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ब्रेक्जिट: उलझन सुलझे ना!

उपेंद्र सिंह पूर्व सीनियर मीडिया एडवाइजर, ब्रिटिश उच्चायोग uksingh14@gmail.com कमजोर नेतृत्व और अदूरदर्शी निर्णय का शिकार ब्रिटेन इस समय एक कठिन दौर से गुजर रहा है. आगामी 31 अक्तूबर, 2019 को यूरोपीय संघ से ब्रिटेन अलग हो जायेगा. जून 2017 में सत्ता संभालनेवाली कंजर्वेटिव पार्टी सरकार के तीसरे प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के इस समय के […]

उपेंद्र सिंह
पूर्व सीनियर मीडिया एडवाइजर, ब्रिटिश उच्चायोग
uksingh14@gmail.com
कमजोर नेतृत्व और अदूरदर्शी निर्णय का शिकार ब्रिटेन इस समय एक कठिन दौर से गुजर रहा है. आगामी 31 अक्तूबर, 2019 को यूरोपीय संघ से ब्रिटेन अलग हो जायेगा. जून 2017 में सत्ता संभालनेवाली कंजर्वेटिव पार्टी सरकार के तीसरे प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के इस समय के तेवर देखकर तो यही लगता है, लेकिन यूके में ताजा हालात इस अनुमान को सच में बदल पायेंगे, इसमें अभी संदेह बना हुआ है.
प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की छवि जनता के रोजमर्रा जीवन से जुड़े लोकप्रिय नेता की रही है, लेकिन उनके देश को इस समय ब्रेक्जिट जैसी गुत्थी सुलझानेवाले जिस नेता की आवश्यकता है, वह महारत उनमें नजर नहीं आती. इसके प्रमाण हैं एक माह पूर्व वायरल हुए दो वीडियो, जिनमें दो आम नागरिक अपने ही प्रधानमंत्री को खुलेआम लताड़ रहे हैं. पहले वीडियो में एक व्यक्ति बोरिस जॉनसन को अपना समय सड़कों पर टहलने के बजाय ब्रसेल्स जाकर ब्रेक्जिट पर गंभीरता से जुट जाने की सलाह दे रहा है.
बीच सड़क पर अपने देश के प्रमुख के साथ ऐसा बर्ताव करने की छूट विश्व के शायद किसी और मुल्क में नहीं होगी, लेकिन राजतंत्र और लोकतंत्र का जितना बेहतरीन सामंजस्य इस देश में देखा जा सकता है, वह अन्य देशों के राजनेताओं और जनता के लिए ईर्ष्या का विषय हो सकता है.
सवाल यह उठता है कि जिस मुद्दे ने ब्रिटेन के दो प्रमुख नेताओं की सत्ता छीनकर उसके वर्तमान नेतृत्व को करो या मरो जैसी हालत में ला दिया है, क्या उसका हल किसी के पास नहीं है?
एक नजर इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर डालें, जिसकी शुरुआत 1957 में फ्रांस, पश्चिम जर्मनी, बेल्जियम, इटली, लक्जमबर्ग और नीदरलैंड द्वारा रोम की संधि पर हस्ताक्षर करने से हुई थी. इस संधि का ही प्रतिफल था मौजूदा यूरोपीय संघ (ईयू), जिसकी पूर्ववर्ती यूरोपीय आर्थिक समुदाय (ईईसी) की बुनियाद इस धारणा के साथ डाली गयी थी कि परस्पर व्यापारिक रिश्तों में बंधे राष्ट्र, युद्ध के बजाय मित्र बनकर रहना पसंद करते हैं.
यूके ने पहली बार 1963 में इसकी सदस्यता के लिए आवेदन किया. उसे 1973 में इस क्लब में शामिल कर लिया गया, लेकिन सिर्फ दो साल बाद ही यूके ने इससे बाहर निकलने के संकेत देने शुरू कर दिये. साल 1975 में एक जनमत संग्रह हुआ, जिसमें ब्रिटेन के 67 प्रतिशत लोगों ने ईयू के साथ रहने का समर्थन किया. फिर 23 जून, 2016 को जनमत संग्रह हुआ, जिसमें ईयू से अलग होने के पक्ष में 51.9 प्रतिशत वोट पड़े. तत्कालीन प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने अपने चुनावी वादे को निभाते हुए जनता के फैसले को स्वीकार किया और अगले ही दिन उन्होंने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
ब्रेक्जिट (ब्रिटेन+एक्जिट) के तीन कारण थे- ईयू के साथ रहने में ब्रिटेन को हो रहा आर्थिक नुकसान, ईयू के 27 अन्य सदस्य देशों के नागरिकों के बेरोकटोक आने-जाने, काम करने की स्वतंत्रता के चलते यूके में बढ़ रहा अवैध आप्रवासन और ब्रिटेन को अपनी स्वतंत्र पहचान धूमिल होने की चिंता.
ईयू छोड़नेवालों की प्रमुख दलील थी कि समझौते के तहत यूके अपने खजाने का एक बड़ा भाग (लगभग 9 अरब डॉलर) ईयू को देता है. इस धन के बारे में ब्रिटिश लोगों का कहना था कि उसका इस्तेमाल ईयू के उन देशों की कला संस्कृति में करने के बजाय ब्रिटेन के विकास में हो, तो ही बेहतर है.
पॉलिसी ऑफ किंग्स कॉलेज और यूनिवर्सिटी ऑफ कैंब्रिज की एक साझा स्टडी में बताया गया है कि ब्रिटेन के लोग एक ऐसी डील के पक्ष में हैं, जिसमें ईयू के साथ किसी न किसी प्रकार की अलिखित सदस्यता बनी रहे.
डेविड कैमरून के बाद अगली प्रधानमंत्री बनीं थेरेसा मे ने ईयू के साथ सर्वमान्य डील करने के तीन प्रयास किये, दुर्भाग्यवश उनके इन प्रयासों को हाउस आफ कॉमंस की स्वीकृति के बाद भी कोई सफलता नहीं मिली. सात जून, 2019 को बड़े दबाव को झेलते हुए उन्होंने भी त्यागपत्र दे दिया, तब उनकी जगह बोरिस जॉनसन ने ली.
बोरिस एक प्रखर ब्रेक्जिट समर्थक रहे हैं. हालांकि, वे बिना डील ईयू छोड़ने के पक्षधर कभी नहीं रहे. ब्रेक्जिट की पेचीदगियों को न समझ पाने की उनकी अयोग्यता का एहसास जनता को तब हुआ, जब उन्होंने महारानी से मध्य सितंबर से 14 अक्तूबर तक संसद को निलंबित करने का आग्रह किया. उन्होंने ब्रिटेन में एक त्वरित चुनाव का भी विचार दे डाला, और महारानी ने उसे स्वीकार भी कर लिया. परंतु ब्रिटेन के उच्चतम न्यायालय के 11 सदस्यों की न्यायाधीश पीठ ने इसे गैरकानूनी करार दे दिया.
ब्रिटेन के सांसदों का भी प्रयास है कि नो डील के कगार पर पहुंच चुकी बोरिस सरकार को रोकने के लिए बाध्य किया जाये. इसी के चलते अब अनेक सांसद हाउस ऑफ कॉमंस एवं हाउस ऑफ लॉर्ड्स में बिल पारित कर प्रधानमंत्री से यह कहने जा रहे हैं कि वे यूरोपीय संघ से 31 जनवरी, 2020 तक बातचीत का समय मांगें.
ब्रेक्जिट के अनेक विकल्पों के बारे में सोचने और उनमें से किसी एक को लागू कर पाना बोरिस जॉनसन के लिए बड़ी टेढ़ी खीर साबित होनेवाला है.
नो डील, मध्यावधि चुनाव, आंशिक तौर से उत्तरी आयरलैंड को छोड़कर शेष यूके से अलगाव, समुचित डील पर सहमति आदि ऐसे अनुत्तरित विकल्प हैं, जिन पर ब्रिटेन उलझा हुआ है. अब चिंता की बात यह है कि ब्रेक्जिट किसी भी पराभव को प्राप्त हो, इसके प्रभाव से विश्व का कोई भी देश बचा नहीं रह सकता.

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