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Friday, March 29, 2024

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सीजेआइ प्रकरण से उपजे सवाल

विजय कुमार चौधरी अध्यक्ष, बिहार विधानसभा vkumarchy@gmail.com भारत के मुख्य न्यायाधीश पर महिला कर्मचारी द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप प्रकरण ने जनमानस में कई प्रश्न अनुत्तरित छोड़ दिये हैं. सुप्रीम कोर्ट के जजों की तीन सदस्यीय आंतरिक समिति के द्वारा जांचोपरांत मुख्य न्यायाधीश को आरोप मुक्त किये जाने संबंधी प्रतिवेदन से असहमत भी होने का […]

विजय कुमार चौधरी
अध्यक्ष, बिहार विधानसभा
vkumarchy@gmail.com
भारत के मुख्य न्यायाधीश पर महिला कर्मचारी द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप प्रकरण ने जनमानस में कई प्रश्न अनुत्तरित छोड़ दिये हैं. सुप्रीम कोर्ट के जजों की तीन सदस्यीय आंतरिक समिति के द्वारा जांचोपरांत मुख्य न्यायाधीश को आरोप मुक्त किये जाने संबंधी प्रतिवेदन से असहमत भी होने का कारण नहीं है. फिर भी इस अभूतपूर्व घटना ने न्याय प्रणाली से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है.
पूर्व महिला कर्मचारी ने उच्चतम न्यायालय के अधिकतर जजों को पत्र लिखकर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया. आरोप भारत के मुख्य न्यायाधीश पर लगा था, नतीजतन, इस पत्र ने न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था में अप्रत्याशित हड़कंप मचा दिया.
हलफनामे में पूर्व कर्मचारी ने अक्तूबर, 2018 की दो घटनाओं का जिक्र करते हुए मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया. स्थापित सामान्य न्यायिक प्रक्रिया से हटकर आनन-फानन में मुख्य न्यायाधीश ने तीन सदस्यीय समिति गठित कर दी.
फिर उक्त महिला की आपत्ति पर एक सदस्य जज को बदलकर दूसरी महिला जज को मनोनीत किया गया. मुख्य न्यायाधीश ने अपने बैंक खाते में जमा रकम का हवाला देते हुए अपने को निर्दोष बताने की कोशिश की. आंतरिक समिति की कार्यशैली भी विवादास्पद ही रही. महिला को अपना वकील रखने से मना कर दिया गया. समिति की कार्यवाही को गोपनीय रखा गया. अंत में, महिला ने समिति के काम करने के अनौपचारिक तरीके पर आपत्ति जताते हुए समिति कक्ष में भय का वातावरण व्याप्त रहने की शिकायत की.
मामले की सुनवाई ‘विशाखा गाइडलाइन’ एवं ‘कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न अधिनियम, 2013’ के तहत किये जाने की मांग खारिज होने पर उसने अपने को जांच प्रक्रिया से ही अलग कर लिया. पूरे घटनाक्रम से स्पष्ट है कि इस मामले में उच्चतम न्यायालय शुरू से ही अति-प्रतिक्रिया एवं त्रास का शिकार बन गयी. वरना सामान्य न्यायिक प्रक्रिया के तहत इस मामले का निष्पादन ज्यादा सम्मानित तरीके से हो सकता था.
इस मामले से दो मुद्दे उभरे हैं. पहला, न्यायपालिका की कार्यशैली में पारदर्शिता का एवं दूसरा, सामाजिक-प्रगतिशील कानूनों के क्रियान्वयन में व्यावहारिक प्रमाणिकता का. आरोपों की जांच गोपनीय तरीके से करना एवं महिला को वकील रखने का अधिकार न देना- ये दोनों बातें सामान्य रूप से पारदर्शिता के सिद्धांत के विपरीत हैं.
न्यायपालिका द्वारा बारंबार पूर्ण पारदर्शिता के सिद्धांत को लागू करने के लिए अनेक महत्वपूर्ण निर्णय दिये गये हैं. कई अवसरों पर तो न्याय-निर्णय के क्रियान्वयन में व्यावहारिक कठिनाइयां भी उत्पन्न हुई हैं. इस प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनायी गयी गोपनीय प्रक्रिया का औचित्य क्या है? क्या यह मान लिया जाये कि महत्वपूर्ण संस्थाओं की विश्वसनीयता या इनसे जुड़ी मर्यादाओं की रक्षा के लिए गोपनीयता भी आवश्यक होती है? फिर तो, ऐसी प्रक्रिया न्यायपालिका के अलावा सरकार से जुड़ी दूसरी संस्थाओं की गरिमा एवं मर्यादा की सुरक्षा के मामलों में भी लागू करना प्रासंगिक होगा.
दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा प्रगतिशील-सामाजिक कानूनों के बढ़ते दुरुपयोग से उत्पन्न हो रही व्यावहारिक कठिनाइयों से संबंधित है. आये दिन महिला उत्पीड़न तथा अनुसूचित जाति/जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम जैसे संवेदनशील कानून के दुरुपयोग की शिकायतें सुनी जाती हैं.
जस्टिस कर्णन मामले को लोग अभी भूले नहीं होंगे. न्यायपालिका के इतिहास में यह अनोखा अवसर था, जिसमें सर्वोच्च न्यायिक संस्था पर ही इन अधिनियमों के तहत न सिर्फ आरोप लगा, बल्कि देश के उच्चतम न्यायिक अधिकारी मुख्य न्यायाधीश को ही आरोपित कर दिया गया. जस्टिस कर्णन ने अपने ही मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए कॉलेजियम के सारे सदस्य जजों को अनुसूचित जाति/ जनजाति निवारण अधिनियम के तहत दोषी करार कर सजा सुना दी. वर्तमान मामले में भी मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को ही लागू करने की मांग महिला कर्मचारी द्वारा की गयी.
साल 1997 में पारित ऐतिहासिक निर्णय के तहत कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ उत्पीड़न के विरुद्ध कानून बनाने का निर्देश न्यायालय द्वारा दिया गया और कानून बनने तक के लिए कोर्ट ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किये, जिसे ‘विशाखा गाइडलाइन’ के नाम से हम जानते हैं. धीरे-धीरे उच्चतम न्यायालय द्वारा ही महिला उत्पीड़न या रेप मामले में स्वतंत्र गवाह की अनिवार्यता को भी समाप्त कर दिया गया.
न्यायालय ने यह मानते हुए कि ऐसी स्थिति में कोई दूसरा व्यक्ति उपस्थित नहीं होता है, इसके सत्यापन की आवश्यकता को भी खत्म कर दिया. अब अगर महिला किसी व्यक्ति को पहचान कर उसके विरुद्ध यौन-उत्पीड़न का आरोप लगाती है, तो यह अपने आप में संतोषजनक प्रमाण मान लेने का निर्देश जारी किया गया. महिला कर्मचारी इसी कानून के तहत सुनवाई की मांग कर रही थी.
यह सही है कि परंपरागत रूप से उपेक्षित एवं शोषित वर्गों के साथ ज्यादतियां होती रही हैं. इसमें मुख्य रूप से महिला, अनुसूचित जाति/ जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के लोग आते हैं. इसे रोकने हेतु सख्त कानून की आवश्यकता है.
सरकार ने भेदभाव समाप्त करने हेतु इसी के आधार पर कई महत्वपूर्ण एवं कारगर सामाजिक कानून बनाये हैं. इन कानूनों के बनने से संबंधित वर्ग के सदस्यों को राहत मिली है एवं अब कोई उनका शोषण अथवा उत्पीड़न आसानी से नहीं कर सकता है. इसमें न्यायपालिका की भी बड़ी भूमिका रही है.
लेकिन, अब इस तरह के कानूनों से संबंधित दूसरा पक्ष सामने आ रहा है. ऐसे कानूनों की आड़ में निर्दोष लोगों को परेशान करने की शरारतपूर्ण कार्रवाई की सूचना भी यत्र-तत्र से सुनी जाती है.
चाहे जस्टिस कर्णन का मामला हो या वर्तमान में उच्च न्यायालय के महिला कर्मचारी के उत्पीड़न का मामला, ये दोनों ज्वलंत प्रमाण हैं, जिसमें इन कानूनों के दुरुपयोग की जद में कोई सामान्य नागरिक नहीं, बल्कि उच्चतम न्यायालय खुद आ गया. उच्चतर न्यायपालिका तो सर्वशक्तिमान होती है, वह ऐसे घातक जद से अपने को बाहर कर लेने में सक्षम है.
परंतु किसी सामान्य नागरिक के विरुद्ध षड्यंत्र के तहत ऐसे आरोप लगाये जाते हैं, तो उसकी न्यायसंगत रक्षा के लिए तो न्यायपालिका को ही संवेदनशील जिम्मेदारी निभानी होगी. हमारा न्यायशास्त्र भी बेगुनाह लोगों की सुरक्षा को दोषियों की सजा से कम वांछनीय नहीं मानता है.
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