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Friday, March 29, 2024

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प्रकृति बचेगी तो ही हम बचेंगे

सोपान जोशी पर्यावरणविद् sopanjoshi@hotmail.com ग्रीष्म ऋतु में गर्मी नहीं पड़ेगी तो फिर कब पड़ेगी? पहले भी खूब भीषण गर्मी पड़ी है, बहुत बुरे अकाल की मार पड़ी है. किंतु दो-एक साल के दुष्काल के बाद स्थिति औसत पर लौट आती थी, ऊंच-नीच के बाद सामान्य हालात बहाल हो जाते थे. अब ऐसा नहीं है. हर […]

सोपान जोशी
पर्यावरणविद्
sopanjoshi@hotmail.com
ग्रीष्म ऋतु में गर्मी नहीं पड़ेगी तो फिर कब पड़ेगी? पहले भी खूब भीषण गर्मी पड़ी है, बहुत बुरे अकाल की मार पड़ी है. किंतु दो-एक साल के दुष्काल के बाद स्थिति औसत पर लौट आती थी, ऊंच-नीच के बाद सामान्य हालात बहाल हो जाते थे. अब ऐसा नहीं है. हर साल लगने लगा है कि गर्मी और प्रचंड होती जा रही है. शहरों की हालत और भी बुरी है. मौसम विज्ञान की कई रपटें बताती हैं कि आगामी दिनों में इसमें और भी बढ़ोतरी ही होगी.
गर्मी बढ़ने का मामला इतना सीधा नहीं है. उदाहरण के लिए जब कड़ाके की सर्दी पड़ती है, तो लोग व्यंग्य में पूछते हैं कि जलवायु परिवर्तन का क्या हुआ! अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप यह कई बार कर चुके हैं. ऐसा कहने के पीछे एक बुनियादी चूक होती है. मौसम और जलवायु एक चीज नहीं है.
यह अंतर कुछ वैसा ही है जैसा हाथ की घड़ी और पंचांग में होता है. घड़ी हमें एक दिन यानी 24 घंटे के समय का हिसाब दे सकती है, बस, लेकिन पंचांग पूरे साल के बारे में बताता है.
मौसम घड़ी की तरह है, जो अल्पकाल में काम करता है. जलवायु पंचांग की तरह होता है, उसका हिसाब मौसमी नहीं होता. मौसम का ठंडा या गर्म होना उतनी गंभीर बात नहीं है, जितनी कि जलवायु परिवर्तन. जलवायु में बदलाव यानी हमारी दुनिया की विराट धुरी का परिवर्तन, यानी साल भर का हिसाब गड़बड़ाना.
जब से जलवायु परिवर्तन की जटिलताएं वैज्ञानिकों के सामने धीरे-धीरे उभरी हैं, सालों-साल के शोध के बाद. बहुत पहले से यह समझ आ रहा था कि मौसम का ढर्रा बदलनेवाला है, हमारे ग्रह के ऊपर का औसत तापमान बढ़ने वाला है. जलवायु परिवर्तन की बात वैज्ञानिक बहुत पहले से करते आ रहे हैं और अब जो हो रहा है, यह उनके आंकलन की पुष्टि मात्र है.
औसत तापमान भी एक अलग चीज है. अगर आपके पैर बर्फ में पड़े हों और सर पर आग रख दी गयी हो, तो हो सकता है कि आपके शरीर के बड़े हिस्से का तापमान औसतन ठीक ही हो. लेकिन तब आपका सिर जल जायेगा और पैर ठंड से अकड़ जायेंगे.
इसलिए हमें समझना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन से बड़ी समस्या मनुष्य सभ्यता में आज तक आयी ही नहीं है. इसके संदर्भ मनुष्य सभ्यता के कुल इतिहास में नहीं हैं. यह कितनी नयी, विराट और विचित्र चीज है, इसे समझना तो दूर, हमारे लिए इसकी कल्पना भी अत्यंत मुश्किल है.
पहले के जमाने में हमारे उपमहाद्वीप में गांव या शहर बसाते समय हरियाली का ध्यान रखा जाता था. पहले हर गांव-नगर में अमराइयां, वन-उपवन और वाटिकाएं हुआ करती थीं. पहले अमराइयां सिर्फ आम के लिए नहीं लगायी जाती थीं, बल्कि उसकी छांव में तो बरात तक ठहरती थी और वहां लोग इकट्ठा होकर सार्थक संवाद भी किया करते थे.
पैड़-पौधे वहां अधिक लगाये जाते थे जहां जल स्रोत हों. राजस्थान जैसे सूखे क्षेत्रों में भी हजारों एकड़ के ‘ओरण’ छोड़े जाते थे. ओरण यानी अरण्य, यानी वन और प्राकृतिक परिवेश. इसी तरह गुजरात के पश्चिमी हिस्सा भी राजस्थान जैसा सूखा क्षेत्र हैं. वहां हमें ‘रण’ मिलता है, छोटा रण भी और बड़ा भी.
रण भी अरण्य का ही अपभ्रंश है. यह दोनों शब्द यही बताते हैं कि हमारे यहां लोग अपनी बस्तियों में प्रकृति के लिए जगह छोड़ते थे, क्योंकि वे मानते थे कि प्रकृति ही मनुष्य को बचा सकती है. अगर हरियाली और पानी के लिए जगह छोड़ेंगे, तो वह हरियाली और पानी हमें पालेगा. आज ऐसा नहीं है. हमारे गांव-शहर हरियाली को केंद्र में रख के नहीं बनाये गये हैं. भीषण गर्मी तो होनी ही है.
भारत में कुल पानी का लगभग 70-90 प्रतिशत तीन महीने के मॉनसून में गिर जाता है. इस पानी को अगर आप रोक नहीं सकते, तो बाकी समय सूखे की मार निश्चित है. चौमासे के पानी को रोकने के दो ही तरीके हैं- या तो जंगल-पेड़ हों या फिर जलस्रोत हों, संभवतः दोनों हों, क्योंकि पेड़ एवं जलस्रोत एक-दूसरे के बिना आमतौर पर नहीं हो सकते. शहरों में न पेड़ रह गये हैं और न जलस्रोत बचे हैं. ऐसे में यह कैसे संभव है कि शहरों का तापमान न बढ़े?
पहले तालाब बनाना और हरियाली रखना सामाजिक काम था, पुण्य का काम था. आधुनिकता की आंधी में हमने अपने समय-सिद्ध सामाजिक ज्ञान का होम कर दिया. आधुनिकता और विज्ञान से भी उसकी अच्छी-ऊंची बातें नहीं लीं, सिर्फ उसका कचरा ओढ़ लिया है. आज हम परंपरा और आधुनिकता का सिर्फ कचरा ढो रहे हैं, उसकी अच्छाई को हम त्याग चुके हैं.
अब हमारे शहर सिर्फ कंक्रीट के होते हैं, जो गर्मी को रोकने की बजाय बढ़ाता है. मौसम के उतार-चढ़ाव के साथ मजबूत बने रहने के हमारे पुराने तरीके चले गये, क्योंकि हमने मान लिया कि आधुनिकता के युग में हम प्रकृति पर विजय कर के उसे अपनी मर्जी के हिसाब से ढाल लेंगे.
जलवायु परिवर्तन की बढ़ती मार हम सह नहीं पा रहे हैं. इससे बचने का तरीका बहुत सरल है, कि शहरों में कंक्रीट कम हो और हरियाली बढ़े. लेकिन, यह इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि आज की व्यवस्था में इससे किसी को मुनाफा नहीं है.
हम लोग अपनी घड़ियों में और अपने छोटे काल की समझ में इतने रमे हुए हैं कि हम भूल जाते हैं कि काल का एक बड़ा स्वरूप है, जो पंचांग में निकलकर आता है. यह अगर हम नहीं समझ पाते हैं, तो इसमें बड़ा योगदान पर्यावरण की एक नयी तरह की भोथरी भाषा का भी है. यह भाषा हमारा पढ़ा-लिखा समाज बना रहा है, हमारे नीति-निर्धारक इसे तैयार कर रहे हैं. वे कहते हैं कि हमें पर्यावरण बचाना है, पृथ्वी काे बचाना है.
जैसे कि पर्यावरण और पृथ्वी हमारे बनाये से बने हैं और हमारे बचाने से बच जायेंगे! असलियत इससे उल्टी है. प्रकृति ने हमको बनाया है, हमने प्रकृति को नहीं बनाया है. अगर हमें कुछ बचाना है, तो अपने आप को ही बचाना होगा, अपने आप ही से. यह रास्ता प्रकृति से निकलेगा. हमें पुरानी व्यवस्थाओं से यह सीखना पड़ेगा कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में कैसे मजबूती से बने रहा जा सकता है.
पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और मौसम के बदल रहे ढर्रे को लेकर हमारे अंदर थोड़ी विनम्रता की जरूरत है. पहले हम यह मानें कि प्रकृति ने हमें बनाया है. हम प्रकृति के संतुलन से ही बच पायेंगे. शहरों में पेड़ काटकर सड़क निर्माण कर देना विकास नहीं, विनाश ही है.
विकास के मूल में ही यह अहंकार है कि हम प्रकृति के बनाये नहीं हैं. हमारे अहंकार को तोड़ना प्रकृति के लिए कोई बड़ी बात नहीं है. आज श्रेष्ठ विज्ञान भी हमें उसी विनम्रता का रास्ता दिखा रहा है, जो हमारे सहज सामाजिक व्यवहार में और हमारे अध्यात्म में भी रही है. कोई सुननेवाला है?
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
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