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अयोध्या : कोर्ट ने निर्वाणी अखाड़ा को लिखित नोट दाखिल करने की अनुमति दी

नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में हिंदू पक्षकारों में से एक निर्वाणी अखाड़ा को श्रृद्धालु के रूप में मूर्ति की पूजा अर्चना के प्रबंधन के अधिकार के लिए लिखित नोट दाखिल करने की मंगलवार को अनुमति दे दी. प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एसए बोबडे और न्यायमूर्ति एस अब्दुल […]

नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद में हिंदू पक्षकारों में से एक निर्वाणी अखाड़ा को श्रृद्धालु के रूप में मूर्ति की पूजा अर्चना के प्रबंधन के अधिकार के लिए लिखित नोट दाखिल करने की मंगलवार को अनुमति दे दी.

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एसए बोबडे और न्यायमूर्ति एस अब्दुल नजीर की पीठ के समक्ष निर्वाणी अखाड़ा के वकील ने इस मामले का उल्लेख किया और कहा कि उनके मुवक्किल ने लिखित नोट दाखिल करने के लिए तीन दिन के समय की गणना करने में गलती कर दी और इसीलिए वह न्यायालय की रजिस्ट्री में राहत में बदलाव के बारे में लिखित नोट दाखिल करने की अनुमति चाहता है. संविधान पीठ ने 16 अक्तूबर को इस प्रकरण की सुनवाई पूरी करते हुए सभी पक्षों से कहा था कि वे सुनवाई के दौरान उठाये गये मुद्दों को समेटते हुए राहत में बदलाव संबंधी लिखित नोट तीन दिन के भीतर दाखिल करें. पीठ ने निर्वाणी अखाड़ा का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता जयदीप गुप्ता से कहा, आप अब दाखिल कर दीजिये.

इस प्रकरण में निर्मोही अखाड़ा और उसका प्रतिद्वंद्वी निर्वाणी अखाड़ा दोनों ही राम लला विराजमान के जन्मस्थल पर पूजा-अर्चना करने और प्रबंधन के अधिकार चाहते हैं. निर्मोही अखाड़ा ने अनुयायी के रूप में अधिकार की मांग करते हुए 1959 में वाद दायर किया था, जबकि निर्वाणी अखाड़ा को उप्र सुन्नी वक्फ बोर्ड ने 1961 में प्रतिवादी बनाया, जबकि देवकी नंदन अग्रवाल के माध्यम से राम लला की ओर से 1989 में दायर वाद में उसे प्रतिवादी बनाया गया है. निर्वाणी अखाड़ा ने अपने लिखित नोट में कहा है कि इन वाद में किसी भी हिंदू पक्षकार ने अनुयायी के अधिकार के रूप में ये दावे नहीं किये हैं. बल्कि, वे विवादित ढांचे के स्थान पर मंदिर निर्माण बनाने का अनुरोध कर रहे हैं.

नोट में कहा गया है कि अत: निर्वाणी अखाड़ा के पुजारी और अनुयायी के अधिकार को अभी तक चुनौती नहीं दी गयी है. अखाड़ा ने यह निर्देश देने का अनुरोध किया है कि उसे पूजारी के रूप में राम जन्मभूमि-विवादित ढांचे की मूर्ति की पूजा के प्रबंधन का अधिकार उसे सौंपा जाये. इस प्रकरण की सुनवाई के दौरान उसने कहा था कि निर्वाणी अखाड़ा के महंत अभिराम दास (अब दिवंगत) 1949 में इस स्थान के पुजारी थे और 22-23 दिसंबर, 1949 की रात में विवादित स्थल पर मध्य गुंबद के नीचे कथित रूप से मूर्तियां रखे जाने के मामले में दर्ज प्राथमिकी में उन्हें आरोपी बनाया गया था. अब उनके चेले धरमदास इसके पुजारी हैं.

इससे पहले, मुस्लिम पक्षकारों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन द्वारा तैयार किये गये इस नोट में कहा गया है, इस मामले में न्यायालय के समक्ष पक्षकार मुस्लिम पक्ष यह कहना चाहता है कि इस न्यायालय का निर्णय चाहे जो भी हो, उसका भावी पीढ़ी पर असर होगा. इसका देश की राज्य व्यवस्था पर असर पड़ेगा. इसमें कहा गया है कि न्यायालय का फैसला इस देश के उन करोड़ों नागरिकों और 26 जनवरी, 1950 को भारत को लोकतंत्रिक राष्ट्र घोषित किये जाने के बाद इसके सांविधानिक मूल्यों को अपनाने और उसमें विश्वास रखने वालों पर असर डाल सकता है. इसमे यह भी कहा गया है कि शीर्ष अदालत के निर्णय के दूरगामी असर होंगे, इसलिए न्यायालय को अपने ऐतिहासिक फैसले में इसके परिणामों पर विचार करते हुए राहत में ऐसा बदलाव करना चाहिए जो हमारे सांविधानिक मूल्यों में परिलक्षित हो.

हिंदू और मुस्लिम पक्षकारों ने शनिवार को शीर्ष अदालत में अपने अपने लिखित नोट दाखिल किये थे. राम लला विराजमान के वकील ने जोर देकर कहा है कि इस विवादित स्थल पर हिंदू आदिकाल से पूजा अर्चना कर रहे हैं और भगवान राम के जन्म स्थान के साथ कोई समझौता नहीं किया जा सकता. शीर्ष अदालत ने (2.77 एकड़ विवादित भूमि) तीन पक्षों सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला के बीच बांटने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर, 2010 के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर 16 अक्तूबर को सुनवाई पूरी की.

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