता का अनुरोध

याचिका में कहा गया है कि अनुच्छेद 29-30 के अनुसार ‘अल्पसंख्यक’ की परिभाषा ने बहुत कुछ राज्य के हाथ में छोड़ दिया है, जिसका राजनीतिक लाभ के लिए दुरुपयोग हो रहा है. याचिका में वर्ष 2011 की जनगणना के आधार पर उन राज्यों में हिंदू समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का अनुरोध किया गया है, जहां उनकी संख्या कम हो गयी है. याचिका के अनुसार, वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, लक्षद्वीप (2.5 फीसदी), मिजोरम (2.75 फीसदी), नगालैंड (8.75 फीसदी), मेघालय (11.53 फीसदी), जम्मू-कश्मीर (28.44 फीसदी), अरुणाचल प्रदेश (29 फीसदी), मणिपुर (31.39 फीसदी) और पंजाब (38.40 फीसदी) में हिंदू अल्पसंख्यक है.

अल्पसंख्यकों की स्थिति

याचिका में कहा गया है कि मिजोरम, मेघालय और नगालैंड में ईसाई बहुसंख्यक हैं और अरुणाचल, गोवा, केरल, मणिपुर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में उनकी काफी आबादी है, लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक माना जाता है. इसी तरह, पंजाब में सिख बहुसंख्यक हैं और दिल्ली, चंडीगढ़ तथा हरियाणा में सिखों की काफी आबादी है, लेकिन उन्हें अल्पसंख्यक माना जाता है.

याचिका के अनुसार, लक्षद्वीप (96.20 फीसदी), जम्मू कश्मीर (68.30 फीसदी) मुस्लिम बहुमत में हैं जबकि असम (34.20 प्रतिशत), पश्चिम बंगाल (27.5 प्रतिशत), केरल (26.60 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश (19.30 प्रतिशत) और बिहार में 18 फीसदी इनकी आबादी है. याचिका के अनुसार, इसके बावजूद इन्हें अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा प्राप्त है और जबकि उन समुदायों, जो वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, को उनका वाजिब हिस्सा नहीं मिल रहा है. इस तरह से संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19 और 21 में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा है.

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