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जन स्वास्थ्य भी विमर्श में हो शामिल

डॉ अनुज लुगुनसहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गयाanujlugun@cub.ac.in यह चुनाव परिणाम के ठीक बाद की घटना है, जिसमें बच्चे बेमौत मारे जा रहे हैं. सत्ता के गलियारों में कोई सुगबुगाहट नहीं है. नागरिक समाज भी अपनी भूमिका में शून्य हो चुका है. ऐसे में भला कौन गरीबों के स्वास्थ्य की चिंता करेगा? जो सत्ता […]

डॉ अनुज लुगुन
सहायक प्रोफेसर, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया
anujlugun@cub.ac.in

यह चुनाव परिणाम के ठीक बाद की घटना है, जिसमें बच्चे बेमौत मारे जा रहे हैं. सत्ता के गलियारों में कोई सुगबुगाहट नहीं है. नागरिक समाज भी अपनी भूमिका में शून्य हो चुका है. ऐसे में भला कौन गरीबों के स्वास्थ्य की चिंता करेगा? जो सत्ता की राजनीति करते हैं, उन्हें शायद आनेवाले चुनाव का इंतजार है और जिनके पास बड़ी-बड़ी स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी है, उन्हें भला किस बात की फिक्र?
बड़ी-बड़ी घोषणाओं और आश्वासनों के बाहर भूख एवं बीमारी से बिलखते-तड़पते और मरते हुए लोग हैं. हमारे देश की हकीकत यह है कि चाहे जुलूस में मरनेवाला हो, या बीमारी से, अधिकतर की नियति गरीब होने की है.
बात सिर्फ बिहार के मुजफ्फरपुर में इंसेफेलाइटिस से मर रहे बच्चों की नहीं है. साल 2017 में गोरखपुर में ऐसे ही साठ से अधिक बच्चों की मौत हुई थी. झारखंड में संतोषी नाम की बच्ची की मौत हुई थी. कुछ साल पहले ओड़िशा के कालाहांडी में दाना मांझी नाम के व्यक्ति की उस वक्त चर्चा हुई थी, जब वह अपनी मृत पत्नी को एंबुलेंस न मिलने पर अपने कंधों पर उठाकर घर ले गया था.
हर दिन लोग मौत के मुंह में जाने के लिए विवश हैं. दुखद यह है कि अपने ही नागरिकों की असामयिक मौत की जिम्मेदारी कोई नहीं लेता है. सरकारें खुद को बचाने के लिए बेतुके तर्क देती हैं और विपक्ष के सरोकार संवेदनशील नहीं होते.
बिहार में मरनेवालों में अधिकतर बच्चे गरीब परिवारों के हैं. अब तक जितनी भी सूचना प्रकाशित हो सकी है, उनमें यह बात तो साफ दिख रही है कि अस्पताल में सुविधाओं का भारी अभाव और अव्यवस्था है. यह भी उजागर हुआ है कि बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कुपोषण की वजह से यह बीमारी और भी घातक साबित हुई है. ऐसा नहीं है कि इस बीमारी का प्रकोप बिहार में पहली बार पड़ा है. पहले भी इस बीमारी से न केवल बिहार में, बल्कि देश के अन्य प्रांतों में भी मौतें हुई हैं. इसके बावजूद अगर यह बीमारी अपना प्रकोप फैला रही है, तो इसके पीछे प्रशासनिक अव्यवस्था के अलावे कुपोषण बहुत बड़ा कारक है.
इस बीमारी के लक्षण के बारे में बताया जाता है कि यह दिमाग में हमला करता है. ग्लूकोज का स्तर कम होने से ग्लूकोज की उचित मात्रा दिमाग तक नहीं पहुंच पाती है, इससे दिमाग के मृत होने का खतरा बढ़ जाता है. कुपोषण के कारण शरीर में पोषक तत्वों की कमी हो जाती है. यह शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को घटा देता है, जिससे बीमारी को हमला करने में आसानी होती है.
भारत में कुपोषण बहुत बड़ी समस्या है. यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में प्रतिदिन कम-से-कम तीन हजार बच्चे कुपोषण की वजह से मरते हैं और प्रतिवर्ष पांच वर्ष से कम उम्र के करीब दस लाख बच्चे मरते हैं.
संयुक्त राष्ट्र ने इसे भारत के लिए ‘चिंताजनक’ माना है. विशेषज्ञों का मानना है कि इसके बावजूद भारत में कुपोषण से लड़ने के लिए ‘आपात’ व्यवस्था नहीं है. कुपोषण बच्चों की बीमारियों की कब्रगाह है. ऐसे में बच्चों की मौत की वजह लीची खाने को बता कर कोई भी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता है.
हमारे देश में जन स्वास्थ्य सुविधाओं का भी भयावह अकाल है. साल 2018 में प्रकाशित भारत सरकार की स्वास्थ्य रिपोर्ट के अनुसार, भारत में स्वास्थ्य सेवा बदहाल है. यहां ग्यारह हजार की जनसंख्या पर एक एलोपैथ डॉक्टर की उपलब्धता है.
द लांसेट के ग्लोबल हेल्थ रैंकिंग में 195 देशों में भारत का स्थान 145वां है. कथित तौर पर दुनिया की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के बावजूद वैश्विक स्वास्थ्य सर्वे में भारत की स्थिति गरीब कहे जानेवाले पड़ोसी देश नेपाल, भूटान और श्रीलंका से भी खराब है.
देश की जनता अपने स्वास्थ्य के लिए सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर है, लेकिन वे अस्पताल बदहाल हैं. हमारे देश में जीडीपी का केवल एक प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च होता है. अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज जैसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्री इसे ‘भारत का विरोधाभास’ कहते हैं. स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुविधाओं का जितना अकाल है, इस क्षेत्र में उतनी ही असमानता भी है.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी निवेश को बढ़ावा देने से एक ओर जहां बड़े-बड़े निजी अस्पतालों और बड़ी बीमा पॉलिसियां तेजी से आने लगी हैं, उतनी ही तेजी से जन स्वास्थ्य के क्षेत्र में असमानता भी फैली है. सुदूरवर्ती क्षेत्रों में लोगों के स्वास्थ्य की बीमा पॉलिसी है ही नहीं. गरीब जनता महंगी बीमा पाॅलिसी और इलाज खरीदने की स्थिति में नहीं है. यही असमानता बीमारियों के स्वरूप में भी है.
बावजूद इसके, जन स्वास्थ्य हमारे सामाजिक विमर्श से बाहर है. हमारी मानसिक संरचना इस तरह बना दी गयी है कि हम अपने जातीय, धार्मिक और सांप्रदायिक हितों के बाहर सामाजिक विमर्श के लिए तैयार नहीं हैं. जिन बुनियादी मुद्दों से देश की जनता का हित जुड़ा हुआ है, उस ओर से हमारा सामाजिक विमर्श खत्म होता जा रहा है.
न हम शिक्षा की मुनाफाखोरी के खिलाफ मिल&जुल कर आवाज उठाते हैं, न पानी की सार्वजनिक उपलब्धतता पर, और न ही स्वास्थ्य सुविधाओं का अकाल होने पर कुछ बोलते हैं. हम खुद से सवाल करें, क्या स्वास्थ्य के क्षेत्र में बिना सामाजिक विमर्श के भारत ‘आयुष्मान’ बन पायेगा? हमें गैर जरूरी जातीय, सांप्रदायिक और धार्मिक विमर्शों से बाहर आकार बुनियादी जरूरतों के सामाजिक विमर्श को जगह देनी ही होगी, अन्यथा हमारी असामयिक मौत की जिम्मेदारी न सत्ता लेगी, न सरकारें.

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