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चीन से ट्रेड वार, ईरान से तकरार

नाजुक दौर से उबर रही वैश्विक अर्थव्यवस्था को अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से एक बार फिर झटका लगा है. आर्थिक मोर्चे पर चीन की घेराबंदी करने की ट्रंप की सनक चीन ही नहीं, बल्कि अमेरिका को भी नुकसान पहुंचा रही है. वहीं दूसरी ओर, वैश्विक तेल कारोबार से जुड़े अहम देश ईरान को सबक सिखाने के […]

नाजुक दौर से उबर रही वैश्विक अर्थव्यवस्था को अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से एक बार फिर झटका लगा है. आर्थिक मोर्चे पर चीन की घेराबंदी करने की ट्रंप की सनक चीन ही नहीं, बल्कि अमेरिका को भी नुकसान पहुंचा रही है. वहीं दूसरी ओर, वैश्विक तेल कारोबार से जुड़े अहम देश ईरान को सबक सिखाने के लिए अमेरिका ने उसे प्रतिबंधों के जाल में उलझाने के बाद अब सैन्य तनातनी बढ़ा दी है. दक्षिण-पूर्व एशिया में बीते कई वर्षों से अराजकता और अस्थिरता की स्थिति बनी हुई है.

अब अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ते उन्माद से इस क्षेत्र में तबाही की एक नयी शुरुआत का अंदेशा पैदा हो गया है. अमेरिका के एकाधिकारवादी रवैये और ट्रंप की सनक से आर्थिक और सामरिक स्तरों पर उपजे संकट पर दुनिया के तमाम देशों ने चिंता व्यक्त की है, साथ ही संयम बरतने की अपील भी की है. अमेरिका का चीन व ईरान के साथ बढ़ते तनाव और भविष्य की स्थिति के आकलन के साथ प्रस्तुत है आज का इन दिनों…

अमेरिका-ईरान संबंधों में कैसे आयी खटास

माना जाता है कि ईरान के साथ अमेरिका के संबंध में तब खटास आयी, जब शाह मोहम्मद रजा पहलवी को 1979 में जनता के विरोध प्रदर्शन के कारण सत्ता छोड़नी पड़ी थी. हालांकि, सच तो यह है कि अमेरिका-ईरान टकराव की जड़ें मोसादिक के तख्तापलट से जुड़ी हैं. वर्ष 1953 में अमेरिका ने ब्रिटिश इंटेलीजेंस एजेंसियों की मदद से ईरान के लोकप्रिय व धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादिक की सरकार का तख्तापलट करवा दिया था. मोसादिक ने ही ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण किया था और वे शाह की शक्ति को कम होते देखना चाहते थे. इसके बाद अमेरिकी समर्थक शाह रजा पहलवी ने उनकी जगह ली थी.

रजा पहलवी ने तकरीबन 25 साल तक सत्ता संभाली. कहा जाता है कि इस अवधि में ईरान-अमेरिका संबंध काफी मधुर हो गये थे. माना जाता है कि मधुरता का एक कारण यह भी था कि इस अवधि में ईरान को तेल से होनेवाली कमाई का करीब आधा हिस्सा अमेरिकी और ब्रिटिश कंपनियों के एक कंसोर्टियम को मिलने लगा था. बाद में इसी कारण दोनों देशों के बीच असंतोष उत्पन्न हुआ और रजा पहलवी के खिलाफ देश की जनता सड़कों पर उतर आयी. यह विरोध इतना उग्र था कि जनवरी 1979 में उन्हें देश छोड़ना पड़ा. कुछ समय बाद ही देश निकाला झेल रहे इस्लामिक धर्मगुरु अयातुल्लाह खुमैनी वापस लौटे और ईरान, इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान बना.

इसी वर्ष कुछ ईरानी छात्रों द्वारा तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावात के राजदूतों को बंधक बना लेने से नाराज अमेरिका ने ईरान पर पहली बार प्रतिबंध लगाया. नतीजा, अमेरिका ने अपने यहां ईरानी वस्तुओं के आयात को बंद कर दिया. इससे दोनों देशों के बीच अविश्वास बढ़ता गया. वर्ष 1995 में बिल क्लिंटन ने अमेरिकी कंपनियों को ईरान के तेल, व्यापार और गैस में निवेश करने से मना कर दिया. अप्रैल 1996 में अमेरिकी कांग्रेस ने एक कानून के जरिये ईरान के ऊर्जा क्षेत्र में विदेशी कंपनियों के 20 मिलियन डॉलर से ज्यादा के निवेश पर प्रतिबंध लगा दिया. जनवरी 2002 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने ईरान, इराक और उत्तर कोरिया को एक्सिस ऑफ ईविल घोषित कर दिया, जिसका ईरान में काफी विरोध हुआ. इसके बाद वर्ष 2002 में ही ईरान द्वारा चोरी-छिपे परमाणु कार्यक्रम शुरू करने का पता लगने पर एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा उस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाये गये.

फारस की खाड़ी में अमेरिकी युद्धपोत की तैनाती

आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहे ईरान ने हाल ही में कहा है कि वह परमाणु समझौते से जुड़ी शर्तों से बाहर निकल रहा है. हालांकि, इस बयान पर परमाणु समझौते में शामिल पश्चिमी देशों ने विरोध जताया है. ईरान के बयान के बाद दबाव बनाते हुए अमेरिका ने ईरान की मेटल इंडस्ट्री (लोहा, इस्पात, एल्युमीनियम और तांबा) पर प्रतिबंध लगा दिया है. ईरान के कुल निर्यात का 10 प्रतिशत हिस्सा मेटल इंडस्ट्री से आता है. इतना ही नहीं, ईरान के साथ बढ़ते तनाव के बीच अमेरिका ने अपने एक युद्धपोत, बी-2 बमवर्षक विमान, पैट्रियट मिसाइल डिफेंस सिस्टम को फारस की खाड़ी में तैनात कर दिया है. अमेरिका का कहना है कि वह ईरान से युद्ध नहीं चाहता, लेकिन अगर अमेरिकी हितों को नुकसान पहुंचता है, तो वह जवाब जरूर देगा. ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने माना है कि नये अंतरराष्ट्रीय प्रतिबंधों के कारण देश की हालत 1980-88 के बीच इराक से हुए युद्ध से भी बदतर हो गयी है. ईरान की मुद्रा रियाल रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गयी है.

क्या है ईरान परमाणु समझौता

जुलाई, 2015 में ईरान ने विश्व शक्तियों के समूह पी5+1 के साथ ज्वाइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लॉन ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) पर हस्ताक्षर किया था. इसे बड़ी राजनीतिक सफलता मानी गयी थी. इसे ‘ईरान परमाणु समझौता’ कहा जाता है. समझौते के तहत ईरान अपने परमाणु कार्यक्रमों को सीमित करने और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों द्वारा निगरानी पर सहमत हुआ था. इसके बदले संयुक्त राष्ट्र, यूरोपीय संघ और अमेरिका द्वारा ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों हटाने की बात कही गयी थी. समझौते में पी5+1 समूह यानी अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, जर्मनी और चीन शामिल थे. दिसंबर, 2015 में अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के बोर्ड ऑफ गवर्नर ने भी ईरान के परमाणु कार्यक्रमों के संभावित सैन्य आयामों की जांच को समाप्त करने के लिए मतदान किया था.

समझौते से पीछे हट गया अमेरिका

मई, 2018 में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस समझौते को दोषपूर्ण बताते हुए अमेरिका के इससे अलग होने की घोषणा कर दी और नये प्रतिबंध लगा दिये. यह धमकी भी दी कि जो देश ईरान के साथ व्यापार संबंध रखेगा, उसे भी अमेरिकी प्रतिबंध का सामना करना पड़ेगा. हालांकि, परमाणु समझौते में शामिल अन्य देश अमेरिका के इस कदम से सहमत नहीं थे. नतीजतन, ईरान पर अमेरिका और यूरोप के बीच के मतभेद खुलकर सामने आ गये. परमाणु समझौते से अलग होने से पहले अप्रैल, 2018 में ही ट्रंप ने ईरान के विशिष्ट सैन्यबल, इस्लामिक रिवोल्युशनरी गार्ड कॉर्प्स (आईएसजीसी) को विदेशी आतंकी संगठन करार दिया था.

परमाणु समझौते की कुछ प्रमुख शर्तें

परमाणु समझौते की प्रमुख शर्ताें में कहा गया था कि ईरान अपने करीब नौ टन अल्प संवर्धित यूरेनियम भंडार को कम करके 300 किलोग्राम तक करेगा. साथ ही ईरान अपना अल्प संवर्धित यूरेनियम रूस को देगा और सेंट्रीफ्यूज (अपकेंद्रण यंत्र) की संख्या घटायेगा. इसके बदले रूस ईरान को करीब 140 टन प्राकृतिक यूरेनियम यलो-केक के रूप में देगा. इस प्राकृतिक यूरेनियम का इस्तेमाल बिजलीघरों के लिए परमाणु छड़ बनाने के लिए होता है. एक शर्त यह भी थी कि अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अगले 10 से 25 साल तक इसकी जांच करने की स्वतंत्रता होगी कि ईरान समझौते की शर्तों का पालन कर रहा है या नहीं. इन सभी शर्तों को ईरान द्वारा मानने के बाद ही सभी देश प्रतिबंधों को हटाने पर सहमत हो गये थे.

वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा असर

जब से डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं, तब से ही विश्व भर में कुछ-न-कुछ उथल-पुथल चल ही रहा है. अमेरिका दुनिया पर फिर से अपनी प्रधानता स्थापित करना चाहता है, क्योंकि उसे एक खतरा लग रहा है कि आनेवाले वक्त में एशिया में कई देश बहुत ताकतवर हो जायेंगे, जिनसे अमेरिका का दबदबा कम हो सकता है. वर्तमान में कुछ ताकतें अमेरिका को सामरिक और आर्थिक रूप से चैलेंज कर रही हैं और अमेरिकी एकाधिकारवाद को नकार भी रही हैं. तकनीकी क्षेत्र में अमेरिका का जो एकाधिकार था, वह कुछ क्षीण भी हुआ है. रूस, चीन, भारत और ब्राजील आदि देश तकनीकी रूप से मजबूत होते चले जा रहे हैं. अमेरिका के पास एक ही तरीका है कि इनको कमजोर करने के लिए वह तरह-तरह के हथकंडे अपनाये, कभी जंग से, तो कभी आयात शुल्क (टैरिफ) बढ़ाकर, तो कभी प्रतिबंध लगाकर. इसलिए अमेरिका ने चीन पर कई टैरिफ बढ़ाये हैं, ईरान में कई चीजों पर प्रतिबंध लगाने की बात हो ही रही है और रूस पर तो प्रतिबंध उसने पहले से ही लगाये हुए हैं.

तेल के वैश्विक कारोबार में ईरान बहुत ही महत्वपूर्ण देश है. साथ ही ईरान पश्चिम एशिया में एक बड़ी ताकत है, जो हमेशा अमेरिका के सामने तनकर खड़ा रहता है. हालांकि, पिछले कुछ समय से ईरान का अपने तेल के ऊपर जो पूरा नियंत्रण था, वह अब कम हो रहा है. सीरिया और इराक के हालात से ईरान पर भी प्रभाव पड़ता है और लेबनान अपनी कोशिशों के बावजूद अमेरिका के सहयोग से सरकार नहीं बना पा रहा है. यमन में कई साल से युद्ध चल रहा है. उस पूरे क्षेत्र में करीब तीन दर्जन देश हैं, जहां तेल का भंडार है.

खासतौर पर यमन, ईरान, इराक, सीरिया, लेबनान आदि अगर अमेरिका की गिरफ्त में नहीं होते हैं, तो अमेरिका का मध्य-पूर्व में एकाधिकार खतरे में पड़ जाता है. यही वजह है कि अमेरिका इन क्षेत्रों में सक्रिय रहता है. वह चाहता है कि तेल का उत्पादन और वितरण दोनों चीजें अमेरिकी कंपनियाें के पास रहे. यह तभी संभव हो पायेगा, जब ईरान भी बाकी देशों की तरह अमेरिका का पिछलग्गू बन जाये. और ईरान ऐसा कभी कर ही नहीं सकता, इसलिए उसके साथ अमेरिका प्रतिबंधों का खेल रच रहा है. अमेरिका के पास ईरान पर प्रतिबंधों की एक लंबी लिस्ट है और ईरान कभी नहीं चाहेगा कि उसके यहां इस तरह हर चीज पर कोई प्रतिबंध लगाये. ऐसे में इस मसले के इतनी जल्दी हल होने के आसार नजर नहीं आ रहे हैं.

चीन के सामान अमेरिका में सस्ते बिकते हैं. अगर उन सामानों पर टैरिफ यानी आयात शुल्क लगा दिया जाये, तो वे सामान महंगे हो जायेंगे. अमेरिका यही चाहता है, क्योंकि ट्रंप की नीति यह है कि अमेरिका फिर से ग्लोबल प्रोडक्शन हब बन जाये, जैसा कि पहले था. चीन इस वक्त दुनिया में सबसे बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब है. अमेरिका चाहता है कि उसकी कंपनियां कहीं और न जाकर वहीं मैन्युफैक्चरिंग करें. ऐसा होगा, तो उससे बने सामानों की कीमत ज्यादा होगी, क्योंकि अमेरिका में श्रम महंगा है.

इसलिए अमेरिका टैरिफ बढ़ाकर चीनी सामानों की कीमत महंगा करना चाहता है, ताकि अमेरिकी और चीनी सामानों की कीमत एक हो जाये और अमेरिकी अपने यहां बने सामान खरीदें. ट्रंप चाहते हैं कि अपनी इस नीति से वह चीन की अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दें. इसलिए अमेरिका और चीन के बीच एक ट्रेड वार चल रहा है.

भारत अपनी अच्छी रणनीति के चलते अमेरिका, चीन और ईरान या फिर अन्य देशों के बीच की खींचतान में फंसने से बचता रहा है. लेकिन, अगर यह खींचतान यों ही चलती रही, तो निश्चित रूप से भारत पर इसका असर हो सकता है और ट्रेड वार का यह असर सिर्फ भारत पर ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया पर पड़ेगा. इस वक्त वैश्विक अर्थव्यवस्था की हालत पतली हुई पड़ी है, इसलिए इस ट्रेड वार से खुद अमेरिका को भी नुकसान होगा, लेकिन ट्रंप की हेठी है कि यह खींचतान चल रही है. अमेरिका के लिए यह सोचना आसान है कि वहां फिर से पहले जैसा मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर वापस बहाल हो जाये, लेकिन यह बहुत मुश्किल है, क्योंकि वहां श्रम और उत्पादन लागत बहुत महंगा है. अमेरिका को मैन्यूफैक्चरिंग हब बनने में बहुत लंबा समय लगेगा. इन सबके बीच अगर ईरान-अमेरिका तनाव या फिर चीन-अमेरिका तनाव इसी तरह बढ़ता रहा, तो इन सारे देशों की अर्थव्यवस्थाएं नीचे चली जायेंगी. जाहिर है, तब वैश्विक अर्थव्यवस्था और भी मुश्किल में आ जायेगी.

अमेरिका में मांग घटने से 1.4 अरब डॉलर का अतिरिक्त नुकसान

अमेरिकी ने भले ही चीनी सामानों पर आयात शुल्क लगा दिया हो, लेकिन इसका पूरा बोझ अमेरिकी व्यापारियों पर और आम ग्राहकों पर अधिक पड़ा है. एक अनुमान के मुताबिक, इस व्यापार तनातनी के कारण अमेरिकी कंपनियों को हर महीने तीन अरब डॉलर का भुगतान करना पड़ा है, साथ ही मांग में कमी आने से 1.4 अरब डॉलर का अतिरिक्त नुकसान हुआ है.

चीन को वैश्विक सप्लाइ चेन से हटाना मुश्किल!

बीते वर्षों से चीन ने जिस तरह के मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में लगभग एकाधिकार स्थापित कर लिया है, उससे पूरी दुनिया में सप्लाइ चेन की व्यवस्था बिल्कुल बदल चुकी है. ऐसे में आयात शुल्क लगाकर या किसी अन्य तरकीब से चीन को ग्लोबल सप्लाई चेन से हटाना बहुत मुश्किल हो चुका है. ट्रंप भले ही चीनी सामानों के आयात के बदले अन्य देशों से आयात करने या अमेरिकी निर्माताओं को प्रोत्साहन देने की बात कह रहे हों, लेकिन यह स्पष्ट है कि कोई भी व्यवस्था एकदम से नहीं बदली जा सकती है. उत्पादन बढ़ोतरी और सप्लाई चेन बनाने में काफी समय लगता है.

अमेरिका से बढ़ते तनाव से क्या

मजबूत होंगे चीन-ईरान संबंध

अमेरिका के साथ व्यापार युद्ध से भले ही चीन की चिंताएं बढ़ रही हों, लेकिन ईरान के प्रति बदली अमेरिकी नीतियां चीन के सामरिक हितों के लिए लाभकर हो सकती हैं. चीन की मध्य-एशियाई देशों के साथ व्यापक रणनीतिक साझेदारी है, जिसमें चीन-ईरान संबंध सबसे अहम है. हालांकि, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात भी चीन के अहम साझेदार हैं.

लेकिन, प्राकृतिक संसाधनों और सामरिक भौगोलिक स्थिति के कारण ईरान की अहमियत चीन के लिए बहुत मायने रखती है. व्यापारिक साझेदारी में चीन का पलड़ा भारी है. अमेरिका के साथ मनमुटाव की स्थिति के चलते जब तमाम देश ईरान से दूर हो रहे हैं, ऐसे में चीन खनिज संसाधनों, पश्चिम एशिया में सामरिक स्थिति, बेल्ट व रोड इनीशिएटिव के लिए सड़क मार्ग जैसी स्थिति को देखते हुए यहां संभावनाओं की तलाश में है.

यूरोप ने की तनाव कमकरने की अपील

यूरोपीय संघ और सदस्य देशों के विदेश मंत्रियों ने ईरान मामले में अमेरिका से संयम बरतने और जिम्मेदारी पूर्ण रवैया अख्तियार करने की अपील की है. यूरोपीय संघ की शीर्ष राजनयिक फेडेरिका मारिया मोघेरिनी के मुताबिक, यूरोपीय संघ ने अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पम्पियो से कहा है कि हम कठिन दौर व नाजुक क्षणों से गुजर रहे हैं.

ऐसे में जिम्मेदारी भरा रवैया अपनाने और तनाव को कम करना का प्रयास करना चाहिए. फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन द्वारा संयुक्त रूप से गठित इंस्टेक्स ( इंस्ट्रूमेंट इन सपोर्ट ऑफ ट्रेड एक्सचेंसेस) की बैठक में इस आशय की चर्चा की गयी. अमेरिकी प्रतिबंधों से निबटने व ईरान के साथ व्यापार जारी रखने के लिए यूरोपीय संघ द्वारा इंस्टेक्स को समर्थन दिया गया है.

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