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पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com पवन जायसवाल एक पत्रकार हैं, जिन्होंने कुछ ही दिनों पूर्व यूपी के मिर्जापुर जिले के जमालपुर प्रखंड स्थित सियुर प्राथमिक विद्यालय में मध्याह्न भोजन योजना के अंतर्गत रोटी और नमक खाते बच्चों का वीडियो अपने मोबाइल पर रिकॉर्ड किया था. इस जिले के जिलाधिकारी अनुराग पटेल के […]

पवन के वर्मा

लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
पवन जायसवाल एक पत्रकार हैं, जिन्होंने कुछ ही दिनों पूर्व यूपी के मिर्जापुर जिले के जमालपुर प्रखंड स्थित सियुर प्राथमिक विद्यालय में मध्याह्न भोजन योजना के अंतर्गत रोटी और नमक खाते बच्चों का वीडियो अपने मोबाइल पर रिकॉर्ड किया था. इस जिले के जिलाधिकारी अनुराग पटेल के अनुसार, उन्हें इस घटना का एक फोटो लेना चाहिए था, जो एक प्रेस पत्रकार के उपयुक्त होता.
यह तथ्य कि उन्होंने अपने फोन का इस्तेमाल एक वीडियो लेने में किया, यह सिद्ध करता है कि वे राज्य के विरुद्ध एक आपराधिक षड्यंत्र रच रहे थे! जायसवाल पर अब भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की धारा 120 बी (आपराधिक षड्यंत्र रचना), धारा 186 (एक लोक सेवक को अपने कर्तव्य के निर्वहन से रोकना), धारा 193 (झूठे साक्ष्य बनाना) तथा धारा 420 (धोखाधड़ी करना) के अंतर्गत कई मामले दर्ज किये गये हैं.
आश्चर्य है कि इस जिलाधिकारी के कृत्य का भी कुछ लोग समर्थन करते हैं. इनमें यूपी के एक मंत्री भी हैं, जिन्होंने घोषणा कर दी कि ‘यदि कोई व्यक्ति सरकार को बदनाम करने की कोशिश करता है, तो उस पर कार्रवाई होगी.’
इस तरह, हमारे सामने पत्रकारीय दायित्व के निमित्त अब एक नया ‘मानक’ पेश है- ऐसा कुछ भी रिपोर्ट न करें, जो व्यवस्था पर कोई आक्षेप करता हो, क्योंकि इस संभावना के बावजूद कि आप जो कुछ रिपोर्ट कर रहे हैं वह सत्य हो, उससे व्यवस्था की बदनामी हो सकती है और इसलिए आपके द्वारा आइपीसी के कई प्रावधानों का उल्लंघन करने की वजह से शासन अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए आप पर एक भारी चट्टान की ही भांति आ गिरे.
एक स्वतंत्र मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है, पर जैसा स्पष्ट है, सरकार में कुछ ऐसे लोग भी बैठे हैं, जो व्यवहार में यही चाहेंगे कि मीडिया उनकी समर्थक हो और वह उनकी आलोचक या बदनामी की वजह तो बिल्कुल भी न हो. पवन जायसवाल इस नये ‘सामान्यीकरण’ को नहीं समझ सके.
उन्होंने गलती से यह सोच लिया कि यह एक पत्रकार का कर्तव्य है कि जो कुछ घटित हो रहा है, वह उसकी सच्ची रिपोर्टिंग करे और उसका जितना अधिक संभव हो, साक्ष्य इकट्ठा करे. वे यह नहीं समझ सके कि ऐसा करते हुए वे राज्य के हितों को नुकसान पहुंचाने का अपराध करनेवाला करार दिये जा सकते हैं.
ये सब एक ऐसी सरकारी मशीनरी के संकेत हैं, जो आलोचनाओं के प्रति असंवेदनशील तथा प्रतिशोध के लिए सन्नद्ध है. गैरकानूनी गतिविधि निवारण अधिनियम (यूएपीए) में किया गया संशोधन सरकार को यह अनुमति देता है कि वह किसी व्यक्ति को एक दहशतगर्द घोषित कर उसके विरुद्ध सरकार की कठोर शक्ति से कार्रवाई कर सके.
सूचना के अधिकार को विरल कर सूचना आयुक्तों को राज्य के दबाव के प्रति संवेदनशील बनाते हुए प्रत्येक व्यक्ति के इस लोकतांत्रिक अधिकार पर असर डाला गया है कि वह सरकार की कार्यशैली के संबंध में जानकारी हासिल कर सके.
लोकसभा में एक विशाल बहुमत तथा राज्यसभा में एक प्रबंधित बहुमत के जरिये यह संभव बना दिया गया है कि विपक्ष की आलोचनाओं या सलाहों पर विचार किये बगैर कोई भी कानून पारित करा लिया जाए.
यहां कश्मीर की चर्चा भी की जानी चाहिए. हमसे यह उम्मीद की जाती है कि वहां सामान्य स्थिति की बहाली के संबंध में प्रशासन जो कुछ भी कहता है, हम उसे बगैर किसी आपत्ति अथवा असहमति के स्वीकार कर लें.
सबसे बुरी स्थिति यह है कि प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का एक बड़ा हिस्सा लोकतांत्रिक अधिकारों के इस क्षरण में साझीदार बन गया है. वह किसी असुविधाजनक प्रश्नकर्ता के साथ ऐसा बर्ताव करता है, मानो वह राज्य का जन्मजात शत्रु हो और राज्य के लिए जो कुछ अच्छा है, उस पर केवल उनका ही एकाधिकार हो.
इस संदर्भ में मुझे एक शेर याद आता है- ‘यूं दिखाता है आंखें मुझे बागबान, जैसे गुलशन पे कुछ हक हमारा नहीं.’ इस स्थिति पर चिंतित होते हुए भी मैं आशावादी हूं. जायसवाल के साथ जो कुछ हुआ, भारतीय प्रेस परिषद् ने उसका स्वतः संज्ञान लेते हुए यूपी सरकार को एक रिपोर्ट भेजने को कहा है.
मीडिया संपादकों के संगठन, एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने इस पत्रकार के समर्थन में एक बयान जारी कर उसके विरुद्ध की गयी कार्रवाई की निंदा की है. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी यूपी सरकार को एक नोटिस जारी कर उससे पूरे राज्य में मध्याह्न भोजन की स्थिति के संबंध में विस्तृत विवरण मांगा है.
इस बीच, जब हम अपने गणतंत्र के संबंध में बड़े मुद्दों पर बहस कर रहे हैं, पवन जायसवाल को अपनी रक्षा आप ही करनी पड़ रही है. उन्हें यूपी सरकार द्वारा अपने विरुद्ध दायर कई संगीन मामलों के सिलसिले में एक कानूनी लड़ाई लड़नी है.
अपने द्वारा झेली जा रही कठिनाइयों के बीच यदि पवन जायसवाल ऐसा सोचने लगें कि मध्याह्न भोजन के नाम पर उत्तर प्रदेश के बच्चे क्या खा रहे हैं, इस संबंध में रिपोर्ट करने की मुसीबत उन्होंने क्यों मोल ली, तो यह बड़ा ही दुखदायी होगा. तब लोकतंत्र सचमुच खतरे में होगा.

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