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युवा प्रतिभाओं का हो सम्मान

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in कुछ समय पहले 10वीं और 12वीं के नतीजे आये थे. इन परीक्षाओं में बच्चे पूरी ताकत से जुटते हैं, रात-दिन पढ़ते हैं, जम कर मेहनत करते हैं. नतीजे बताते हैं कि उनकी मेहनत रंग लायी है और सभी बोर्डों के नतीजे इस बार अच्छे रहे हैं. इन […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
कुछ समय पहले 10वीं और 12वीं के नतीजे आये थे. इन परीक्षाओं में बच्चे पूरी ताकत से जुटते हैं, रात-दिन पढ़ते हैं, जम कर मेहनत करते हैं. नतीजे बताते हैं कि उनकी मेहनत रंग लायी है और सभी बोर्डों के नतीजे इस बार अच्छे रहे हैं.
इन दिनों प्रभात खबर भी इन युवा प्रतिभाओं को सम्मानित कर रहा है. बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में कई स्थानों पर प्रतिभा सम्मान के कार्यक्रमों का आयोजन हुआ है. कई स्थानों पर ऐसे आयोजित होने वाले हैं. प्रतिभाशाली युवा ही आगे जाकर देश की बागड़ोर संभालेंगे, देश को नयी ऊंचाइयों पर ले जायेंगे. यह सच है कि नयी पीढ़ी के बच्चे अत्यंत प्रतिभाशाली हैं. वे अपने कैरियर के प्रति बेहद जागरूक हैं. इसमें भी दो राय नहीं है कि अच्छी शिक्षा के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती.
किसी भी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति उस देश की शिक्षा पर निर्भर करती है. अगर शिक्षा नीति अच्छी नहीं होगी, तो विकास की दौड़ में वह देश पीछे छूट जायेगा. राज्यों के संदर्भ में देखें, तो पायेंगे कि बेहतर शिक्षा की वजह से दक्षिण के राज्य हिंदी पट्टी के राज्यों के मुकाबले आगे हैं. हम यह तथ्य बखूबी जानते हैं. बावजूद इसके हमने अपनी अपनी शिक्षा व्यवस्था की घोर अनदेखी की है.
बोर्ड की ये परीक्षाएं कितनी अहम होती हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बच्चों को परीक्षा दिलवाने के लिए माता-पिता अपने दफ्तर से छुट्टी लेते हैं. हम सब जानते हैं कि 10वीं और 12वीं की परीक्षाओं को लेकर बच्चे भारी तनाव में रहते हैं. कई बार यह तनाव दुखद हादसों को जन्म दे देता है.
हर साल पूरे देश से बोर्ड के नतीजों के बाद बच्चों के आत्महत्या करने की दुखद खबरें भी सामने आती हैं. परीक्षा परिणामों के बाद हर साल अखबार मुहिम चलाते हैं, बोर्ड और सामाजिक संगठन हेल्प लाइन चलाते हैं, लेकिन छात्र-छात्राओं की आत्महत्या के मामले रुक नहीं रहे हैं. जाहिर है कि ये प्रयास नाकाफी हैं. बच्चे संघर्ष करने के बजाय हार मान कर आत्महत्या का रास्ता चुन ले रहे हैं.
यह चिंताजनक स्थिति है, जबकि ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं कि इम्तिहान में बेहतर न करने वाले छात्र-छात्राओं ने जीवन में सफलता के मुकाम हासिल किये हैं. दरअसल, कम अंकों का दबाव बच्चे इसलिए भी महसूस कर रहे हैं, क्योंकि हमारे कुछेक बोर्ड टॉपर के नंबर का स्तर हर साल बढ़ा कर एक अनावश्यक प्रतिस्पर्धा को जन्म देते जा रहे हैं.
एक बोर्ड में बच्चों के 500 में 500 अंक आ रहे हैं, तो दूसरे बोर्ड में 500 में 499 अंक लाने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. दूसरी ओर बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल के बोर्ड उनकी तुलना में कम नंबर देते हैं. प्रभात खबर के साथियों ने हाल में पड़ताल की, तो पाया कि झारखंड में से इंटर की परीक्षा में टॉपर रहे विद्यार्थियों का दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं हो पाया है, जबकि झारखंड में प्रति वर्ष लगभग ढाई लाख परीक्षार्थी इंटर की परीक्षा में सफल होते हैं.
इसकी वजह यह है कि झारखंड के इंटर टॉपर के अंक दिल्ली विश्वविद्यालय की तीनों कट ऑफ लिस्ट से बहुत कम हैं. 2019 की इंटर के तीनों संकाय में सबसे अधिक अंक प्राप्त करने वाली उर्सुलाइन इंटर कॉलेज की अमीषा कुमारी का दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं हो पाया. उसे दिल्ली में मनपसंद कॉलेज नहीं मिला. अमीषा के 93 फीसदी अंक हैं.
वह श्रीराम कॉलेज, हिंदू कॉलेज, हंसराज कॉलेज, इंद्रप्रस्थ कॉलेज में से किसी एक में प्रवेश लेना चाहती थी, लेकिन किसी में उसका नंबर नहीं आया. आर्ट्स की टॉपर मनाली ने दिल्ली विवि में प्रवेश के लिए आवेदन ही नहीं किया था, क्योंकि उसके इंटर में 87 फीसदी अंक आये थे. श्रीराम कॉलेज में बीकॉम ऑनर्स में सामान्य वर्ग के लिए फर्स्ट कट ऑफ मार्क्स 98.75 और थर्ड कट ऑफ 97.75 प्रतिशत रहा. सत्यवती कॉलेज में बीकॉम का थर्ड कट ऑफ 94.25 प्रतिशत और शहीद भगत सिंह कॉलेज में बीकॉम के लिए 96.25 प्रतिशत कट ऑफ रहा.
वहीं, झारखंड बोर्ड के इंटरमीडिएट के टॉपर परीक्षार्थियों के अंक कभी 95 फीसदी से ऊपर नहीं गये. पिछले तीन वर्ष के स्टेट के टॉप थ्री विद्यार्थियों के प्राप्तांक को देखा जाए, तो टॉपर को अधिकतम 93 फीसदी अंक ही मिले हैं. ऐसे में अंकों की एकरूपता न होने का खामियाजा झारखंड, बिहार के विद्यार्थियों को झेलना पड़ता है.
हम सब यह अच्छी तरह से जानते हैं कि शिक्षा और रोजगार का चोली दामन का साथ है. यही वजह है कि बिहार और झारखंड में माता-पिता बच्चों की शिक्षा को लेकर बेहद जागरूक हैं.
उनमें ललक है कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा पाए, ताकि उसे रोजगार मिल सके. यहां तक कि वे बच्चों की शिक्षा के लिए अपनी पूरी जमा पूंजी लगा देने को तैयार रहते हैं. बिहार और झारखंड में श्रेष्ठ स्कूलों का अभाव तो नहीं है, लेकिन इनकी संख्या बेहद कम है. हर जिले में एक जिला स्कूल है, एक वक्त था, इनमें प्रवेश के लिए मारामारी रहती थी और ये माध्यमिक शिक्षा के श्रेष्ठ केंद्र हुआ करते थे. अब इन्होंने अपनी चमक खो दी है.
इनके स्तर में भारी गिरावट आ गयी है. यह सही है कि मौजूदा दौर में बच्चों का पढ़ाना अब कोई आसान काम नहीं रहा है. शिक्षा के बाजारीकरण के इस दौर में न तो शिक्षक पहले जैसे रहे, न ही छात्रों से उनका पहले जैसा रिश्ता रहा. पहले शिक्षक के प्रति न केवल विद्यार्थी, बल्कि समाज का भी आदर और कृतज्ञता का भाव रहता था. अब तो ऐसे आरोप लगते हैं कि शिक्षक अपना काम ठीक तरह से नहीं करते हैं.
इसमें आंशिक सच्चाई भी है कि बड़ी संख्या में शिक्षकों ने दिल से अपना काम करना छोड़ दिया है, लेकिन यह भी सही है कि देश के भविष्य निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का समाज ने भी सम्मान करना बंद कर दिया है. दूसरी ओर तकनीक ने हम सबकी जिंदगी बदल दी है. यदि आपने गौर किया हो, तो आप पायेंगे कि बड़ी संख्या में बच्चों के हाथों में मोबाइल नजर आने लगे हैं. यह जान लीजिए कि टेक्नोलॉजी दोतरफा तलवार है. एक ओर जहां यह वरदान है, तो दूसरी ओर घातक भी है.
यह देखने में आ रहा है कि मोबाइल एक बीमारी की तरह हम सबको जकड़ता जा रहा है. हम सब यह चाहते हैं कि देश में आधुनिक टेक्नाेलॉजी आए, लेकिन उसके साथ किस तरह तारतम्यता बिठानी है, यह हम सब पर निर्भर करता है. यह वरदान बने, कहीं अभिशाप न बन जाए. युवाओं को मेरी सलाह है कि वे मोबाइल का नियंत्रित इस्तेमाल करें.

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